महाराज काशीनरेशकी एक कन्या थी, जो परम विदुषी और धार्मिक भावनासे युक्त होकर दिन-रात धर्मकी चर्चा किया करती थी। उसे वैदिक धर्मसे स्नेह था, किंतु वैदिक धर्म तो बौद्ध धर्मकी ओटमें लुप्त हो रहा था। कुमारी कन्याको वैदिक धर्मके उद्धारकी प्रबल चिन्ता थी। इसी चिन्तामें वह दिन-रात चिन्तित रहा करती थी। एक दिन अपनी खिड़कीपर बैठकर वह वैदिक धर्मके उद्धारके लिये अत्यन्त ग्लानिके साथ भविष्यका चिन्तन कर रही थी। अकस्मात् उसके प्रासादके नीचेसे एक भव्य आकृतिवाला ब्रह्मचारी गुजरा। कुमारी कन्याकी आँखोंसे गर्म-गर्म आँसू ब्रह्मचारीके शरीरपर टपक पड़ा। उष्ण अश्रुके स्पर्शसे ब्रह्मचारीका ध्यान उधर आकर्षित हुआ, जहाँसे अश्रुविन्दु टपके थे। ब्रह्मचारीने देखा कि कुमारी रो रही है। ब्रह्मचारीको महान् आश्चर्य हुआ-भला, एक राजकन्या इस प्रकार खिड़कीपर बैठकर रोये ? क्या रहस्य है इसका ? ‘ आप क्यों रो रही हैं? आपके रोनेका क्या कारण है ?’ कुमारिलने पूछा। वह कुमारी कन्या साधारण बालिका नहीं थी। उसने परिस्थिति और पुरुषको भली प्रकारसे समझ लिया।
‘वैदिक धर्मके उद्धारके लिये मुझे चिन्ता है। कौन ऐसा पुरुष है, जो वैदिक धर्मका उद्धार कर सकेगा ?” राजकुमारीने कहा ‘कुमारी इसके लिये तनिक भी चिन्ता मत करो! यह कुमारिलभट्ट ही वह पुरुष है जो वैदिक धर्मका उद्धार करेगा।’ कुमारिलभट्टने धीरता के साथ कुमारीको आश्वासन दिया।
कुमारिलभट्टने जो प्रतिज्ञा की, वह बहुत दुस्तर प्रतिज्ञा थी। कुमारिलने समझ लिया कि वैदिक धर्मके उद्धारके लिये यह अत्यन्त आवश्यक है कि बौद्धधर्मका, जो इस समय पाखण्डियोंके हाथमें है, खण्डन किया जाय। पर यह साधारण बात नहीं थी। सर्वप्रथमबौद्धदर्शनका अध्ययन और तब उसका खण्डन सम्भव था। बौद्धदर्शनके अध्ययनके लिये काशीका त्याग आवश्यक था; क्योंकि बिना तक्षशिला गये बौद्धधर्म और बौद्धदर्शनका अध्ययन सम्भव न था। ब्रहाचारी कुमारिलके लिये काशी-त्याग एक भयानक समस्या हो गयी। परंतु वही परीक्षाका अवसर था। ब्रह्मचारी कुमारिल चल पड़े तक्षशिलाके लिये और तक्षशिला पहुँचने पर सत्कार हुआ। ब्रह्मचारी कुमारिलका बहुत आदर तक्षशिलाके आचार्यने कुमारिलको बहुत प्रेमसे बौद्धधर्मके तत्त्वों और बौद्धदर्शनका अध्ययन कराया। प्रतिभाशाली कुमारिल थोड़े ही दिनोंमें बौद्धधर्मके गहन तत्त्वों और बौद्धदर्शनके पूर्ण ज्ञाता हो गये। एक दिन कुमारिलको अपनी पूर्वप्रतिज्ञा स्मरण हो आयी और उन्होंने अपने पूज्य गुरुसे ही शास्त्रार्थ करनेकी अभिलाषा