इसे समझ लो,
जो पुरुष कर्म में अकर्म देखे, कर्म माने आराधना अर्थात् आराधना करे और यह भी समझे कि करनेवाला मैं नहीं हूँ बल्कि गुणों की अवस्था ही चिन्तन में हमें नियुक्त करती है, मैं गुणों द्वारा प्रेरित होकर कर्म में बरतता हूँ अथवा ‘मैं इष्ट द्वारा संचालित हूँ’– ऐसा देखे और जब इस प्रकार अकर्म देखने की क्षमता आ जाय और धारावाहिक रूप से कर्म होता रहे, तभी समझना चाहिये कि कर्म सही दिशा में हो रहा है। वही पुरुष मनुष्यों में बुद्धिमान् है, मनुष्यों में योगी है, योग से युक्त बुद्धिवाला है और सम्पूर्ण कर्मों को करनेवाला है। उसके द्वारा कर्म करने में लेशमात्र भी त्रुटि नहीं रह जाती।
सारांशत: आराधना ही कर्म है, उस कर्म को करें और करते हुए अकर्म देखें कि मैं तो यन्त्रमात्र हूँ, करानेवाला इष्ट है और मैं गुणों से उत्पन्न अवस्था के अनुसार ही चेष्टा कर पाता हूँ। जब अकर्म की यह क्षमता आ जाय और धारावाहिक कर्म होता रहे, तभी परमकल्याण की स्थिति दिलानेवाला कर्म हो पाता है। हल का सारा भार बैलों के कन्धों पर ही रहता है, फिर भी खेत की जुताई हलवाहे की देन है। ठीक इसी प्रकार साधन का सारा भार साधक के ऊपर ही रहता है; किन्तु वास्तविक साधक तो इष्ट है जो उसके पीछे लगा हुआ है, जो उसका मार्गदर्शन करता है। जब तक इष्ट निर्णय न दें, तब तक आप समझ ही नहीं सकेंगे कि हमसे हुआ क्या? हम प्रकृति में भटक रहे हैं या परमात्मा में? इस प्रकार इष्ट के निर्देशन में जो साधक इस आत्मिक पथ पर अग्रसर होता है, अपने को अकर्त्ता समझकर धारावाहिक कर्म करता है वही बुद्धिमान् है, उसकी जानकारी यथार्थ है, वही योगी है।
⚘️श्रीकृष्ण के अनुसार जो कुछ किया जाता है, कर्म नहीं है। कर्म एक निर्धारित की हुई क्रिया है। ‘नियतं कुरु कर्म त्वम्’– अर्जुन! तू निर्धारित कर्म को कर। निर्धारित कर्म है क्या? तब बताया, ‘यज्ञार्थात्कर्मणोऽन्यत्र लोकोऽयं कर्मबन्धन:।’– यज्ञ को कार्यरूप देना ही कर्म है। तो इसके अतिरिक्त जो कुछ किया जाता है, क्या वह कर्म नहीं है? श्रीकृष्ण कहते हैं, ‘अन्यत्र लोकोऽयं कर्मबन्धन:’– इस यज्ञ को कार्यरूप देने के सिवाय जो कुछ किया जाता है, वह इसी लोक का बन्धन है, न कि कर्म। ‘तदर्थं कर्म’– अर्जुन! उस यज्ञ की पूर्ति के लिये भली प्रकार आचरण कर। और जब यज्ञ का स्वरूप बताया तो वह शुद्ध रूप से आराधना की एक विधि-विशेष है, जो उस आराध्य देव तक पहुँचाकर उसमें विलय दिलाता है।
⚘️इस यज्ञ में इन्द्रियों का दमन, मन का शमन, दैवी सम्पद् का अर्जन इत्यादि बताते हुए अन्त में कहा– बहुत से योगी प्राण और अपान की गति का निरोध करके प्राणायाम के परायण हो जाते हैं। जहाँ न भीतर से संकल्प उठता है और न बाह्य वातावरण का संकल्प मन के अन्दर प्रविष्ट हो पाता है, ऐसी स्थिति में चित्त का सर्वथा निरोध और निरुद्ध चित्त के भी विलयकाल में वह पुरुष ‘यान्ति ब्रह्म सनातनम्’– शाश्वत, सनातन ब्रह्म में प्रवेश पा जाता है। यही सब यज्ञ है, जिसे कार्यरूप देने का नाम कर्म है। अत: कर्म का शुद्ध अर्थ है ⚘️‘आराधना’, कर्म का अर्थ है ‘भजन’, कर्म का अर्थ है ‘योग-साधना’ को भली प्रकार सम्पादित करना,,
यदि यहां कर्म नही समझ सके तो कभी नहीं समझ सकेंगे,
🌹हरि ॐ🌹
Understand It, The man who sees inaction in action, acts as worship means worship and also understands that I am not the doer but the state of virtues appoints us in thinking, I act inspired by virtues or ‘I am governed by love’ ‘ – See like this and when the ability to see inaction comes in this way and karma continues to happen serially, then only it should be understood that karma is being done in the right direction. He is the wisest among men, the yogi among men, the one with the mind of yoga and the doer of all actions. There is not even an iota of error left in performing actions through him.
In summary, worship is a deed, do that deed and while doing non-deeds, see that I am just an instrument, the doer is my favorite and I am able to try only according to the state generated by virtues. When this ability of inaction comes and serial actions continue, only then the actions that lead to the state of supreme welfare can be done. The entire weight of the plow rests on the shoulders of the oxen, yet plowing the field is the gift of the ploughman. In the same way, the entire burden of the instrument remains on the seeker; But the real seeker is the one who follows him, who guides him. Until you give a favorable decision, you will not be able to understand what happened to us. Are we wandering in nature or in God? In this way, the seeker who moves forward on this spiritual path under the direction of God, considering himself as a non-doer, performs serial actions, he is intelligent, his knowledge is accurate, he is a Yogi.
⚘️According to Sri Krishna, whatever is done is not karma. Karma is a determined action. ‘Do your duty as determined’- Arjuna! You do the prescribed action. What is the prescribed action? Then he explained, ‘Yajnaarthaatkarmano anyatra loko’yam karmabandhana:.’- Giving the form of action to sacrifice is karma. So in addition, whatever is done, isn’t that karma? Sri Krishna says, ‘Anyatra loko’yam karmabandhana:’- whatever is done except to give this sacrifice the form of action is the bondage of this world, not karma. ‘Action for that’- Arjuna! Conduct yourself well for the fulfillment of that sacrifice. And when the nature of the sacrifice is explained, it is purely a ritual of worship, which leads to the worshiped deity and merges in it.
⚘️In this sacrifice, the suppression of the senses, the relief of the mind, the acquisition of divine wealth, etc., said at the end: Many yogis become devoted to pranayama by inhibiting the movement of prana and apana. Where neither the resolution from within nor the resolution of the external environment can enter the mind, in such a state of complete restraint of the mind and even the dissolution of the restrained mind, that man enters into ‘Yanti Brahma Sanatanam’- the eternal, eternal Brahman goes to the This is all sacrifice, which is called karma. Therefore, the pure meaning of karma is ⚘️‘worship’, karma means ‘bhajan’, karma means to perform ‘yoga-practice’ well, If you can’t understand karma here, you’ll never understand, 🌹Hari Om🌹