कुन्तीका त्याग

buddhists meditate monks

कुन्तीसहित पाँचों पाण्डवोंको जलाकर मार डालने के उद्देश्यसे दुर्योधनने वारणावत नामक स्थानमें एक चपड़ेका महल बनवाया और अंधे राजा धृतराष्ट्रको समझा-बुझाकर उनके द्वारा युधिष्ठिरको यह आज्ञा दिलवा दी कि ‘तुमलोग वहाँ जाकर कुछ दिन रहो और भाँति-भाँति से दान-पुण्य करके पुण्य संचय करो।’

दुर्योधनने अपनी चंडाल चौकड़ीमें यह निश्चय किया था कि पाण्डवोंके वहाँ रहने लगनेपर किसी दिन रात्रिके समय आग लगा दी जायगी और चपड़ेका महल तुरंत पाण्डवॉसहित भस्म हो जायगा। धृतराष्ट्रको इस बुरी नीयतका पता नहीं था; परंतु किसी तरह विदुरको पता लग गया और विदुरने उनके वहाँसे बच निकलनेके लिये अंदर-ही-अंदर एक सुरंग बनवा दी तथा सांकेतिक भाषामें युधिष्ठिरको सारा रहस्य तथा बच निकलनेका उपाय समझा दिया।

पाण्डव वहाँसे बच निकले और अपनेको छिपाकर एकचक्रा नगरीमें एक ब्राह्मणके घर जाकर रहने लगे।उस नगरीमें वक नामक एक बलवान् राक्षस रहता था। उसने ऐसा नियम बना रखा था कि नगरके प्रत्येक घरसे नित्य बारी-बारीसे एक आदमी उसके लिये विविध भोजन-सामग्री लेकर उसके पास जाय। वह दुष्ट अन्य सामग्रियोंके साथ उस आदमीको भी खा जाता था। जिस ब्राह्मणके घर पाण्डव टिके थे, एक दिन उसीकी बारी आ गयी। ब्राह्मणके घर कुहराम मच गया। ब्राह्मण, उसकी पत्नी, कन्या और पुत्र अपने-अपने प्राण देकर दूसरे तीनोंको बचानेका आग्रह करने लगे। उस दिन धर्मराज आदि चारों भाई तो भिक्षाके लिये बाहर गये थे। डेरेपर कुन्ती और भीमसेन थे। कुन्तीने सारी बातें सुनीं तो उनका हृदय दयासे भर गया। उन्होंने जाकर ब्राह्मण परिवारसे हँसकर कहा-‘महाराज ! आपलोग रोते क्यों हैं। जरा भी चिन्ता न करें। हमलोग आपके आश्रयमें रहते हैं। मेरे पाँच लड़के हैं, उनमेंसे एक लड़केको मैं भोजन सामग्री देकर राक्षसके यहाँ भेज दूँगी।’ ‘ब्राह्मणने कहा- ‘माता! ऐसा कैसे हो सकता है। आपहमारे अतिथि हैं। अपने प्राण बचानेके लिये हम अतिथिका प्राण लें, ऐसा अधर्म हमसे कभी नहीं हो सकता।’

कुन्तीने समझाकर ‘पण्डितजी! आप जरा भी चिन्ता न करें। मेरा लड़का भीम बड़ा बली हैं। उसने अबतक कितने ही राक्षसोंको मारा है। वह अवश्य इस राक्षसको भी मार देगा। फिर, मान लीजिये, कदाचित् वह न भी मार सका तो क्या होगा। मेरे पाँचमें चार तो बच ही रहेंगे। हमलोग सब एक साथ रहकर एक ही परिवारके से हो गये हैं। आप वृद्ध हैं, वह जवान है। फिर हम आपके आश्रयमें रहते हैं। ऐसी अवस्थामें आप वृद्ध और पूजनीय होकर भी राक्षसके मुँहमें जायँ और मेरा लड़का जवान और बलवान् होकर घरमें मुँह छिपाये बैठा रहे, यह कैसे हो सकता है।’

ब्राह्मण परिवारने किसी तरह भी जब कुन्तीका प्रस्ताव स्वीकार नहीं किया, तब कुन्ती देवीने उन्हें हर तरहसे यह विश्वास दिलाया कि भीमसेन अवश्य ही राक्षसको मारकर आयेगा और कहा कि ‘भूदेव ! आप यदि नहीं मानेंगे तो भीमसेन आपको बलपूर्वक रोककर चला जायगा। मैं उसे निश्चय भेजूँगी और आप उसे रोक नहीं सकेंगे।’

