हिंदू धर्म के पवित्र ग्रंथ ‘श्रीमद्भगवद गीता’ के तीसरे अध्याय में गजेंद्र स्तोत्र पढ़ने को मिलता है। इसमें कुल ३३ श्लोक दिए गए हैं। इस स्तोत्र का जाप करने से जीवन में किसी प्रकार की परेशानियों से तत्काल मुक्ति मिल जाती है। इस स्तोत्र में हाथी और मगरमच्छ के साथ हुए युद्ध का वर्णन किया गया है।
श्रीमद्भागवतान्तर्गत गजेन्द्र कृत भगवान का स्तवन-
श्री शुक उवाच
एवं व्यवसितो बुद्ध्या समाधाय मनो हृदि।
जजाप परमं जाप्यं प्राग्जन्मन्यनुशिक्षितम।।
अर्थ-
शुकजी ने कहा, कि बुद्धि के अनुसार पिछले अध्याय में वर्णन किए गए रीति से अपने मन को नियंत्रित कर और हृदय को स्थिर करके गजेंद्र अपने पिछले जन्म में याद किए गए सर्वोच्च कार्य और और बार-बार जाप किए जाने वाले स्तोत्र का जाप करने लगा।
ॐ नमो भगवते तस्मै यत एतच्चिदात्मकम।
पुरुषायादिबीजाय परेशायाभिधीमहि।।
अर्थ-
गजेंद्र ने मन ही मन श्री हरी को ध्यान करते हुए कहा कि, जिनके प्रवेश करने से शरीर और मस्तिष्क चेतन की तरह व्यवहार करने लगते हैं, ॐ द्वारा लक्षित और पूरे शरीर में प्रकृति और पुरुष के रूप में प्रवेश करने वाले उस सर्व शक्तिमान देवता का मैं मन ही मन स्मरण करता हूँ।
यस्मिन्निदं यतश्चेदं येनेदं य इदं स्वयं।
योस्मात्परस्माच्च परस्तं प्रपद्ये स्वयम्भुवम।।
अर्थ-
जिनके सहारे ये पूरा संसार टिका हुआ है, जिनसे ये संसार अवतरित हुआ है, जिन्होनें प्रकृति की रचना की है और जो खुद उसके रूप में प्रकट हैं, लेकिन इसके वाबजूद भी वो इस दूनिया से सर्वोपरि और श्रेष्ठ हैं। ऐसे अपने आप और बिना किसी कारण के भगवान् की मैं शरण में जाता हूँ।
यः स्वात्मनीदं निजमाययार्पितंक्कचिद्विभातं क्क च तत्तिरोहितम।
अविद्धदृक साक्ष्युभयं तदीक्षतेस आत्ममूलोवतु मां परात्परः।।
अर्थ-
अपने संकल्प शक्ति के बल पर अपने ही स्वरूप में रचित और सृष्टि काल में प्रकट एवं प्रलय में अप्रकट रहने वाले, इस शास्त्र प्रसिद्धि प्राप्त कार्य कारण रुपी संसार को जो बिना कुंठित दृष्टि के साक्ष्य रूप में देखते रहने पर भी लिप्त नहीं होते, चक्षु आदि प्रकाशकों के परम प्रकाशक प्रभु आप मेरी रक्षा करें।
कालेन पंचत्वमितेषु कृत्स्नशोलोकेषु पालेषु च सर्व हेतुषु।
तमस्तदाऽऽऽसीद गहनं गभीरंयस्तस्य पारेऽभिविराजते विभुः।।
अर्थ-
बीतते गए समय के साथ तीनों लोकों और ब्रह्मादि लोकपालों के पंचभूत में प्रवेश कर जाने पर और पंचभूतों से लेकर महत्वपूर्ण सभी कारणों के उनकी परमकरूणा स्वरूप प्रकृति में मग्न हो जाने पर उस समय दुर्ज्ञेर और घोर अंडकार रूपेण प्रकृति ही बच रही थी। उस अन्धकार से परे अपने परम धाम में जो सर्वव्यापी भगवान सभी दिशाओं में प्रकाशित होते रहते हैं, वो भगवान मेरी रक्षा करें।
न यस्य देवा ऋषयः पदं विदुर्जन्तुः पुनः कोऽर्हति गन्तुमीरितुम।
यथा नटस्याकृतिभिर्विचेष्टतोदुरत्ययानुक्रमणः स मावतु।।
अर्थ-
