नीमसे मधु नहीं टपकता
सुमन्त्र महाराज दशरथके प्रधान सचिव, सखा और सारथि थे। श्रीरामके प्रति इनका सहज स्नेह और वात्सल्य भाव था। श्रीरामचन्द्रजी भी इनका पिताकी भाँति आदर करते थे। जब इन्होंने रामके वनवासकी बात सुनी तो ये रोते-रोते मूच्छित हो गये ।
तदनन्तर होशमें आनेपर वे सहसा उठकर खड़े हो गये । उनके मनमें बड़ा संताप हुआ, जो अमंगलकारी था। वे क्रोधके मारे काँपने लगे। उनके शरीर और मुखकी पहली स्वाभाविक कान्ति बदल गयी। वे क्रोधसे आँखें लाल करक दोनों हाथोंसे सिर पीटने लगे और बारम्बार लम्बी साँस खींचकर, हाथ से हाथ मलकर, दाँत कटकटाकर राजा दशरथके मनकी वास्तविक अवस्था देखते हुए अपने वचनरूपी तीखे बाणोंसे कैकेयीके हृदयको कम्पित-सा करने लगे ।
अपने अशुभ एवं अनुपम वचनरूपी वज्रसे कैकेयीके सारे मर्मस्थानोंको विदीर्ण-से करते हुए सुमन्त्रने उससे इस प्रकार कहना आरम्भ किया। ‘देवि! जब तुमने सम्पूर्ण वसुधाके स्वामी स्वयं अपने पति महाराज दशरथका ही त्याग कर दिया, तब इस जगत्में कोई ऐसा कुकर्म नहीं है, जिसे तुम न कर सको; मैं तो समझता हूँ कि तुम पतिकी हत्या करनेवाली तो हो ही; अन्ततः कुलघातिनी भी हो। अहो! जो देवराज इन्द्रके समान अजेय, पर्वतके समान अकम्पनीय और महासागरके समान क्षोभरहित हैं, उन महाराज दशरथको भी तुम अपने कर्मोंसे संतप्त कर रही हो। राजा दशरथ तुम्हारे पति, पालक और वरदाता हैं। तुम इनका अपमान न करो। नारियोंके लिये पतिकी इच्छाका महत्त्व करोड़ों पुत्रोंसे भी अधिक है।
इस कुलमें राजाका परलोकवास हो जानेपर उसके पुत्रोंकी अवस्थाका विचार करके जो ज्येष्ठ पुत्र होते हैं, वे ही राज्य पाते हैं। राजकुलके इस परम्परागत आचारको तुम इन इक्ष्वाकुवंशके स्वामी महाराज दशरथके जीते-जी ही मिटा देना चाहती हो। तुम्हारे पुत्र भरत
राजा हो जायँ और इस पृथ्वीका शासन करें; किंतु हमलोग तो वहीं चले जायँगे, जहाँ श्रीराम जायँगे। तुम्हारे राज्यमें कोई भी ब्राह्मण निवास नहीं करेगा; यदि तुम वैसा मर्यादाहीन कर्म करोगी तो निश्चय ही हम सब लोग उसी मार्गपर चले जायँगे, जिसका श्रीरामने सेवन किया है।
सम्पूर्ण बन्धु बान्धव और सदाचारी ब्राह्मण भी तुम्हारा त्याग कर देंगे। देवि! फिर इस राज्यको पाकर तुम्हें क्या आनन्द मिलेगा ? ओह! तुम ऐसा मर्यादाहीन कर्म करना चाहती हो। मुझे तो यह देखकर आश्चर्य सा हो रहा है कि तुम्हारे इतने बड़े अत्याचार करनेपर भी पृथ्वी तुरंत फट क्यों नहीं जाती ? अथवा बड़े-बड़े ब्रह्मर्षियोंके धिक्कारपूर्ण वाग्दण्ड (शाप), जो देखनेमें भयंकर और जलाकर भस्म कर देनेवाले होते हैं, श्रीरामको घरसे निकालनेके लिये तैयार खड़ी हुई तुम जैसी पाषाणहृदयाका सर्वनाश क्यों नहीं कर डालते हैं?
