“सन्त की सादगी”

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      एक बार सन्त दादू जंगल में विश्राम कर रहे थे। उनके दर्शन के लिए लोग वहाँ भी आने लगे। नगर के एक कोतवाल ने जब उनकी महिमा सुनी, तो वह भी अपने अश्व पर आरूढ़ हो उनके दर्शन को निकला। मार्ग में उसे लंगोटी धारण किया हुआ एक कृशकाय व्यक्ति जंगल साफ करता दिखाई दिया। कोतवाल ने उससे पूछा, “ऐ भिखारी ! क्या तू जानता है कि यहाँ कोई सन्त दादू रहते हैंं ?”
      उस व्यक्ति ने उसकी ओर देखा मात्र और अपने काम में लग गया। उसे चुपचाप देख कोतवाल ने पुनः प्रश्न किया, किन्तु उसे कोई उत्तर न देते देख वह गुस्सा हो गया और उसे चाबुक से मारते हुए बोला,  “तू गूँगा है क्या ? मैं तुमसे पूछ रहा हूँ और तू उसका जबाब भी नहींं देता !”  जब उसके शरीर से खून निकलता दिखाई दिया, तो उसे दया आयी और मारना बन्द किया। इतने में एक व्यक्ति वहाँ से गुजरा। उससे भी कोतवाल ने वही प्रश्न किया। उस व्यक्ति ने उत्तर दिया, “ये जो मार्ग के काँटे साफ कर रहे हैंं, यही तो सन्त दादू हैंं।”
      अब तो कोतवाल की ऐसी दशा हो गयी कि  काटो तो खून ही  नहींं। वह उनके पैरों पर गिर पड़ा और उनसे क्षमा माँगी। तब सन्त दादू बोले, “कोई भी ग्राहक बाजार में जब घड़ा खरीदने जाता है, तो पहले ठोंक – पीटकर ही तो उसकी जाँच करता है। तुम्हें भी शायद मुझे गुरू बनाना था, इसलिए मुझे ठोंका – पीटा है, सो इसमें क्षमा काहे की ?”
                       “जय जय श्री राम



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