विभिन्न नाट्य रूपों में अभिनय करने वाले और उस अभिनेता के वास्तविक स्वरूप को जिस प्रकार से साधारण लोग भी नहीं पहचान पाते, उसी तरह से सत्त्व प्रधान देवता और महर्षि भी जिनके स्वरूप को नहीं जान पाते, ऐसे में कोई साधारण प्राणी उनका वर्णन कैसे कर सकता है। ऐसे दुर्गम चरित्र वाले भगवान मेरी रक्षा करें।
दिदृक्षवो यस्य पदं सुमंगलमविमुक्त संगा मुनयः सुसाधवः।
चरन्त्यलोकव्रतमव्रणं वनेभूतत्मभूता सुहृदः स मे गतिः।।
अर्थ-
अनेको शक्ति से मुक्त, सभी प्राणियों को आत्मबुद्धि प्रदान करने वाले, सबके बिना कारण हित और अतिशय साधु स्वभाव ऋषि मुनि जन जिनके परम स्वरूप को देखने की इच्छा के साथ वन में रहकर अखंड ब्रह्मचर्य तमाम अलौकिक व्रतों को नियमों के अनुसार पालन करते हैं, ऐसे प्रभु ही मेरी गति हैं।
न विद्यते यस्य न जन्म कर्म वान नाम रूपे गुणदोष एव वा।
तथापि लोकाप्ययाम्भवाय यःस्वमायया तान्युलाकमृच्छति।।
अर्थ-
वह जिनका हमारी तरह ना तो जन्म होता है और ना जिनका अहंकार में कोई भी काम नहीं होता है, जिनके निर्गुण रूप का ना कोई नाम है और ना कोई रूप है, इसके बावजूद भी वह समय के साथ इस संसार की सृष्टि और प्रलय के लिए अपनी इच्छा से अपने जन्म को स्वीकार करते हैं।
तस्मै नमः परेशाय ब्राह्मणेऽनन्तशक्तये।
अरूपायोरुरूपाय नम आश्चर्य कर्मणे।।
अर्थ-
उस अनंत शक्ति वाले परम ब्रह्मा परमेश्वर को मेरा ननस्कार है। प्राकृत, आकार रहित और अनेक रूप वाले अद्भुत भगवान् को मेरा बार बार नमस्कार है।
नम आत्म प्रदीपाय साक्षिणे परमात्मने।
नमो गिरां विदूराय मनसश्चेतसामपि।।
अर्थ-
स्वयं प्रकाशित सभी साक्ष्य परमेश्वर को मेरा शत् शत् नमन है। वैसे देव जो नम, वाणी और चित्तवृतियों से परे हैं उन्हें मेरा बारंबार नमस्कार है।
सत्त्वेन प्रतिलभ्याय नैष्कर्म्येण विपश्चिता।
नमः केवल्यनाथाय निर्वाणसुखसंविदे।।
अर्थ-
विवेक से परिपूर्ण, पुरुष के द्वारा सभी सत्त्व गुणों से परिपूर्ण, निवृति धर्म के आचरण से मिलने वाले योग्य, मोक्ष सुख की अनुभूति रुपी भगवान को मेरा नमस्कार है।
नमः शान्ताय घोराय मूढाय गुण धर्मिणे।
निर्विशेषाय साम्याय नमो ज्ञानघनाय च।।
अर्थ-
सभी गुणों के स्वीकार शांत, रजोगुण को स्वीकार करके अत्यंत और तमोगुण को अपनाकर मूढ़ से जाने जाने वाले, बिना भेद के और हमेशा सद्भाव से ज्ञानधनी प्रभु को मेरा नमस्कार है।
क्षेत्रज्ञाय नमस्तुभ्यं सर्वाध्यक्षाय साक्षिणे।
पुरुषायात्ममूलय मूलप्रकृतये नमः।।
अर्थ-
शरीर के इंद्रिय के समुदाय रूप , सभी पिंडों के ज्ञाता, सबों के स्वामी और साक्षी स्वरूप देव आपको मेरा नमस्कार। सबो के अंतर्यामी, प्रकृति के परम कारण लेकिन स्वयं बिना कारण भगवान को मेरा शत शत नमस्कार।
सर्वेन्द्रियगुणद्रष्ट्रे सर्वप्रत्ययहेतवे।
असताच्छाययोक्ताय सदाभासय ते नमः।।
अर्थ-
सभी इन्द्रियों और सभी विषयों के जानकार, सभी प्रतीतियों के कारण रूप, सम्पूर्ण जड़-प्रपंच और सबकी मूलभूता अविद्या के द्वारा सूचित होने वाले और सभी विषयों में अविद्यारूप से भासने वाले भगवान को मेरा नमस्कार है।
नमो नमस्ते खिल कारणायनिष्कारणायद्भुत कारणाय।