तब लाचार होकर ब्राह्मणने कुन्तीका अनुरोध स्वीकार किया।

माताकी आज्ञा पाकर भीमसेन बड़ी प्रसन्नतासे जाने को तैयार हो गये। इसी बीच युधिष्ठिर आदि चारों भाई लौटकर घर पहुँचे। युधिष्ठिरने जब माताकी बात 1 सुनी, तब उन्हें बड़ा दुःख हुआ और उन्होंने माताकोइसके लिये उलाहना दिया। इसपर कुन्तीदेवी बोलीं

“युधिष्ठिर! तू धर्मात्मा होकर भी इस प्रकारकी बातें कैसे कह रहा है। भीमके बलका तुझको भलीभाँति पता है, वह राक्षसको मारकर ही आयेगा; परंतु कदाचित् ऐसा न भी हो, तो इस समय भीमसेनको भेजना ही क्या पे, धर्म नहीं है? ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र-किसीपर में भी विपत्ति आये तो बलवान् क्षत्रियका धर्म है कि अपने र प्राणोंको संकटमें डालकर भी उसकी रक्षा करे। ये प्रथम तो ब्राह्मण हैं, दूसरे निर्बल हैं और तीसरे हमलोगोंके आश्रयदाता हैं। आश्रय देनेवालेका बदला चुकाना तो मनुष्यमात्रका धर्म होता है। मैंने आश्रयदाताके उपकारके लिये, ब्राह्मणकी रक्षारूप क्षत्रिय धर्मका पालन करनेके लिये और प्रजाको संकटसे बचानेके लिये भीमको यह कार्य समझ-बूझकर सौंपा है। इस कर्तव्यपालनसे ही भीमसेनका क्षत्रिय जीवन सार्थक होगा। क्षत्रिय वीराङ्गना ऐसे ही अवसरोंके लिये पुत्रको जन्म दिया करती हैं। तू इस महान् कार्यमें क्यों बाधा देना चाहता है और क्यों इतना दुःखी होता है।’

धर्मराज युधिष्ठिर माताकी धर्मसम्मत वाणी सुनकर लज्जित हो गये और बोले-‘माताजी! मेरी भूल थी। आपने धर्मके लिये भीमसेनको यह काम सौंपकर बहुत अच्छा किया है। आपके पुण्य और शुभाशीर्वादसे भीम अवश्य ही राक्षसको मारकर लौटेगा।’

तदनन्तर माता और बड़े भाईकी आज्ञा और आशीर्वाद लेकर भीमसेन बड़े ही उत्साहसे राक्षसके यहाँ गये और उसे मारकर ही लौटे।

