दीपक जलाकर अपने हाथ अवश्य धोएं। बिना हाथ धोए अन्य कर्म निषिद्ध हैं। इससे पाप लगता है —
दीपं स्पृष्ट्वा तु यो देवि! मम कर्माणि कारयेत् । तस्यापराधाद्वै भूमे! पापं प्राप्नोति मानवः ।
दीपक जलाने के लिए शुद्ध घी प्रयोग करें।यदि घी उपलब्ध न हो तो शुद्ध तिल या सरसों का तेल डालकर दीपक जलाएं। अन्य मोम आदि के दीपक वर्जित हैं —
वह्निपुराणे “घृतं तैलञ्च दीपार्थे स्नेहान्यन्यानि वर्जयेत्”
वसामज्जास्थिनिर्यासैः स्नेहैः प्राण्यङ्गसम्भवैः । प्रदीपं नैव कुर्य्यात्तु कृत्वा पङ्के विषीदति ।
दीपक जलाकर सीधा धरती पर न रखें। क्योंकि पृथ्वी सबकुछ सहन कर सकती है लेकिन बिना कारण पांव से प्रहार और दीपक का ताप नहीं।
अतः दीपक के नीचे ऐसी व्यवस्था करें कि दीपक धरती से चार अंगुल ऊंचा रहे । वृक्ष/ईंट/दीवार आदि पर चावल रखकर दीपक स्थापित करें —
वृक्षेषु दीपोदातव्यो न तु भूमौ कदाचन । सर्वंसहा वसुमती सहते न त्विदं द्वयम् । अकार्य्यपादघातञ्च दीपतापं तथैव च । तस्माद् यथा तु पृथिवी तापं नाप्नोति वै तथा । दीपं दद्यान्महादेव्यै अन्येभ्योऽपि च भैरव! । कुर्वन्तं पृथिवीतापं यो दीप सुत्सृजेन्नरः । स ताम्रतापं नरकमाप्नोत्येव शतं समाः ।
मृण्मये वृक्षकोटौ तु दीपं दद्यात् प्रयत्नतः । लभ्यते यस्य तापस्तु दीपस्य चतुरङ्गुलात् । न स दीप इति ख्याती ह्योघवह्निस्तु स स्मृतः ।
कुछ लोग दीपक की बत्तियां बनी बनाई खरीदते हैं।यह कैमीकल में भिगोकर बनाई जाती हैं। अतः शुद्ध रूई से दांयी ओर बांटकर खुद बत्तियां बनाएं –
कर्पूरादियुता वर्त्तिः सा च कार्पास निर्मिता ।
दक्षिणावर्त्तवर्तिस्तु प्रदीपः श्रीविवृद्धये ।।