सर्वागमान्मायमहार्णवायनमोपवर्गाय परायणाय।।
अर्थ-
सबके कारण, लेकिन स्वयं बिना कारण होने पर भी, बिना किसी परिणाम के होने की वजह से, अन्य कारणों से भी विलक्षण कारण, आपको मेरा बार बार नमस्कार है। सभी वेदों और शास्त्रों के परम तात्पर्य, मोक्षरूपी और श्रेष्ठ पुरुषों की परम गति देवता को मेरा नमस्कार है।
गुणारणिच्छन्न चिदूष्मपायतत्क्षोभविस्फूर्जित मान्साय।
नैष्कर्म्यभावेन विवर्जितागम-स्वयंप्रकाशाय नमस्करोमि।।
अर्थ-
वह जो त्रिगुण रूपो में छिपी हुई ज्ञान रुपी अग्नि हैं, वैसे गुणों में हलचल होने पर जिनके मन मस्तिष्क में संसार को रचने की वृति उत्पन्न हो उठती हो और जो आत्मा तत्व की भावना के द्वारा विधि निषेध रूप शास्त्र से भी ऊपर उठे हो, जो महाज्ञानी महत्माओं में स्वयं प्रकाशित हो रहे हैं, ऐसे भगवान को मेरा नमस्कार है।
मादृक्प्रपन्नपशुपाशविमोक्षणायमुक्ताय भूरिकरुणाय नमोऽलयाय।
स्वांशेन सर्वतनुभृन्मनसि प्रतीत प्रत्यग्दृशे भगवते बृहते नमस्ते।।
अर्थ-
मेरे जैसे शरणागत, पशु के सामान जीवों की अविद्यारूप, फांसी को पूर्ण रूप से काट देने वाले परम दयालु और दया दिखने में कभी भी आलस नहीं करने वाले भगवान को मेरा नमस्कार है। अपने अंश से सभी जीवों के मन में अंतर्यामी रूप से प्रकट होने वाले सर्व नियंता अनंत परमात्मा आपको मेरा नमस्कार है।
आत्मात्मजाप्तगृहवित्तजनेषु सक्तैर्दुष्प्रापणाय गुणसंगविवर्जिताय।
मुक्तात्मभिः स्वहृदये परिभावितायज्ञानात्मने भगवते नम ईश्वराय।।
अर्थ-
जो शरीर, पुत्र, मित्र, घर और संपत्ति सहित कुटुंबियों में अशक्त लोगों के द्वारा कठिनाई से मिलते हो और मुक्त पुरुषों के द्वारा अपने ह्रदय में निरंतर चिंतित ज्ञानस्वरूप, सर्व समर्थ परमेश्वर को मेरा नमस्कार है।
यं धर्मकामार्थविमुक्तिकामाभजन्त इष्टां गतिमाप्नुवन्ति।
किं त्वाशिषो रात्यपि देहमव्ययंकरोतु मेदभ्रदयो विमोक्षणम।।
अर्थ-
वह जिन्हें धर्म, अभिलषित भोग, धन और मोक्ष की कामना से मनन करके लोग अपनी मनचाही इच्छा पूर्ण कर लेते हैं। अपितु जिन्हे विभिन्न प्रकार के अयाचित भोग और अविनाशी पार्षद शरीर भी देते हैं, वैसे अत्यंत दयालु प्रभु मुझे इस प्रकार के विपदा से हमेशा के लिए बाहर निकालें।
एकान्तिनो यस्य न कंचनार्थवांछन्ति ये वै भगवत्प्रपन्नाः।
अत्यद्भुतं तच्चरितं सुमंगलंगायन्त आनन्न्द समुद्रमग्नाः।।
अर्थ-
वह जिनके एक से अधिक भक्त है, जो मुख्य रूप से एकमात्र उसी भगवान् के शरण में हैं। जो धर्म, अर्थ आदि किसी भी पदार्थ की अभिलासा नहीं रखते है, जो केवल उन्ही के परम मंगलमय एवं अत्यंत विलक्षण चरित्र का गुणगान करते हुए उनके आनंदमय समुद्र में गोते लगाते रहते हैं।
तमक्षरं ब्रह्म परं परेश-मव्यक्तमाध्यात्मिकयोगगम्यम।
अतीन्द्रियं सूक्षममिवातिदूर-मनन्तमाद्यं परिपूर्णमीडे।।
अर्थ-