भला, आमको कुल्हाड़ीसे काटकर उसकी जगह नीमका सेवन कौन करेगा? जो आमकी जगह नीमको ही दूधसे सींचता है, उसके लिये भी यह नीम मीठा फल देनेवाला नहीं हो सकता।
कैकेयि! मैं समझता हूँ कि तुम्हारी माताका अपने कुलके अनुरूप जैसा स्वभाव था, वैसा ही तुम्हारा भी है। लोकमें कही जानेवाली यह कहावत सत्य ही है कि ‘नीमसे ‘मधु नहीं टपकता।’ तुम्हारी माताके दुराग्रहकी बात भी हम जानते हैं। इसके विषयमें पहले जैसा सुना गया है, वह बताया जाता है। एक समय किसी वर देनेवाले साधुने तुम्हारे पिताको अत्यन्त उत्तम वर दिया था। उस वरके प्रभावसे केकयनरेश समस्त प्राणियोंकी बोली समझने लगे। तिर्यक् योनिमें पड़े हुए प्राणियोंकी बातें भी उनकी समझमें आ जाती थीं। एक दिन तुम्हारे महातेजस्वी पिता शय्यापर लेटे हुए थे। उसी समय जृम्भ नामक पक्षीकी आवाज उनके कानोंमें पड़ी। उसकी बोलीका अभिप्राय उनकी समझमें आ गया। अतः वे वहाँ कई बार हँसे। उसी शय्यापर तुम्हारी माँ भी सोयी थी। वह यह समझकर कि राजा मेरी ही हँसी उड़ा रहे हैं, कुपित हो उठी और गलेमें मौतकी फाँसी लगानेकी इच्छा रखती हुई बोली- ‘सौम्य ! नरेश्वर! तुम्हारे हँसनेका क्या कारण हैं, यह मैं जानना चाहती हूँ।’
तब राजाने तुम्हारी माँसे कहा- ‘रानी ! यदि मैं अपने हँसनेका कारण बता दूँ तो उसी क्षण मेरी मृत्यु हो जायगी, इसमें संशय नहीं है। देवि! यह सुनकर तुम्हारी रानी माताने तुम्हारे पिता केकयराजसे फिर कहा – ‘तुम जीओ या मरो, मुझे कारण बता दो। भविष्य में तुम फिर मेरी हँसी नहीं उड़ा सकोगे।’
अपनी प्यारी रानीके ऐसा कहनेपर केकयनरेशने उस वर देनेवाले साधुके पास जाकर सारा समाचार ठीक-ठीक कह सुनाया। तब उस वर देनेवाले साधुने राजाको उत्तर दिया- ‘महाराज! रानी मरे या घरसे निकल जाय; तुम कदापि यह बात उसे न बताना।’
उस साधुका यह वचन सुनकर केकयनरेशने तुम्हारी माताको तुरंत घरसे निकाल दिया और स्वयं कुबेरके समान विहार करने लगे। तुम भी इसी प्रकार दुर्जनोंके मार्गपर स्थित हो पापपर ही दृष्टि रखकर मोहवश राजासे यह अनुचित आग्रह कर रही हो । आज मुझे यह लोकोक्ति सोलह आने सच मालूम होती है कि पुत्र पिताके समान होते हैं और कन्याएँ माताके समान ।’ [ वाल्मीकीय रामायण ]
नीमसे मधु नहीं टपकता
सुमन्त्र महाराज दशरथके प्रधान सचिव, सखा और सारथि थे। श्रीरामके प्रति इनका सहज स्नेह और वात्सल्य भाव था। श्रीरामचन्द्रजी भी इनका पिताकी भाँति आदर करते थे। जब इन्होंने रामके वनवासकी बात सुनी तो ये रोते-रोते मूच्छित हो गये ।
तदनन्तर होशमें आनेपर वे सहसा उठकर खड़े हो गये । उनके मनमें बड़ा संताप हुआ, जो अमंगलकारी था। वे क्रोधके मारे काँपने लगे। उनके शरीर और मुखकी पहली स्वाभाविक कान्ति बदल गयी। वे क्रोधसे आँखें लाल करक दोनों हाथोंसे सिर पीटने लगे और बारम्बार लम्बी साँस खींचकर, हाथ से हाथ मलकर, दाँत कटकटाकर राजा दशरथके मनकी वास्तविक अवस्था देखते हुए अपने वचनरूपी तीखे बाणोंसे कैकेयीके हृदयको कम्पित-सा करने लगे ।
अपने अशुभ एवं अनुपम वचनरूपी वज्रसे कैकेयीके सारे मर्मस्थानोंको विदीर्ण-से करते हुए सुमन्त्रने उससे इस प्रकार कहना आरम्भ किया। ‘देवि! जब तुमने सम्पूर्ण वसुधाके स्वामी स्वयं अपने पति महाराज दशरथका ही त्याग कर दिया, तब इस जगत्में कोई ऐसा कुकर्म नहीं है, जिसे तुम न कर सको; मैं तो समझता हूँ कि तुम पतिकी हत्या करनेवाली तो हो ही; अन्ततः कुलघातिनी भी हो। अहो! जो देवराज इन्द्रके समान अजेय, पर्वतके समान अकम्पनीय और महासागरके समान क्षोभरहित हैं, उन महाराज दशरथको भी तुम अपने कर्मोंसे संतप्त कर रही हो। राजा दशरथ तुम्हारे पति, पालक और वरदाता हैं। तुम इनका अपमान न करो। नारियोंके लिये पतिकी इच्छाका महत्त्व करोड़ों पुत्रोंसे भी अधिक है।
