सम्बन्ध बराबरीका
महाभारतमें कथा है कि एक दिन बालक अश्वत्थामा दूधके लिये मचल गया। उन दिनों दूध बहुत सस्ता था, किंतु गरीब माँके लिये वह भी जुटाना सम्भव न था । आँसूभरी आँखोंसे माँने आटेका घोल पिलाकर बहलानेका प्रयत्न किया, किंतु उसे चुप न करा सकी।
द्रोणाचार्य घर लौटे। देखा, बालक रो रहा 1 कारणका पता चला तो स्तब्ध रह गये। अपने ऊपर ग्लानि हुई। दारिद्र्यसे मुक्तिके लिये वे आकुल हो उठे और स्थायी व्यवस्थाके लिये महाराजा द्रुपदके यहाँ गये।
सहपाठी मित्र महाराज द्रुपदने कहा- ‘ब्राह्मण! चाहो तो कुछ भिक्षा मिल सकती है। बचपनके किसी समयके परिचयको मित्रताका रूप देकर मेरी भावुकताको उभारनेका प्रयत्न मत करो। सम्बन्ध और मैत्री तो बराबरीकी होती है।’
अपमानित द्रोणके मनमें बात चुभ गयी। उन्होंने उसी क्षण एक निर्णय लिया और वहींसे सीधे हस्तिनापुर चले गये। धनुर्विद्याके अप्रतिम आचार्य तो वे थे ही, कौरव और पाण्डव-कुमारोंको शिक्षा देनेके लिये राज्यने उन्हें आदरपूर्वक नियुक्त कर लिया। द्रोणने कठोर परिश्रम एवं लगनसे कुमारोंको अस्त्र-शस्त्र संचालनमें निष्णात कर दिया। अर्जुन, भीम और दुर्योधन-जैसे अपने पराक्रमी शिष्योंको देखकर वे गद्गद हो उठते ।
शिक्षा पूरी हुई। दीक्षान्त समारोहके अवसरपर जब गुरुदक्षिणाके लिये आचार्यसे आग्रह किया गया तो उन्होंने द्रुपदपर चढ़ाई करनेकी दक्षिणा माँगी। कुमारोंने सहर्ष स्वीकार किया। कौरव सेनाके प्रचण्ड आक्रमण और रण-कौशलके सामने द्रुपद टिक न सका। बन्दी बनाकर शिष्योंने उसे आचार्यके समक्ष उपस्थित किया।
‘कहो राजन् ! अब तो मित्रता हो सकती है ?’ द्रोणाचार्यने पूछा। द्रुपद लज्जित थे। क्या जवाब देते ? यह बात द्वापरयुगके अन्तिम चरणकी है। वर्तमान युगमें भी, एक सच्ची घटना इस सन्दर्भमें याद आ जाती है-
भिवानीके एक गरीब वैश्यका पुत्र किसी सम्पन्न परिवारमें दत्तकके रूपमें कलकत्ता आया। बहुत वर्षोंबाद उसके माता-पिताकी इच्छा हुई कि जगन्नाथपुरीको यात्रा की जाय और इसी अवसरपर अपने पुत्र-पौत्रोंको भी देख लें।
वे थके-हारे एक दिन कलकत्ता पहुँचे। पत्नीको दूसरे सहयात्रियोंके साथ धर्मशालामें ठहराकर स्वयं पुत्रसे मिलनेके लिये वृद्ध पिता उसको कोठीपर गया। पुत्र अपनी गद्दीपर बैठा था। उसकी खुशहाली और वैभव देखकर पिताका हृदय गद्गद हो उठा। मैले कपड़े, ऊँची धोती और बढ़ी दाढ़ीके साथ सकुचाते हुए वह एक कोनेकी तरफ बैठ गया। मित्रोंके साथ पुत्र गपशप करता रहा। न तो उठकर पाँव छुए और न राजी खुशीके समाचार पूछे। किसी एक मित्रके पूछनेपर बताया कि हमारे गाँवके ‘जान-पहचान’ के हैं।
वृद्ध निर्धन था, किंतु आत्माभिमानके धनसे वंचित नहीं। वैभवके मदमें चूर पुत्रकी बात उसके मनमें चुभ गयी। राजस्थानकी हवामें पला था; अपमान नहीं सहा गया। कह बैठा-‘सेठजीके देशका तो मैं जान पहचानका व्यक्ति हूँ, परंतु इनको जन्म देनेवाली माँका
पति भी हूँ। ये धनवान् और हम गरीब हैं, इसलिये इनका-हमारा सम्बन्ध हो भी कैसे ? गलती हुई जो यहाँ चला आया। अच्छा हुआ जो इसकी माँको ये बातें नहीं सुननी पड़ीं, उसे धर्मशालामें ही छोड़ आया।’
ऐसी अप्रत्याशित और अप्रिय घटनाके बाद बैठक जम नहीं पायी। धीरे-धीरे मित्र खिसक गये। पहले ही जा चुका था। वृद्ध तो
कलकत्ता आनेके बाद युवक सेठने जन्म देनेवाले माता-पिताकी कभी खोज-खबर न ली। उसमें गुमान आ गया था, परंतु मुनीम गुमाश्तोंके सामने हुई इस घटनाके कारण वह बहुत झेंप गया। वह घोड़ागाड़ी में पत्नीको साथ लेकर शामको धर्मशालामें पहुँचा। माता पिता तबतक पुरीके लिये रवाना हो चुके थे।
कहते हैं कि भाग्य घिरत-फिरतकी छाया है। कुछ वर्षोंमें उसके सगे छोटे भाइयोंने बहुत धन कमा लिया, जबकि व्यापारमें घाटा होनेके कारण, उसकी सम्पत्ति समाप्त हो गयी। गरीबीकी बात जब देश पहुँची तो माँका दिल नहीं माना। जिद करके वह वृद्ध पतिके साथ कलकत्ताके लिये रवाना हो गयी। उस समयतक उसके अपने पुत्रोंका यहाँ मकान हो गया था और कारोबार भी बढ़ता जा रहा था।.
