धर्मराज युधिष्ठिरका राजसूय यज्ञ समाप्त हो गया था। वे भूमण्डलके चक्रवर्ती सम्राट् स्वीकार कर लिये गये थे । यज्ञमें पधारे नरेश तथा अन्य अतिथि अभ्यागत विदा हो चुके थे। केवल दुर्योधनादि बन्धुवर्गके लोग तथा श्रीकृष्णचन्द्र इन्द्रप्रस्थमें रह गये थे।
राजसूय यज्ञके समय दुर्योधनने पाण्डवोंका जो विपुल वैभव देखा था, उससे उसके चित्तमें ईर्ष्याकी अग्नि जल उठी थी। उसे यज्ञमें आये नरेशोंके उपहार स्वीकार करनेका कार्य मिला था। देश-देशके नरेश जो अकल्पित मूल्यकी अत्यन्त दुर्लभ वस्तुएँ धर्मराजको देनेके लिये ले आये, दुर्योधनको ही उन्हें लेकर कोषागार में रखना पड़ा। उनको देख-देखकर दुर्योधनकी ईर्ष्या बढ़ती ही गयी। यज्ञ समाप्त हो जानेपर जब सब अतिथि चले गये, तब एक दिन वह हाथमें नंगी तलवार लिये अपने भाइयोंके साथ पाण्डवोंकी राजसभामें | कठोर बातें कहता प्रविष्ट हुआ। कुछ
उस समय मय दानवद्वारा निर्मित राजसभामें धर्मराज युधिष्ठिर अपने भाइयों तथा द्रौपदीके साथ बैठे थे। श्रीकृष्णचन्द्र भी उनके समीप ही विराजमान थे। दुर्योधनने मुख्यद्वारसे सभामें प्रवेश किया। मय दानवने उस सभाभवनको अद्भुत ढंगसे बनाया था। उसमें अनेक स्थानोंपर लोगोंको भ्रम हो जाता था। सूखे स्थल जलपूर्ण सरोवर जान पड़ते थे और जलपूर्ण सरोवर सूखे स्थल जैसे लगते थे। दुर्योधनको भी उस दिन यह भ्रम हो गया। वैसे वह अनेक बार उस सभा में आ चुका था; किंतु आवेशमें होनेके कारण वह स्थलोंको पहचान नहीं सका। सूखे स्थलको जलसे भरा समझकर उसने अपने वस्त्र उठा लिये। जब पता लगा कि वह स्थल सूखा है, तब उसे संकोच हुआ। लोग उसकी ओर देख रहे हैं, यह देखकर उसका। क्रोध और बढ़ गया। उसने वस्त्र छोड़ दिये और वेगपूर्वक चलने लगा। आगे ही जलपूर्ण सरोवर था। उसे भी उसने सूखा स्थल समझ लिया और स्थलके समान ही वहाँ भी आगे बढ़ा। फल यह हुआ कि वह जलमें गिर पड़ा। उसके वस्त्र भीग गये। दुर्योधनको गिरते देखकर भीमसेन उच्चस्वरसे हँस पड़े।
द्रौपदीने हँसते हुए व्यंग किया- ‘अंधेका पुत्र अंधा ही तो होगा।’ युधिष्ठिरने सबको रोका; किंतु बात कही जा
चुकी थी और उसे दुर्योधनने सुन लिया था। वह क्रोधसे उन्मत्त हो उठा। जलसे निकलकर भाइयोंके साथ शीघ्रगतिसे वह राजसभासे बाहर चला गया और बिना किसीसे मिले रथमें बैठकर हस्तिनापुर पहुँच गया।
इस घटनासे दुर्योधनके मनमें पाण्डवोंके प्रति इतनी घोर शत्रुता जग गयी कि उसने अपने मित्रोंसे पाण्डवोंको पराजित करनेका उपाय पूछना प्रारम्भ किया। शकुनिकी सलाहसे जुए में छलपूर्वक पाण्डवोंको जीतनेका निश्चय हो गया। आगे जो जुआ हुआ और जुए में द्रौपदीका जो घोर अपमान दुर्योधनने किया, जिस अपमानके फलस्वरूप अन्तमें महाभारतका विनाशकारी संग्राम हुआ, वह सब अनर्थ इसी दिनके भीमसेन एवं द्रौपदीके हँस देनेका भयंकर परिणाम था ।