उन अविनाशी, सर्वव्यापी, सर्वमान्य, ब्रह्मादि के भी नियामक, अभक्तों के लिए भी हमेशा प्रकट होने वाले, भक्तियोग द्वारा प्राप्त, अत्यंत निकट होने पर भी माया के कारण अत्यंत दूर महसूस होने वाले, इन्द्रियों के द्वारा अगम्य और अत्यंत दुर्विज्ञेय, अंतरहित लेकिन सभी के आदिकारक और सभी तरफ से परिपूर्ण उस भगवान् की मैं स्तुति करता हूँ।
यस्य ब्रह्मादयो देवा वेदा लोकाश्चराचराः।
नामरूपविभेदेन फल्ग्व्या च कलया कृताः।।
अर्थ-
वो जो ब्रह्मा सहित सभी देवता, चारों वेद, समस्त चर और अचर जीव के नाम और आकृति भेद से जिनके अत्यंत छुद्र अंशों से रचयित हैं।
यथार्चिषोग्नेः सवितुर्गभस्तयोनिर्यान्ति संयान्त्यसकृत स्वरोचिषः।
तथा यतोयं गुणसंप्रवाहोबुद्धिर्मनः खानि शरीरसर्गाः।।
अर्थ-
जिस तरह से जलती हुई अग्नि की लपटें और सूरज की किरणें हर बार बाहर निकलती हैं और फिर से अपने कारण में लीन हो जाती है, उसी प्रकार बुद्धि, मस्तिष्क, इन्द्रियाँ और नाना योनियों के शरीर जिन सभी गुणों से प्राप्त शरीर, जो स्वयं प्रकाश परमात्मा से अवतरित होकर फिर से उन्हें में लीं हो जाता है।
स वै न देवासुरमर्त्यतिर्यंगन स्त्री न षण्डो न पुमान न जन्तुः।
नायं गुणः कर्म न सन्न चासननिषेधशेषो जयतादशेषः।।
अर्थ-
वह भगवान जो ना तो देवता हैं, ना असुर, ना मनुष्य और ना ही मनुष्य से नीचे किसी अन्य योनि के प्राणी। ना ही वो स्त्री हैं, ना पुरुष और ना ही नपुंसक और ना ही वो कोई ऐसे जीव हैं जिनका इन तीनों ही श्रेणी में समावेश है। वो ना तो गुण हैं, ना कर्म, वो ना ही कार्य हैं और ना ही कारण। इन सभी योनियों का निषेध होने पर जो बचता है, वही उनका असली रूप है। ऐसे प्रभु मेरा उत्थान करने के लिए प्रकट हो।
जिजीविषे नाहमिहामुया कि मन्तर्बहिश्चावृतयेभयोन्या।
इच्छामि कालेन न यस्य विप्लवस्तस्यात्मलोकावरणस्य मोक्षम।।
अर्थ-
अब मैं इस मगरमच्छ के चंगुल से आजाद होने के बाद जीवित नहीं रहना चाहता, इसकी वजह ये हैं कि मैं सभी तरफ से अज्ञानता से ढके इस हाथी के शरीर का क्या करूँ। मैं आत्मा के प्रकाश से ढक देने वाले अज्ञानता से युक्त इस हाथी के शरीर से मुक्त होना चाहता हूँ, जिसका कालक्रम से अपने नाश नहीं होता, बल्कि ईश्वर की दया और ज्ञान से उदय हो पाता है।
सोऽहं विश्वसृजं विश्वमविश्वं विश्ववेदसम।
विश्वात्मानमजं ब्रह्म प्रणतोस्मि परं पदम।।
अर्थ-
इस प्रकार से मोक्ष के लिए लालायित संसार के रचियता, स्वयं संसार के रूप में प्रकट, लेकिन संसार से परे, संसार में एक खिलौने की भांति खेलने वाले, संसार में आत्मरूप से व्याप्त, अजन्मा, सर्वव्यापी एवं प्राप्त्य वस्तुओं में सर्वश्रेष्ठ श्री हरी का केवल स्मरण करता हूँ और उनकी शरण में जाता हूँ।
योगरन्धित कर्माणो हृदि योगविभाविते।
योगिनो यं प्रपश्यन्ति योगेशं तं नतोऽस्म्यहम।।
अर्थ-
वह जिन्होनें भगवद्शक्ति रूपी योग के द्वारा कर्मों को जला डाला है, जिन्हे समस्त योगी, ऋषि अपने योग के द्वारा अपनी शुद्ध ह्रदय में प्रकट देखते हैं, उन योगेश्वर भगवान् को मेरा नमस्कार है।
नमो नमस्तुभ्यमसह्यवेग-शक्तित्रयायाखिलधीगुणाय।
प्रपन्नपालाय दुरन्तशक्तयेकदिन्द्रियाणामनवाप्यवर्त्मने।।
अर्थ-