प्रकट की। एक ओर ब्रह्मचारी कुमारिल, दूसरी ओर बौद्धधर्मके समस्त आचार्य विषय था- ईश्वरकी सत्ता और उसके कर्मनियन्ता होनेका प्रमाण शास्त्रार्थ छिड़ गया। दोनों ओरसे मध्यस्थताकी आवश्यकता पड़ी। मगधराज सुधन्वा मध्यस्थ बनाये गये। शास्त्रार्थ प्रारम्भ हुआ । कुमारिलकी जिह्वापर जान पड़ता था कि सरस्वती आकर बैठ गयीं। विषयका निर्णय असम्भव हो गया मध्यस्थके लिये कुछ भी निर्णय देना असम्भव था। अन्ततोगत्वा ब्रह्मचारी कुमारिलके आगे वहाँकी अध्यापक-मण्डलीको झुकना पड़ा। कुमारिलकी प्रतिभा और शास्त्रार्थसे सभी प्रभावित हुए; किंतु ईश्वरके अस्तित्वको यों ही तर्कसे माननेके लिये बौद्ध आचार्य तैयार न थे। ईश्वर-सत्ताका प्रत्यक्ष निर्णय करनेके लिये बौद्धोंने एक युक्ति सोची और घोषित किया ‘यदि दोनों वक्ता अपना पक्ष सिद्ध करके विजय प्राप्त करना चाहते हैं तो पर्वतकी ऊँची चोटीसे कूदनेपर उनमें जो सुरक्षित रह जायगा, वही विजयी माना जायगा; अतः दोनोशास्त्रार्थी पर्वतकी ऊँची चोटीसे कूदकर अपने पक्षकी विजय सिद्ध करें।’ कुमारिल उक्त घोषणासे तनिक नहीं घबराये और समस्त राजकर्मचारियोंके सम्मुख पर्वतकी ऊँची चोटीपर चढ़कर उन्होंने भगवान्का स्मरण किया और स्पष्ट घोषणा की – ‘ वेद प्रमाण है। भगवान् ही रक्षक हैं। सर्वज्ञाता ईश्वर ही शक्तिमान् हैं। आत्मा अच्छेद्य है। सत्य ही अमर है।’ यह कहकर ब्रह्मचारी कुमारिल कूद पड़े उस ऊँचे शिखरसे। कुमारिलका बाल भी बाँका नहीं हुआ। बौद्धोंने उसे ‘जादुई चमत्कार’ कहा और जब उनके आचार्यकी बारी आयी; तब वे भाग खड़े हुए। उस घटना वैदिकधर्मकी पताका समस्त भारतमें फहरा गयी । काशीकी राजकुमारी और काशीवासियोंको उस घटनासे बड़ा आनन्द प्राप्त हुआ। कुमारिलकी विजयकी चर्चासमस्त भारतमें व्याप्त हो गयी; लोग कुमारिलका 5 यशोगान करने लगे।
कुमारिलको उस विजयपर गर्व नहीं हुआ, किंतु – उनके मनपर उलटा ही प्रभाव पड़ा। शास्त्रार्थमें गुरुको । पराजित करनेका जो ‘पाप’ हुआ, उसका उन्होंने प्रायश्चित्त करना चाहा; क्योंकि वैदिकधर्ममें गुरुका अपमान महान् अपराध माना जाता है। बस; कुमारिल प्रयाग पहुँचे प्रायश्चित्तके लिये । उस समय भारतके कोने-कोनेसे विद्वान् और आचार्य कुमारिलका प्रायश्चित्त देखने पहुँचे। सुना जाता है कि स्वयं शंकराचार्य भी वहाँ पधारे थे। वीरात्मा कुमारिलने शास्त्रानुसार ‘तुषाग्नि’ से शनैः-शनैः अपने शरीरको जलाकर प्रायश्चित्त करके शरीरका त्याग किया; किंतु वैदिक-धर्मका उद्धार करके वे अमर हो गये।