कुन्तीसहित पाँचों पाण्डवोंको जलाकर मार डालने के उद्देश्यसे दुर्योधनने वारणावत नामक स्थानमें एक चपड़ेका महल बनवाया और अंधे राजा धृतराष्ट्रको समझा-बुझाकर उनके द्वारा युधिष्ठिरको यह आज्ञा दिलवा दी कि ‘तुमलोग वहाँ जाकर कुछ दिन रहो और भाँति-भाँति से दान-पुण्य करके पुण्य संचय करो।’
दुर्योधनने अपनी चंडाल चौकड़ीमें यह निश्चय किया था कि पाण्डवोंके वहाँ रहने लगनेपर किसी दिन रात्रिके समय आग लगा दी जायगी और चपड़ेका महल तुरंत पाण्डवॉसहित भस्म हो जायगा। धृतराष्ट्रको इस बुरी नीयतका पता नहीं था; परंतु किसी तरह विदुरको पता लग गया और विदुरने उनके वहाँसे बच निकलनेके लिये अंदर-ही-अंदर एक सुरंग बनवा दी तथा सांकेतिक भाषामें युधिष्ठिरको सारा रहस्य तथा बच निकलनेका उपाय समझा दिया।
पाण्डव वहाँसे बच निकले और अपनेको छिपाकर एकचक्रा नगरीमें एक ब्राह्मणके घर जाकर रहने लगे।उस नगरीमें वक नामक एक बलवान् राक्षस रहता था। उसने ऐसा नियम बना रखा था कि नगरके प्रत्येक घरसे नित्य बारी-बारीसे एक आदमी उसके लिये विविध भोजन-सामग्री लेकर उसके पास जाय। वह दुष्ट अन्य सामग्रियोंके साथ उस आदमीको भी खा जाता था। जिस ब्राह्मणके घर पाण्डव टिके थे, एक दिन उसीकी बारी आ गयी। ब्राह्मणके घर कुहराम मच गया। ब्राह्मण, उसकी पत्नी, कन्या और पुत्र अपने-अपने प्राण देकर दूसरे तीनोंको बचानेका आग्रह करने लगे। उस दिन धर्मराज आदि चारों भाई तो भिक्षाके लिये बाहर गये थे। डेरेपर कुन्ती और भीमसेन थे। कुन्तीने सारी बातें सुनीं तो उनका हृदय दयासे भर गया। उन्होंने जाकर ब्राह्मण परिवारसे हँसकर कहा-‘महाराज ! आपलोग रोते क्यों हैं। जरा भी चिन्ता न करें। हमलोग आपके आश्रयमें रहते हैं। मेरे पाँच लड़के हैं, उनमेंसे एक लड़केको मैं भोजन सामग्री देकर राक्षसके यहाँ भेज दूँगी।’ ‘ब्राह्मणने कहा- ‘माता! ऐसा कैसे हो सकता है। आपहमारे अतिथि हैं। अपने प्राण बचानेके लिये हम अतिथिका प्राण लें, ऐसा अधर्म हमसे कभी नहीं हो सकता।’
कुन्तीने समझाकर ‘पण्डितजी! आप जरा भी चिन्ता न करें। मेरा लड़का भीम बड़ा बली हैं। उसने अबतक कितने ही राक्षसोंको मारा है। वह अवश्य इस राक्षसको भी मार देगा। फिर, मान लीजिये, कदाचित् वह न भी मार सका तो क्या होगा। मेरे पाँचमें चार तो बच ही रहेंगे। हमलोग सब एक साथ रहकर एक ही परिवारके से हो गये हैं। आप वृद्ध हैं, वह जवान है। फिर हम आपके आश्रयमें रहते हैं। ऐसी अवस्थामें आप वृद्ध और पूजनीय होकर भी राक्षसके मुँहमें जायँ और मेरा लड़का जवान और बलवान् होकर घरमें मुँह छिपाये बैठा रहे, यह कैसे हो सकता है।’
ब्राह्मण परिवारने किसी तरह भी जब कुन्तीका प्रस्ताव स्वीकार नहीं किया, तब कुन्ती देवीने उन्हें हर तरहसे यह विश्वास दिलाया कि भीमसेन अवश्य ही राक्षसको मारकर आयेगा और कहा कि ‘भूदेव ! आप यदि नहीं मानेंगे तो भीमसेन आपको बलपूर्वक रोककर चला जायगा। मैं उसे निश्चय भेजूँगी और आप उसे रोक नहीं सकेंगे।’
तब लाचार होकर ब्राह्मणने कुन्तीका अनुरोध स्वीकार किया।
माताकी आज्ञा पाकर भीमसेन बड़ी प्रसन्नतासे जाने को तैयार हो गये। इसी बीच युधिष्ठिर आदि चारों भाई लौटकर घर पहुँचे। युधिष्ठिरने जब माताकी बात 1 सुनी, तब उन्हें बड़ा दुःख हुआ और उन्होंने माताकोइसके लिये उलाहना दिया। इसपर कुन्तीदेवी बोलीं
“युधिष्ठिर! तू धर्मात्मा होकर भी इस प्रकारकी बातें कैसे कह रहा है। भीमके बलका तुझको भलीभाँति पता है, वह राक्षसको मारकर ही आयेगा; परंतु कदाचित् ऐसा न भी हो, तो इस समय भीमसेनको भेजना ही क्या पे, धर्म नहीं है? ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र-किसीपर में भी विपत्ति आये तो बलवान् क्षत्रियका धर्म है कि अपने र प्राणोंको संकटमें डालकर भी उसकी रक्षा करे। ये प्रथम तो ब्राह्मण हैं, दूसरे निर्बल हैं और तीसरे हमलोगोंके आश्रयदाता हैं। आश्रय देनेवालेका बदला चुकाना तो मनुष्यमात्रका धर्म होता है। मैंने आश्रयदाताके उपकारके लिये, ब्राह्मणकी रक्षारूप क्षत्रिय धर्मका पालन करनेके लिये और प्रजाको संकटसे बचानेके लिये भीमको यह कार्य समझ-बूझकर सौंपा है। इस कर्तव्यपालनसे ही भीमसेनका क्षत्रिय जीवन सार्थक होगा। क्षत्रिय वीराङ्गना ऐसे ही अवसरोंके लिये पुत्रको जन्म दिया करती हैं। तू इस महान् कार्यमें क्यों बाधा देना चाहता है और क्यों इतना दुःखी होता है।’
धर्मराज युधिष्ठिर माताकी धर्मसम्मत वाणी सुनकर लज्जित हो गये और बोले-‘माताजी! मेरी भूल थी। आपने धर्मके लिये भीमसेनको यह काम सौंपकर बहुत अच्छा किया है। आपके पुण्य और शुभाशीर्वादसे भीम अवश्य ही राक्षसको मारकर लौटेगा।’
तदनन्तर माता और बड़े भाईकी आज्ञा और आशीर्वाद लेकर भीमसेन बड़े ही उत्साहसे राक्षसके यहाँ गये और उसे मारकर ही लौटे।

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