वह जिनके तीगुणे शक्तियों का राग, रूप वेग और असह्य है, जो सभी इन्द्रियों के विषय रूप में मौजूद है, वह जिनकी इन्द्रियां समस्त विषयों में ही बसी रहती है, ऐसे लोगों जिनको मार्ग मिलना भी संभव नहीं है, वैसे शरणागत एवं अपार शक्तिशाली वाले भगवान आपको मेरा बारंबार नमस्कार है।
नायं वेद स्वमात्मानं यच्छ्क्त्याहंधिया हतम।
तं दुरत्ययमाहात्म्यं भगवन्तमितोऽस्म्यहम।।
अर्थ-
वह जिनकी अविद्या नाम के शक्ति के कार्यरूप से ढँके हुए है, वह जिनके रूप को जीव समझ नहीं पाते है, ऐसे अपार महिमा वाले भगवान की मैं शरण लेता हूँ।
श्री शुकदेव उवाच
एवं गजेन्द्रमुपवर्णितनिर्विशेषंब्रह्मादयो विविधलिंगभिदाभिमानाः।
नैते यदोपससृपुर्निखिलात्मकत्वाततत्राखिलामर्मयो हरिराविरासीत।।
अर्थ-
श्रीशुकदेव जी कहते हैं कि, वह जिसने पूर्व प्रकार से भगवान के भेदरहित सभी निराकार रूप का वर्णन किया था, उस गजराज के करीब जब ब्रह्माजी साथ में अन्य कोई देवता नहीं आये, जो अपने विभिन्न प्रकार के विशेष विग्रहों को ही अपना रूप मानते हैं, ऐसे में साक्षात् विष्णु जी, जो सभी के आत्मा होने के कारण सभी देवताओं के रूप हैं, तब वहां प्रकट हुए।
तं तद्वदार्त्तमुपलभ्य जगन्निवासःस्तोत्रं निशम्य दिविजैः सह संस्तुवद्भि:।
छन्दोमयेन गरुडेन समुह्यमानश्चक्रायुधोऽभ्यगमदाशु यतो गजेन्द्रः।।
अर्थ-
गजराज को इस प्रकार से दुखी देखकर और उसके पढ़े गए स्तुति को सुनकर चक्रधारी प्रभु इच्छानुसार वेग वाले गरुड़ की पीठ पर सवार होकर सभी देवों के साथ उस स्थान पर पहुंचे जहाँ वह गज था।
सोऽन्तस्सरस्युरुबलेन गृहीत आर्त्तो दृष्ट्वा गरुत्मति हरि ख उपात्तचक्रम।
उत्क्षिप्य साम्बुजकरं गिरमाह कृच्छान्नारायण्खिलगुरो भगवान नम्स्ते।।
अर्थ-
सरोवर के अंदर महाबलशाली मगरमच्छ द्वारा जकड़े और दुखी उस हाथी ने आसमान में गरुड़ की पीठ पर बैठे और हाथों में चक्र लिए भगवान् विष्णु को आते हुए जब देख, तो वह अपनी सूँड में पहले से ही उनकी पूजा के लिए रखे कमल के फूल को श्री हरी पर बरसाते हुए कहने लगा- सर्वपूज्य भगवान श्री हरी आपको मेरा प्रणाम ”सर्वपूज्य भगवान् श्री हरी आपको मेरा नमस्कार।
तं वीक्ष्य पीडितमजः सहसावतीर्यसग्राहमाशु सरसः कृपयोज्जहार।
ग्राहाद विपाटितमुखादरिणा गजेन्द्रंसम्पश्यतां हरिरमूमुचदुस्त्रियाणाम।।
अर्थ-
लाचार हाथी को देखकर श्री हरी विष्णु, गरुड़ से नीचे उतरकर सरोवर में उतर आये और बेहद दुखी होकर ग्राह सहित उस गज को तुरंत ही सरोवर से बहार निकाल आये और देखते ही देखते अपने चक्र से मगरमच्छ के गर्दन को काट दिए और हाथी को उस पीड़ा से बहार निकाल लिया।
।। जय भगवान श्रीहरि विष्णु ।।
Gajendra Stotra is found in the third chapter of ‘Shrimad Bhagavad Gita’, the holy book of Hinduism. A total of 33 verses have been given in this. Chanting this stotra gives instant relief from any kind of troubles in life. The battle with the elephant and the crocodile is described in this hymn.