महाराज काशीनरेशकी एक कन्या थी, जो परम विदुषी और धार्मिक भावनासे युक्त होकर दिन-रात धर्मकी चर्चा किया करती थी। उसे वैदिक धर्मसे स्नेह था, किंतु वैदिक धर्म तो बौद्ध धर्मकी ओटमें लुप्त हो रहा था। कुमारी कन्याको वैदिक धर्मके उद्धारकी प्रबल चिन्ता थी। इसी चिन्तामें वह दिन-रात चिन्तित रहा करती थी। एक दिन अपनी खिड़कीपर बैठकर वह वैदिक धर्मके उद्धारके लिये अत्यन्त ग्लानिके साथ भविष्यका चिन्तन कर रही थी। अकस्मात् उसके प्रासादके नीचेसे एक भव्य आकृतिवाला ब्रह्मचारी गुजरा। कुमारी कन्याकी आँखोंसे गर्म-गर्म आँसू ब्रह्मचारीके शरीरपर टपक पड़ा। उष्ण अश्रुके स्पर्शसे ब्रह्मचारीका ध्यान उधर आकर्षित हुआ, जहाँसे अश्रुविन्दु टपके थे। ब्रह्मचारीने देखा कि कुमारी रो रही है। ब्रह्मचारीको महान् आश्चर्य हुआ-भला, एक राजकन्या इस प्रकार खिड़कीपर बैठकर रोये ? क्या रहस्य है इसका ? ‘ आप क्यों रो रही हैं? आपके रोनेका क्या कारण है ?’ कुमारिलने पूछा। वह कुमारी कन्या साधारण बालिका नहीं थी। उसने परिस्थिति और पुरुषको भली प्रकारसे समझ लिया।
‘वैदिक धर्मके उद्धारके लिये मुझे चिन्ता है। कौन ऐसा पुरुष है, जो वैदिक धर्मका उद्धार कर सकेगा ?” राजकुमारीने कहा ‘कुमारी इसके लिये तनिक भी चिन्ता मत करो! यह कुमारिलभट्ट ही वह पुरुष है जो वैदिक धर्मका उद्धार करेगा।’ कुमारिलभट्टने धीरता के साथ कुमारीको आश्वासन दिया।
कुमारिलभट्टने जो प्रतिज्ञा की, वह बहुत दुस्तर प्रतिज्ञा थी। कुमारिलने समझ लिया कि वैदिक धर्मके उद्धारके लिये यह अत्यन्त आवश्यक है कि बौद्धधर्मका, जो इस समय पाखण्डियोंके हाथमें है, खण्डन किया जाय। पर यह साधारण बात नहीं थी। सर्वप्रथमबौद्धदर्शनका अध्ययन और तब उसका खण्डन सम्भव था। बौद्धदर्शनके अध्ययनके लिये काशीका त्याग आवश्यक था; क्योंकि बिना तक्षशिला गये बौद्धधर्म और बौद्धदर्शनका अध्ययन सम्भव न था। ब्रहाचारी कुमारिलके लिये काशी-त्याग एक भयानक समस्या हो गयी। परंतु वही परीक्षाका अवसर था। ब्रह्मचारी कुमारिल चल पड़े तक्षशिलाके लिये और तक्षशिला पहुँचने पर सत्कार हुआ। ब्रह्मचारी कुमारिलका बहुत आदर तक्षशिलाके आचार्यने कुमारिलको बहुत प्रेमसे बौद्धधर्मके तत्त्वों और बौद्धदर्शनका अध्ययन कराया। प्रतिभाशाली कुमारिल थोड़े ही दिनोंमें बौद्धधर्मके गहन तत्त्वों और बौद्धदर्शनके पूर्ण ज्ञाता हो गये। एक दिन कुमारिलको अपनी पूर्वप्रतिज्ञा स्मरण हो आयी और उन्होंने अपने पूज्य गुरुसे ही शास्त्रार्थ करनेकी अभिलाषा