खबर मिलनेपर पत्नी और बच्चोंसहित बड़ा पुत्र सकुचाता हुआ मिलने आया। माँ-बापके पैरोंपर गिर पड़ा और बहुत वर्षों पहले किये गये अपने दुव्र्व्यवहारके लिये क्षमा मांगने लगा।
‘अब तो तुमने मुझे पहचान लिया होगा’ कहतेहुए पिता मुँह फेरकर बैठ गया।
वृद्ध माता एकटक देख रही थी, अपने बड़े बेटे और उसके बच्चोंको बीस वर्ष पहले बारह वर्षके बालकको उसके सुखकी कामनासे अपने सीनेसे पृथक् किया था। पुत्र कुपुत्र भले ही हो जाय, पर माता कुमाता नहीं होती। उसने बेटेको खींचकर छातीसे लगा लिया और भरे गलेसे कहने लगी- ‘भगवान्का दिया तुम्हारे भाइयोंके पास बहुत है। मूंग-मोठ कौन बड़ा, कौन छोटा ? चारों मिलकर कारोबार सँभालो।’
उसकी आँखें गोली हो आयी थीं, दोनों पौत्रोंको गोद में उठाकर वह जल्दीसे कमरेके बाहर हो गयी।
[ रामेश्वरजी टोटिया ]
सम्बन्ध बराबरीका
महाभारतमें कथा है कि एक दिन बालक अश्वत्थामा दूधके लिये मचल गया। उन दिनों दूध बहुत सस्ता था, किंतु गरीब माँके लिये वह भी जुटाना सम्भव न था । आँसूभरी आँखोंसे माँने आटेका घोल पिलाकर बहलानेका प्रयत्न किया, किंतु उसे चुप न करा सकी।
द्रोणाचार्य घर लौटे। देखा, बालक रो रहा 1 कारणका पता चला तो स्तब्ध रह गये। अपने ऊपर ग्लानि हुई। दारिद्र्यसे मुक्तिके लिये वे आकुल हो उठे और स्थायी व्यवस्थाके लिये महाराजा द्रुपदके यहाँ गये।
सहपाठी मित्र महाराज द्रुपदने कहा- ‘ब्राह्मण! चाहो तो कुछ भिक्षा मिल सकती है। बचपनके किसी समयके परिचयको मित्रताका रूप देकर मेरी भावुकताको उभारनेका प्रयत्न मत करो। सम्बन्ध और मैत्री तो बराबरीकी होती है।’
अपमानित द्रोणके मनमें बात चुभ गयी। उन्होंने उसी क्षण एक निर्णय लिया और वहींसे सीधे हस्तिनापुर चले गये। धनुर्विद्याके अप्रतिम आचार्य तो वे थे ही, कौरव और पाण्डव-कुमारोंको शिक्षा देनेके लिये राज्यने उन्हें आदरपूर्वक नियुक्त कर लिया। द्रोणने कठोर परिश्रम एवं लगनसे कुमारोंको अस्त्र-शस्त्र संचालनमें निष्णात कर दिया। अर्जुन, भीम और दुर्योधन-जैसे अपने पराक्रमी शिष्योंको देखकर वे गद्गद हो उठते ।
शिक्षा पूरी हुई। दीक्षान्त समारोहके अवसरपर जब गुरुदक्षिणाके लिये आचार्यसे आग्रह किया गया तो उन्होंने द्रुपदपर चढ़ाई करनेकी दक्षिणा माँगी। कुमारोंने सहर्ष स्वीकार किया। कौरव सेनाके प्रचण्ड आक्रमण और रण-कौशलके सामने द्रुपद टिक न सका। बन्दी बनाकर शिष्योंने उसे आचार्यके समक्ष उपस्थित किया।
‘कहो राजन् ! अब तो मित्रता हो सकती है ?’ द्रोणाचार्यने पूछा। द्रुपद लज्जित थे। क्या जवाब देते ? यह बात द्वापरयुगके अन्तिम चरणकी है। वर्तमान युगमें भी, एक सच्ची घटना इस सन्दर्भमें याद आ जाती है-
भिवानीके एक गरीब वैश्यका पुत्र किसी सम्पन्न परिवारमें दत्तकके रूपमें कलकत्ता आया। बहुत वर्षोंबाद उसके माता-पिताकी इच्छा हुई कि जगन्नाथपुरीको यात्रा की जाय और इसी अवसरपर अपने पुत्र-पौत्रोंको भी देख लें।