Praise of God Gajendra Krit under Shrimad Bhagwat-
Mr. Shuka said
Thus determined by the intellect, fixing the mind in the heart.
He chanted the supreme mantra which he had learned in his previous birth.
Meaning-
Shukaji said, controlling his mind and steadying his heart in the manner described in the previous chapter, Gajendra began to chant the supreme act remembered in his previous birth and the hymn to be chanted again and again. .
Oṁ namo bhagavate tasmai yata etacchidatmakam.
We offer our respectful obeisances to the Purusha, the original seed, the Supreme Lord.
Meaning-
Gajendra meditated in his mind on Sri Hari, whose entry makes the body and mind behave like consciousness, the all-powerful deity who is guided by Om and enters the whole body as Prakriti and Purusha. I remember in my mind.
In whom this is, from whom this is, by whom this is, who this is itself.
I seek refuge in Him who is beyond this and beyond all others.
Meaning-
On whose support this whole world is sustained, from whom this world has descended, who has created nature and who is manifested in its form, but in spite of this he is paramount and superior to this world. This is how I take refuge in God on my own and without any reason.
He who has offered this to Himself by His own illusion, sometimes shining and sometimes disappearing.
May the unpierced eye, the witness, who sees both, the root of the Self, the Supreme Being, protect me.
Meaning-
Created in its own form by the power of its will power and manifest in the time of creation and unmanifest in the doomsday, this scripture-famous work-cause world, which does not get attached to the world in the form of action without frustrated vision, eyes etc. Lord, the supreme publisher of publishers, you protect me.
In time, the fiveness is measured in all the worlds and in all the causes of the guardians.
Then there was a deep darkness on the other side of which the almighty Lord shone.
Meaning-
With the passage of time, when all the three worlds and Brahmadi Lokpals entered the Panchbhoots and all the important causes from the Panchbhoots got engrossed in nature as their ultimate compassion, at that time only nature was saved in the form of fierce and dark darkness. May the omnipresent Lord who shines in all directions beyond that darkness in His supreme abode, protect me.
Who can go and die again whose footsteps the gods and sages do not know?
May he protect me from the insurmountable sequence of movements of the actor’s figures
Meaning-
How can an ordinary creature describe the person who acts in various theatrical forms and whose real form is not known even by ordinary people, in the same way even the sattva-dominated deities and sages do not know? Is. May God protect me with such an inaccessible character.
The sages and the pious desired to see His auspicious and unreleased associations.
My friends who have become my own in the forest are observing the vows of the world without wounds That is my refuge
Meaning-
Free from many powers, giving self-intelligence to all beings, benefiting everyone without any reason and very saintly nature, sage sages, who live in the forest with the desire to see the supreme form, follow all supernatural vows according to the rules, unbroken celibacy, such Lord is my speed.
He who has no birth, action, name, form, virtue or evil.
Yet he who by his own illusory energy attains those worlds for the sake of the destruction of the worlds.
Meaning-
He who is neither born like us nor who has no work in the ego, whose nirguna form has no name and no form, yet in time he is responsible for the creation and destruction of this world. Accept your birth with your will.
Obeisance to that Supreme Lord, the Brahman, of infinite power.
O formless and formless one, O wonderful worker, I offer my obeisances to you.
Meaning-
I offer my obeisances to the Supreme Lord Brahma who has infinite power. My salutations again and again to the wonderful God who is natural, formless and has many forms.
Obeisance to the Self-Light, the Witness, the Supreme Soul.
Obeisance to Him who is far from the words of the mind and the consciousness.
Meaning-
I bow down to God for all the self-published evidences. By the way, my repeated salutations to the deities who are beyond moisture, speech and mind.
The wise by inaction to be recovered by Sattva.
Obeisance to the Lord of Kevalya, the consciousness of the bliss of Nirvana.
Meaning-
My salutations to the God who is full of discretion, full of all sattva qualities through a man, worthy of getting retirement by the conduct of religion, the experience of salvation happiness.
Obeisance to the peaceful, the terrible, the foolish, the virtuous, the righteous.
