परम पूज्य श्री सद्गुरूदेव भगवान जी की असीम कृपा एवं अमोघ आशीर्वाद से प्राप्त सुबोध के आधार पर, उन्हीं की सद्प्रेरणा से, धर्म और अध्यात्म मार्ग के चार क्रमिक स्तर विषयक, इस महत्वपूर्ण चिंतनका आज से शुभारम्भ किया जा रहा है। इस चिंतन से जुड़ने जा रहे आप सभी धार्मिक एवं अध्यात्मप्रेमी आदरणीय सज्जनों एवं विदुषी देवियों का हार्दिक अभिनन्दन एवं स्वागत है।
इस धरती पर मानव समाजमें पैदा होनेवाला हर शिशु, चाहे वह बालक हो या बालिका, जिस पिताके द्वारा, जिस माताके गर्भ से, पैदा होता है, उसके वह माता-पिता, इस धरती पर सैकड़ों, हजारों या लाखों वर्षों से चली आ रही “ईश्वर” सम्बन्धी अनेकानेक मान्यताओं में से किसी एक या अनेक मान्यताओं के अनुसार, जीवन जीनेवाले हुआ करते हैं।
इस धरती पर मानव समाजमें, “ईश्वर” सम्बन्धी अनेकानेक मान्यताएँ विद्यमान हैं और उन अलग- अलग मान्यताओं में से किसी एक मान्यताको माननेवाले जिस समुदाय के घरमें कोई संतान (लड़का या लड़की) पैदा होती है, उस घर में चली आ रही, “ईश्वर” सम्बन्धी उन मान्यताओं के आधार पर, उस बच्चेकी जीवन यात्रा चलने लगती है।
हमारी धरती पर ऐसे भी असंख्य लोग हुआ करते हैं, जो “ईश्वर” के अस्तित्व को तो नहीं मानते लेकिन ऐसे लोगों के घरों में पैदा होनेवाले बच्चों की जीवन यात्रा भी, उनके माता- पिता की सभी मान्यताओं के अनुसार नहीं भी सही, तो भी कुछ न कुछ मान्यताओं के अनुसार तो चलने ही लगती है और, अपवाद को छोड़कर, जीवनभर उसी प्रकार चलती रहती है।
“ईश्वर” पर आस्था व विश्वास रखनेवाली विभिन्न मान्यताओं व विचारधाराओं के आधार पर, जो करोड़ों या लाखों या हजारों लोगों से संगठित अनेकानेक विशाल “समुदाय” इस धरती पर विद्यमान हैं, उन्हें “धर्म”, “सम्प्रदाय”, “मजहब”, “रिलिजन”, “मत”, “पंथ”, “समुदाय”, “अखाड़ा”, “संगत”, आदि अलग-अलग नामों से जाना जाता है, जैसे – हिन्दू, मुस्लिम, ईसाई, यहूदी, पारसी, सिक्ख, बौद्ध, जैन, आदि आदि।
इनके अन्तर्गत भी, पुरानी मान्यताओं, परम्पराओं, विश्वासों व जीवनशैली में समय-समय पर आये सुधारों और परिवर्तनों के कारण, समय-समय पर अनेकानेक नये नये उपधर्म, मत, पंथ, संघ, सत्संग, फिर्के, जाति, जनजाति, आदिवासी, समुदाय आदि कुछ कम व कुछ बहुत बड़ी मानव संख्या में संगठित होते रहते हैं, जिनकी संख्या हमारे देश “भारत” में सबसे अधिक और सारी दुनियाँ की करीब आठ अरब जनसंख्या में तो कुल मिलाकर हजारों-लाखों में होंगी।
इन सभी धर्मों, सम्प्रदायों, मत-पंथों एवं समुदायों के अनुयायियों की “ईश्वर सम्बन्धी” ज्ञान-विज्ञान व मान्यताओं की, जो “सैद्धान्तिक” और “व्यावहारिक” शिक्षा तथा तदनुसार जीवन यात्रा हुआ करती है, उसके, विशेषरूप से हमारे हिन्दू धर्म में, “चार क्रमिक स्तर” (stages) देखने, सुनने व समझने में आया करते हैं।
उन चार क्रमिक स्तरों में से “पहले स्तर” पर आजका चिंतन प्रस्तुत है और उस स्तर का नाम है:-
(१) “आस्तिकता”-
हमारे चारों तरफ विद्यमान, जो असीमित व अनन्त प्रकार की अद्भुत विस्मयकारी जड़ व चेतन “सृष्टि”, हमें दिखाई देती है, इसका बड़े ही व्यवस्थित विधिसे सृजन करनेवाली, इसका पालन- पोषण करनेवाली, नियन्त्रण, संचालन करनेवाली और फिर अलग-अलग आयु सीमा के पूरे होने पर, प्रत्येक प्राणी व पदार्थ को रूपान्तरित कर उसके भौतिक रूप को, “मृत्यु” से समाप्त करनेवाली, जो एक स्वतः संचालित महान “शक्ति” है, विभिन्न धर्म सम्प्रदायों द्वारा, उसके अपनी- अपनी बोली-भाषा में अलग-अलग नाम रक्खे गये हैं। जैसे- परमेश्वर, परमब्रह्म, परमात्मा, अल्लाह, खुदा, भगवान, अहूरमज़दा, गाॅड, राम, हरि, नारायण, देव, देवी, वाहेगुरू, परमगुरू आदि आदि।
उक्त विभिन्न नामोंवाली, उस महान विस्मयकारी शक्ति पर आस्था व विश्वासका होना, “आस्तिकता” कहलाती है, चाहे कोई उसे सगुण- साकार रूप में माने, या सगुण-निराकार माने अथवा निर्गुण- निराकार रूप में।
मन में ऐसी आस्था और विश्वास का होना तथा यह मानना कि- उस महान “शक्तिसंपन्न ईश्वर” की प्रचलित विधि से पूजा- उपासना करने से, तथा अपने धर्म, सम्प्रदाय, जाति या कुल परंम्परा में, जीवन की विभिन्न गतिविधियों को चलाने के लिए, जो वर्षों-वर्षों से मान्य ईश्वरीय निर्देश, सिद्धान्त, नीतियाँ, मान्यताएँ, परम्पराएँ व नियम प्रचलित हैं, उनका अनुपालन करनेसे, हमारे मनके अनुकूल, बड़ेसे बड़े, वे लाभ हमें मिल सकते हैं, जिन्हें अन्य उपायों से प्राप्त करना असम्भव है या अत्यधिक कष्टकारी है- यही धारणा “आस्तिकता” कहलाती है।
ईश्वर सम्बन्धी ज्ञान-विज्ञानकी पढ़ाई या जानकारी का यह “पहला” या “प्रारम्भिक स्तर” है।
दूसरे क्रमिक स्तर की चर्चा अगले अंक-२ में………।
सादर,
**ॐ श्री सदगुरवे परमात्मने नमो नमः**