वे थके-हारे एक दिन कलकत्ता पहुँचे। पत्नीको दूसरे सहयात्रियोंके साथ धर्मशालामें ठहराकर स्वयं पुत्रसे मिलनेके लिये वृद्ध पिता उसको कोठीपर गया। पुत्र अपनी गद्दीपर बैठा था। उसकी खुशहाली और वैभव देखकर पिताका हृदय गद्गद हो उठा। मैले कपड़े, ऊँची धोती और बढ़ी दाढ़ीके साथ सकुचाते हुए वह एक कोनेकी तरफ बैठ गया। मित्रोंके साथ पुत्र गपशप करता रहा। न तो उठकर पाँव छुए और न राजी खुशीके समाचार पूछे। किसी एक मित्रके पूछनेपर बताया कि हमारे गाँवके ‘जान-पहचान’ के हैं।
वृद्ध निर्धन था, किंतु आत्माभिमानके धनसे वंचित नहीं। वैभवके मदमें चूर पुत्रकी बात उसके मनमें चुभ गयी। राजस्थानकी हवामें पला था; अपमान नहीं सहा गया। कह बैठा-‘सेठजीके देशका तो मैं जान पहचानका व्यक्ति हूँ, परंतु इनको जन्म देनेवाली माँका
पति भी हूँ। ये धनवान् और हम गरीब हैं, इसलिये इनका-हमारा सम्बन्ध हो भी कैसे ? गलती हुई जो यहाँ चला आया। अच्छा हुआ जो इसकी माँको ये बातें नहीं सुननी पड़ीं, उसे धर्मशालामें ही छोड़ आया।’
ऐसी अप्रत्याशित और अप्रिय घटनाके बाद बैठक जम नहीं पायी। धीरे-धीरे मित्र खिसक गये। पहले ही जा चुका था। वृद्ध तो
कलकत्ता आनेके बाद युवक सेठने जन्म देनेवाले माता-पिताकी कभी खोज-खबर न ली। उसमें गुमान आ गया था, परंतु मुनीम गुमाश्तोंके सामने हुई इस घटनाके कारण वह बहुत झेंप गया। वह घोड़ागाड़ी में पत्नीको साथ लेकर शामको धर्मशालामें पहुँचा। माता पिता तबतक पुरीके लिये रवाना हो चुके थे।
कहते हैं कि भाग्य घिरत-फिरतकी छाया है। कुछ वर्षोंमें उसके सगे छोटे भाइयोंने बहुत धन कमा लिया, जबकि व्यापारमें घाटा होनेके कारण, उसकी सम्पत्ति समाप्त हो गयी। गरीबीकी बात जब देश पहुँची तो माँका दिल नहीं माना। जिद करके वह वृद्ध पतिके साथ कलकत्ताके लिये रवाना हो गयी। उस समयतक उसके अपने पुत्रोंका यहाँ मकान हो गया था और कारोबार भी बढ़ता जा रहा था।.
खबर मिलनेपर पत्नी और बच्चोंसहित बड़ा पुत्र सकुचाता हुआ मिलने आया। माँ-बापके पैरोंपर गिर पड़ा और बहुत वर्षों पहले किये गये अपने दुव्र्व्यवहारके लिये क्षमा मांगने लगा।
‘अब तो तुमने मुझे पहचान लिया होगा’ कहतेहुए पिता मुँह फेरकर बैठ गया।
वृद्ध माता एकटक देख रही थी, अपने बड़े बेटे और उसके बच्चोंको बीस वर्ष पहले बारह वर्षके बालकको उसके सुखकी कामनासे अपने सीनेसे पृथक् किया था। पुत्र कुपुत्र भले ही हो जाय, पर माता कुमाता नहीं होती। उसने बेटेको खींचकर छातीसे लगा लिया और भरे गलेसे कहने लगी- ‘भगवान्का दिया तुम्हारे भाइयोंके पास बहुत है। मूंग-मोठ कौन बड़ा, कौन छोटा ? चारों मिलकर कारोबार सँभालो।’
उसकी आँखें गोली हो आयी थीं, दोनों पौत्रोंको गोद में उठाकर वह जल्दीसे कमरेके बाहर हो गयी।
[ रामेश्वरजी टोटिया ]