Obeisance to the equal without distinction and to the denseness of knowledge.
Meaning-
My salutations to the Lord who is calm by accepting all the qualities, who is known by adopting the qualities of passion, and who is known by the foolish by adopting the qualities of ignorance, without discrimination and always with harmony.
O knower of the field, O presiding over all, O witness, I offer my obeisances unto Thee.
O Purusha, the root of the Self, the root of nature, I offer my obeisances.
Meaning-
My salutations to you, the community form of the senses of the body, the knower of all objects, the lord of all and the witness. My humble obeisances to the Lord who is the innermost of all, the ultimate cause of nature but himself without any reason.
To the seer of all sense-qualities, the cause of all beliefs.
O eternally illuminating one spoken of as the shadow of the unreal, I offer my obeisances to you.
Meaning-
My salutations to the Lord who knows all the senses and all subjects, who is the cause of all appearances, the form, the whole material world and the root of all, who is informed by ignorance and who is seen in all subjects in the form of ignorance.
Obeisance, obeisance, to the whole cause, the causeless, the wonderful cause.
O great ocean of all-coming illusion, O liberator, O ultimate refuge.
Meaning-
Because of all, but without reason itself, because of being without any result, due to other reasons also unique reason, I salute you again and again. My salutations to the deity who is the ultimate meaning of all the Vedas and scriptures, the form of salvation and the ultimate speed of the best men.
The forest of virtues, covered with the heat of the mind, is stirred by the stirring of the flesh.
I offer my obeisances to the self-illumination of the Vedas, devoid of the sense of inaction.
Meaning-
The one who is the fire of knowledge hidden in the three gunas, when there is a stir in such qualities, in whose mind and brain the instinct to create the world arises and who by the spirit of the soul element has risen above even the prohibited forms of the scriptures, who My salutations to such a God who himself is being published in great sages.
O abode, freed from the shackles of surrendered animals like me, O greatly merciful one, I offer my obeisances.
O great Lord, perceived in the mind by His own part, bearing all embodied beings, directly seen, I offer my obeisances unto Thee.
Meaning-
My salutations to the supremely merciful God who completely cuts off the gallows and who is never lazy in showing mercy to a refugee like me, ignorant of animal-like creatures. My salutations to you, the Supreme Lord, the Supreme Controller of all, who manifests in the mind of all living beings through his part.
For the difficult to attain by those attached to the self-obtained house and wealth of the people, devoid of the association of virtues.
O Lord, the Supreme Lord, the Soul of knowledge, whom the liberated souls have meditated upon in their own hearts, I offer my obeisances unto Thee.
Meaning-
I offer my salutations to the all-powerful Supreme Lord, who is in the body, sons, friends, home and property with family members with difficulty by the weak and by free men constantly anxious in their hearts.
Whom they worship for the sake of Dharma, Kama, Artha and Vimukti and attain the desired destination.
What blessings do you give me? May the body be inexhaustible and may the clouds of fat liberate you.
Meaning-
Those whom people fulfill their desired wishes by meditating on them with the desire of religion, desired enjoyment, wealth and salvation. Apitu, who also gives various types of unwanted enjoyment and imperishable councilor body, may the most merciful Lord get me out of this type of disaster forever.
Those who have surrendered to the Lord do not desire any golden object in solitude.
They were immersed in the ocean of joy as they swam in the auspicious story of that most wonderful character.
Meaning-
He who has more than one devotee, who is primarily in the refuge of the Lord alone. Those who don’t have any desire for religion, wealth etc., who keep diving in their blissful ocean praising only their most auspicious and extremely unique character.
That imperishable Brahman, the Supreme Lord, the unmanifest, is attainable by spiritual yoga.
I worship the transcendental, the subtle, the distant, the infinite, the original, the perfect.
Meaning-
That indestructible, all-pervading, all-pervading, controller of even the universe, always manifest even to the non-devotee, attained by devotional yoga, yet very close yet felt very far away by maya, unapproachable and most incomprehensible by the senses, immeasurable but all I praise that God who is the originator and perfect in all aspects.
whose gods, Brahma and others, the Vedas, the worlds, the moving and the unmoving.
They were made by the difference of names and forms and by the slightest art.
Meaning-
The one who has created all the deities including Brahma, the four Vedas, all the variable and immutable creatures from whose extremely fine parts, with distinction of name and form.
As the flames of fire go out of the womb of the sun, so the rays of their own light go together.
And because this is the flow of the modes, the intellect, the mind, the pits, and the creation of the body.
