मुक्त पुरुष का किसी चीज से कोई आग्रह नहीं है, कि ऐसा ही होगा तो ही मैं सुखी रहूंगा। जैसा भी है, उसमें वह राजी है। उसका राजीपन प्रगाढ़ है, गहरा है, पूर्ण है।
समस्तरूपेण उसने स्वीकार कर लिया है, कि प्रभु जो दिखाएं, जहां ले जाएं, उसमें राजी है। न वह महल छोड़ता है, न वह झोपड़े को चुनता है। जीता है सूखे पत्ते की भांति, हवा जहां भी ले जाए।
‘धीर पुरुष के हृदय में पंडित, देवता और तीर्थ का पूजनकर तथा स्त्री, राजा और प्रियजन को देखकर कोई भी वासना नहीं होती।’
श्रोत्रिय देवतां तीर्थमंगना भूपति प्रियम्।
दृष्ट्वा सत्त्व धीरस्य न कापि हृदि वासना।।
धीर पुरुष भी पूजन करता है, लेकिन उसके पूजन में और दूसरी तरफ के लोगों के पूजन में जमींन-आसमान का फर्क है। धीर पुरुष भी कभी मंदिर जाता है तो मग्न होकर प्रतिमा के सामने नाचता है। कभी गंगा भी नहाता है, कभी तीर्थों की यात्रा भी करता है, लेकिन उसके मन में कोई वासना नहीं है।
धीर पुरुष जहां है, वहीं मंदिर। लेकिन मंदिर का कोई त्याग भी नहीं है। कभी पूजा भी कर लेता है। क्योंकि पूजन का भी एक मजा है। पूजन का भी एक रस है। पूजन भी एक अहोभाव है। लेकिन यह सब है अहोभाव, एक धन्यवाद कि प्रभु तूने खूब दिया है उसके लिए धन्यवाद।
।। जय हो प्रभु ।।