धर्मराज युधिष्ठिरका राजसूय यज्ञ समाप्त हो गया था। वे भूमण्डलके चक्रवर्ती सम्राट् स्वीकार कर लिये गये थे । यज्ञमें पधारे नरेश तथा अन्य अतिथि अभ्यागत विदा हो चुके थे। केवल दुर्योधनादि बन्धुवर्गके लोग तथा श्रीकृष्णचन्द्र इन्द्रप्रस्थमें रह गये थे।
राजसूय यज्ञके समय दुर्योधनने पाण्डवोंका जो विपुल वैभव देखा था, उससे उसके चित्तमें ईर्ष्याकी अग्नि जल उठी थी। उसे यज्ञमें आये नरेशोंके उपहार स्वीकार करनेका कार्य मिला था। देश-देशके नरेश जो अकल्पित मूल्यकी अत्यन्त दुर्लभ वस्तुएँ धर्मराजको देनेके लिये ले आये, दुर्योधनको ही उन्हें लेकर कोषागार में रखना पड़ा। उनको देख-देखकर दुर्योधनकी ईर्ष्या बढ़ती ही गयी। यज्ञ समाप्त हो जानेपर जब सब अतिथि चले गये, तब एक दिन वह हाथमें नंगी तलवार लिये अपने भाइयोंके साथ पाण्डवोंकी राजसभामें | कठोर बातें कहता प्रविष्ट हुआ। कुछ
उस समय मय दानवद्वारा निर्मित राजसभामें धर्मराज युधिष्ठिर अपने भाइयों तथा द्रौपदीके साथ बैठे थे। श्रीकृष्णचन्द्र भी उनके समीप ही विराजमान थे। दुर्योधनने मुख्यद्वारसे सभामें प्रवेश किया। मय दानवने उस सभाभवनको अद्भुत ढंगसे बनाया था। उसमें अनेक स्थानोंपर लोगोंको भ्रम हो जाता था। सूखे स्थल जलपूर्ण सरोवर जान पड़ते थे और जलपूर्ण सरोवर सूखे स्थल जैसे लगते थे। दुर्योधनको भी उस दिन यह भ्रम हो गया। वैसे वह अनेक बार उस सभा में आ चुका था; किंतु आवेशमें होनेके कारण वह स्थलोंको पहचान नहीं सका। सूखे स्थलको जलसे भरा समझकर उसने अपने वस्त्र उठा लिये। जब पता लगा कि वह स्थल सूखा है, तब उसे संकोच हुआ। लोग उसकी ओर देख रहे हैं, यह देखकर उसका। क्रोध और बढ़ गया। उसने वस्त्र छोड़ दिये और वेगपूर्वक चलने लगा। आगे ही जलपूर्ण सरोवर था। उसे भी उसने सूखा स्थल समझ लिया और स्थलके समान ही वहाँ भी आगे बढ़ा। फल यह हुआ कि वह जलमें गिर पड़ा। उसके वस्त्र भीग गये। दुर्योधनको गिरते देखकर भीमसेन उच्चस्वरसे हँस पड़े।
द्रौपदीने हँसते हुए व्यंग किया- ‘अंधेका पुत्र अंधा ही तो होगा।’ युधिष्ठिरने सबको रोका; किंतु बात कही जा
चुकी थी और उसे दुर्योधनने सुन लिया था। वह क्रोधसे उन्मत्त हो उठा। जलसे निकलकर भाइयोंके साथ शीघ्रगतिसे वह राजसभासे बाहर चला गया और बिना किसीसे मिले रथमें बैठकर हस्तिनापुर पहुँच गया।
इस घटनासे दुर्योधनके मनमें पाण्डवोंके प्रति इतनी घोर शत्रुता जग गयी कि उसने अपने मित्रोंसे पाण्डवोंको पराजित करनेका उपाय पूछना प्रारम्भ किया। शकुनिकी सलाहसे जुए में छलपूर्वक पाण्डवोंको जीतनेका निश्चय हो गया। आगे जो जुआ हुआ और जुए में द्रौपदीका जो घोर अपमान दुर्योधनने किया, जिस अपमानके फलस्वरूप अन्तमें महाभारतका विनाशकारी संग्राम हुआ, वह सब अनर्थ इसी दिनके भीमसेन एवं द्रौपदीके हँस देनेका भयंकर परिणाम था ।