Meaning-
Just as the flames of a burning fire and the rays of the sun every time come out and again merge into their cause, so also the body of the intellect, the brain, the senses and the bodies of the various forms of life, the body which itself is the source of light. Having descended from the Supreme Soul, it again merges with Him.
He is neither a god, nor a demon, nor a mortal, nor an animal, nor a woman, nor a prostitute, nor a man, nor a being.
There is no virtue, no action, no existence, no remainder of prohibition of seat, no remainder of victory.
Meaning-
The Lord who is neither a deity, nor a demon, nor a human being, nor a creature of any other form below a human being. He is neither female, nor male, nor eunuch, nor is he any creature that is included in all these three categories. He is neither guna nor karma, he is neither effect nor cause. What remains when all these species are prohibited, that is their real form. May such a Lord appear to uplift me.
I do not wish to live here, but I wish to cover myself inside and out.
I desire liberation from the covering of the self-world which is not disturbed by time.
Meaning-
Now I don’t want to live after being freed from the clutches of this crocodile, the reason for this is that what should I do with this elephant body covered with ignorance from all sides. I want to be free from the body of this elephant with ignorance covering the light of the soul, which is not destroyed by time itself, but is able to rise by the mercy and knowledge of God.
That I am the creator of the universe, the universe, the universe, the universe, equal to the Vedas.
I bow to the unborn Brahman, the Supreme Soul of the universe, the supreme abode.
Meaning-
Thus the creator of the world yearning for salvation, manifesting himself as the world, but beyond the world, playing in the world like a toy, self-pervaded in the world, unborn, all-pervading and the best of attainable things, Sri Hari only. I remember and take refuge in him.
Yoga-cooked actions in the heart, in the Yoga-conceived.
I bow to Him whom the Yogis see as the Lord of Yoga.
Meaning-
My salutations to the Yogeshwar Bhagwan, who has burnt the Karma through the Yoga of Bhagavadshakti, whom all Yogis, Rishis see manifested in their pure heart through their Yoga.
Obeisance to you, the three powers of unbearable speed, the quality of all intelligence.
O protector of the surrendered, O infinitely powerful one, O path unattainable to the senses alone.
Meaning-
He who has the threefold powers of passion, speed and insufferable, who is present in the object of all the senses, whose senses are fixed in all objects, such people who are not even able to find the way, such surrendered and immeasurably powerful God I salute you again and again.
He does not know his own self, which is killed by the ego.
I offer my obeisances to that insurmountable greatness of the Supreme Lord.
Meaning-
I take refuge in the Supreme Personality of Godhead, who is covered by the action of the power of ignorance, whose form cannot be understood by living beings.
Sri Shukdev said
Thus described without distinction the lord of the elephants, Brahma and others are proud of the differences of various sexes.
When these did not approach, being all-pervading, there the all-pervading Hari appeared.
Meaning-
Shree Shukdev ji says that, he who previously described all the formless forms of the Lord, close to that Gajraj, when no other gods came with Brahmaji, who consider their different types of special idols as their form, In such a situation, Vishnu ji, who is the soul of all, who is the form of all the gods, then appeared there.
Seeing him in such distress the inhabitant of the universe heard the hymn chanted by the celestials who were praising him
The lord of the elephants at once approached the place where Garuda the lord of elephants was armed with the wheel
Meaning-
Seeing Gajraj sad in this way and listening to his recited praise, the Chakradhari Lord, riding on the back of Garuda with speed according to his will, reached the place where Gajraj was with all the gods.
Seeing Garuda in distress he was caught by the force of the inner lake and rose up in the sky
Throwing up the lotus-hand he spoke with great difficulty O Narayana, the spiritual master of all, I offer my obeisances unto thee.
Meaning-
Caught by the mighty crocodile inside the lake, that elephant sitting in the sky on the back of Garuda and seeing Lord Vishnu coming with chakra in his hands, then he saw the lotus flower already kept in his trunk for his worship. While raining on Hari, he started saying – My salutations to you, most respected Lord Shri Hari.
Seeing him in distress the unborn suddenly descended and mercifully lifted the crocodile out of the lake
The monkey released the women who were looking at the lord of the elephants with his face ripped open by the crocodile
Meaning-
Seeing the helpless elephant, Shri Hari Vishnu got down from Garuda and came down to the lake and being very sad, immediately brought that elephant out of the lake along with the customer and in no time cut the neck of the crocodile with his wheel and gave the elephant that pain. Took out from
, Hail Lord Sri Hari Vishnu.