प्रकट की। एक ओर ब्रह्मचारी कुमारिल, दूसरी ओर बौद्धधर्मके समस्त आचार्य विषय था- ईश्वरकी सत्ता और उसके कर्मनियन्ता होनेका प्रमाण शास्त्रार्थ छिड़ गया। दोनों ओरसे मध्यस्थताकी आवश्यकता पड़ी। मगधराज सुधन्वा मध्यस्थ बनाये गये। शास्त्रार्थ प्रारम्भ हुआ । कुमारिलकी जिह्वापर जान पड़ता था कि सरस्वती आकर बैठ गयीं। विषयका निर्णय असम्भव हो गया मध्यस्थके लिये कुछ भी निर्णय देना असम्भव था। अन्ततोगत्वा ब्रह्मचारी कुमारिलके आगे वहाँकी अध्यापक-मण्डलीको झुकना पड़ा। कुमारिलकी प्रतिभा और शास्त्रार्थसे सभी प्रभावित हुए; किंतु ईश्वरके अस्तित्वको यों ही तर्कसे माननेके लिये बौद्ध आचार्य तैयार न थे। ईश्वर-सत्ताका प्रत्यक्ष निर्णय करनेके लिये बौद्धोंने एक युक्ति सोची और घोषित किया ‘यदि दोनों वक्ता अपना पक्ष सिद्ध करके विजय प्राप्त करना चाहते हैं तो पर्वतकी ऊँची चोटीसे कूदनेपर उनमें जो सुरक्षित रह जायगा, वही विजयी माना जायगा; अतः दोनोशास्त्रार्थी पर्वतकी ऊँची चोटीसे कूदकर अपने पक्षकी विजय सिद्ध करें।’ कुमारिल उक्त घोषणासे तनिक नहीं घबराये और समस्त राजकर्मचारियोंके सम्मुख पर्वतकी ऊँची चोटीपर चढ़कर उन्होंने भगवान्का स्मरण किया और स्पष्ट घोषणा की – ‘ वेद प्रमाण है। भगवान् ही रक्षक हैं। सर्वज्ञाता ईश्वर ही शक्तिमान् हैं। आत्मा अच्छेद्य है। सत्य ही अमर है।’ यह कहकर ब्रह्मचारी कुमारिल कूद पड़े उस ऊँचे शिखरसे। कुमारिलका बाल भी बाँका नहीं हुआ। बौद्धोंने उसे ‘जादुई चमत्कार’ कहा और जब उनके आचार्यकी बारी आयी; तब वे भाग खड़े हुए। उस घटना वैदिकधर्मकी पताका समस्त भारतमें फहरा गयी । काशीकी राजकुमारी और काशीवासियोंको उस घटनासे बड़ा आनन्द प्राप्त हुआ। कुमारिलकी विजयकी चर्चासमस्त भारतमें व्याप्त हो गयी; लोग कुमारिलका 5 यशोगान करने लगे।
कुमारिलको उस विजयपर गर्व नहीं हुआ, किंतु – उनके मनपर उलटा ही प्रभाव पड़ा। शास्त्रार्थमें गुरुको । पराजित करनेका जो ‘पाप’ हुआ, उसका उन्होंने प्रायश्चित्त करना चाहा; क्योंकि वैदिकधर्ममें गुरुका अपमान महान् अपराध माना जाता है। बस; कुमारिल प्रयाग पहुँचे प्रायश्चित्तके लिये । उस समय भारतके कोने-कोनेसे विद्वान् और आचार्य कुमारिलका प्रायश्चित्त देखने पहुँचे। सुना जाता है कि स्वयं शंकराचार्य भी वहाँ पधारे थे। वीरात्मा कुमारिलने शास्त्रानुसार ‘तुषाग्नि’ से शनैः-शनैः अपने शरीरको जलाकर प्रायश्चित्त करके शरीरका त्याग किया; किंतु वैदिक-धर्मका उद्धार करके वे अमर हो गये।