भागवत रहस्य-03

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ईश्वर जगत में किसी एक स्थान में है यह ज्ञान भी अपूर्ण है।
ईश्वर सर्व व्यापक है, यह एक मूर्ति में या मंदिर में रह नहीं सकते है (समा नहीं सकते है ).
मंदिर में प्रभु के दर्शन कर लेने पर ज्ञानी पुरुष , जहाँ जाते है वहीं ,भगवानस्वरूप का अनुभव करते है।
मंदिर में प्रभु के दर्शन करके बहार आने पर प्रत्येक में परमात्मा का दर्शन करें ,मन जहाँ जाय वहां ईश्वर का दर्शन करें ,यही हे ईश्वर का असाधारण दर्शन।
जो परमात्मा मुझमें हैं वही सबमें है इसी प्रकार अखिल जगत जिसे ब्रह्मस्वरुप दीखता है वही ज्ञानी है..

सबमें परमात्मा का अनुभव करते करते उसे अपने स्वरुप में भी परमात्मा का अनुभव होता है।
परमात्मा के परोक्ष दर्शन से कोई विशेष लाभ नहीं होता है। परन्तु जीव जब परमात्मा का अपरोक्ष दर्शन करता है तभी कृतार्थ होता है। ज्ञानी पुरुषो को अपने स्वरुप में भी श्री भगवान दीखते है। यही अद्वैत है।

श्री कृष्ण लीलाये इसलिए है कि इस लीलाओं का चिंतन करती गोपियाँ ,
अपने स्वरुप में भी परमात्मा का अनुभव करती है।
“लाली देखन मैं गई, मैं भी हो गई लाल। “ गोपियों को अपने स्वरुप का विस्मरण हुआ है और कहती है,
“मै ही श्रीकृष्ण हूँ। अपने प्यारे श्रीकृष्ण का सबमे अनुभव करतीं गोपियाँ श्रीकृष्णमय बानी है।

जिसे अपने अंदर परमात्मा का दर्शन होता है, वही जीव परमात्मा में मिल जाता है।
अंदर परमात्मा का दर्शन होता है।
अपने अंदर जिसे परमात्मा दिख जाते हैं उसके बाद वह जीव ईश्वर से जुदा नहीं रह सकता है।
वह ईश्वर में मिल जाता है। यही भागवत का फल है।

ज्ञानी ज्ञान से परमात्मा का (ब्रह्म का अपरोक्ष साक्षात्कार करते है,
जब कि वैषणव (भक्त)परमात्मा का अपरोक्ष साक्षात्कार करते है।

ईश्वर जीव को अपना कर जब अपने स्वरुप का दान करते है,तभी जीव पूर्ण होता है,
बिना ईश्वर के सारा संसार अपूर्ण है। जीव अपूर्ण है। अतः इसे शांति नहीं है- नारायण ही पूर्ण है।
सच्ची शांति नारायण में हैं . नर नारायण का अंश है,नर तो नारायण में ही समां जाना चाहता है.
श्रीनारायण की पहचान कराने वाला और श्रीनारायण में लीन होने का साधन यह श्रीभगवत शास्त्र है।

जीव नारायण का अंश है। इसे तो उसी में मिल जाना है। इसके लिए शास्त्रो में अनेक उपाय कहे है।
(१) कर्ममार्ग, (२) ज्ञानमार्ग(३) भक्तिमार्ग।

उपनिषद से (उपनिषदों के गायन से) ईश्वर का अपरोक्ष साक्षात्कार होता है।
परन्तु व्यासजी ने विचार किया कि उपनिषदों की भाषा गूढ़ है,सामन्य मनुष्य इसे समझ नहीं सकेंगे। उपनिषदों का ज्ञान तो दिव्य है। परन्तु अपने जैसे विलासी लोग ऐसे दिव्याज्ञान का अनुभव नहीं कर सकेंगे, कारण मनुष्यों के जीवन अति विलासी है। इसलिए ज्ञानमार्ग से जीव ईश्वर के पास जा सके यह असंभव है। अति वैराग्य के बिना ज्ञानमार्ग में सफलता नहीं मिलती। ज्ञान की बुनियाद है वैराग्य।
ऐसा अति वैराग्य प्राप्त करना अति कठिन है। श्रीशुकदेवजी महाराज को ऐसा अति वैराग्य प्राप्त हुआ था। जन्म होते ही उन्होंने वन की ओर प्रयाण किया था और पिता से कहा था ,”
आप पिता नहीं है और मै पुत्र नहीं हूँ।”

जी महाराज वैराग्य,



The knowledge that God is in some one place in the world is also incomplete. God is omnipresent, it cannot live in an idol or in a temple. A wise man, having seen the Lord in the temple, experiences the form of God wherever he goes. After seeing the Lord in the temple, when you come out, see God in everyone, wherever your mind goes, see God, this is the extraordinary vision of God. The God who is in me is in all, similarly the one who sees the whole world as Brahman is the one who is knowledgeable.

While experiencing God in everyone, he experiences God in his own form as well. There is no special benefit from the indirect vision of God. But when the soul has an indirect vision of the Supreme Soul, then it becomes grateful. Shree Bhagwan is also seen in his own form to wise men. This is the act of uniting two or more things.

Shri Krishna lilaye is because the gopis contemplating these pastimes, She also experiences God in her own form. “I went to see the red, I too became red. The gopis have forgotten their form and say, “I am Shri Krishna. The gopis experiencing their beloved Shri Krishna in everyone are Sri Krishnamay.

The one who has the vision of God within himself, the same soul merges with the Supreme Soul. There is a vision of God inside. The one who sees God within himself, then that soul cannot remain separate from God. He merges in God. This is the fruit of the Bhagavatam.

Gnani realizes God with knowledge (indirect realization of Brahman, Whereas Vaishnavs (devotees) do indirect realization of the Supreme Soul.

When God donates his form by adopting the soul, then only the soul becomes complete. Without God the whole world is incomplete. Life is incomplete. Therefore it is not peace – only Narayan is complete. True peace is in Narayan. The male is a part of Narayan, the male wants to be absorbed in Narayan. This Shri Bhagvat Shastra is the one who identifies Shri Narayan and means to merge with Shri Narayan.

Jiva is part of Narayana. It has to be found in that. For this, many remedies have been said in the scriptures. (1) the path of action, (2) the path of knowledge (3) the path of devotion.

From the Upanishads (by the singing of the Upanishads) there is an indirect realization of God. But Vyasji thought that the language of the Upanishads is esoteric, normal human beings will not be able to understand it. The knowledge of the Upanishads is divine. But luxuriant people like themselves will not be able to experience such divine knowledge, because the life of human beings is very luxurious. Therefore it is impossible for a living being to approach God through the path of knowledge. Without extreme dispassion there is no success in the path of knowledge. The foundation of knowledge is dispassion. It is very difficult to attain such extreme dispassion. Shri Shukdevji Maharaj had attained such extreme dispassion. As soon as he was born, he marched towards the forest and told his father, You are not the father and I am not the son.”

Ji Maharaj Vairagya,

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