इस कुलमें राजाका परलोकवास हो जानेपर उसके पुत्रोंकी अवस्थाका विचार करके जो ज्येष्ठ पुत्र होते हैं, वे ही राज्य पाते हैं। राजकुलके इस परम्परागत आचारको तुम इन इक्ष्वाकुवंशके स्वामी महाराज दशरथके जीते-जी ही मिटा देना चाहती हो। तुम्हारे पुत्र भरत
राजा हो जायँ और इस पृथ्वीका शासन करें; किंतु हमलोग तो वहीं चले जायँगे, जहाँ श्रीराम जायँगे। तुम्हारे राज्यमें कोई भी ब्राह्मण निवास नहीं करेगा; यदि तुम वैसा मर्यादाहीन कर्म करोगी तो निश्चय ही हम सब लोग उसी मार्गपर चले जायँगे, जिसका श्रीरामने सेवन किया है।
सम्पूर्ण बन्धु बान्धव और सदाचारी ब्राह्मण भी तुम्हारा त्याग कर देंगे। देवि! फिर इस राज्यको पाकर तुम्हें क्या आनन्द मिलेगा ? ओह! तुम ऐसा मर्यादाहीन कर्म करना चाहती हो। मुझे तो यह देखकर आश्चर्य सा हो रहा है कि तुम्हारे इतने बड़े अत्याचार करनेपर भी पृथ्वी तुरंत फट क्यों नहीं जाती ? अथवा बड़े-बड़े ब्रह्मर्षियोंके धिक्कारपूर्ण वाग्दण्ड (शाप), जो देखनेमें भयंकर और जलाकर भस्म कर देनेवाले होते हैं, श्रीरामको घरसे निकालनेके लिये तैयार खड़ी हुई तुम जैसी पाषाणहृदयाका सर्वनाश क्यों नहीं कर डालते हैं?
भला, आमको कुल्हाड़ीसे काटकर उसकी जगह नीमका सेवन कौन करेगा? जो आमकी जगह नीमको ही दूधसे सींचता है, उसके लिये भी यह नीम मीठा फल देनेवाला नहीं हो सकता।
कैकेयि! मैं समझता हूँ कि तुम्हारी माताका अपने कुलके अनुरूप जैसा स्वभाव था, वैसा ही तुम्हारा भी है। लोकमें कही जानेवाली यह कहावत सत्य ही है कि ‘नीमसे ‘मधु नहीं टपकता।’ तुम्हारी माताके दुराग्रहकी बात भी हम जानते हैं। इसके विषयमें पहले जैसा सुना गया है, वह बताया जाता है। एक समय किसी वर देनेवाले साधुने तुम्हारे पिताको अत्यन्त उत्तम वर दिया था। उस वरके प्रभावसे केकयनरेश समस्त प्राणियोंकी बोली समझने लगे। तिर्यक् योनिमें पड़े हुए प्राणियोंकी बातें भी उनकी समझमें आ जाती थीं। एक दिन तुम्हारे महातेजस्वी पिता शय्यापर लेटे हुए थे। उसी समय जृम्भ नामक पक्षीकी आवाज उनके कानोंमें पड़ी। उसकी बोलीका अभिप्राय उनकी समझमें आ गया। अतः वे वहाँ कई बार हँसे। उसी शय्यापर तुम्हारी माँ भी सोयी थी। वह यह समझकर कि राजा मेरी ही हँसी उड़ा रहे हैं, कुपित हो उठी और गलेमें मौतकी फाँसी लगानेकी इच्छा रखती हुई बोली- ‘सौम्य ! नरेश्वर! तुम्हारे हँसनेका क्या कारण हैं, यह मैं जानना चाहती हूँ।’
तब राजाने तुम्हारी माँसे कहा- ‘रानी ! यदि मैं अपने हँसनेका कारण बता दूँ तो उसी क्षण मेरी मृत्यु हो जायगी, इसमें संशय नहीं है। देवि! यह सुनकर तुम्हारी रानी माताने तुम्हारे पिता केकयराजसे फिर कहा – ‘तुम जीओ या मरो, मुझे कारण बता दो। भविष्य में तुम फिर मेरी हँसी नहीं उड़ा सकोगे।’
अपनी प्यारी रानीके ऐसा कहनेपर केकयनरेशने उस वर देनेवाले साधुके पास जाकर सारा समाचार ठीक-ठीक कह सुनाया। तब उस वर देनेवाले साधुने राजाको उत्तर दिया- ‘महाराज! रानी मरे या घरसे निकल जाय; तुम कदापि यह बात उसे न बताना।’
उस साधुका यह वचन सुनकर केकयनरेशने तुम्हारी माताको तुरंत घरसे निकाल दिया और स्वयं कुबेरके समान विहार करने लगे। तुम भी इसी प्रकार दुर्जनोंके मार्गपर स्थित हो पापपर ही दृष्टि रखकर मोहवश राजासे यह अनुचित आग्रह कर रही हो । आज मुझे यह लोकोक्ति सोलह आने सच मालूम होती है कि पुत्र पिताके समान होते हैं और कन्याएँ माताके समान ।’ [ वाल्मीकीय रामायण ]