थेरीगाथाकी बौद्ध भिक्षुणियाँ – कतिपय प्रसंग
बौद्ध धार्मिक साहित्य, जो पाली भाषामें है, उसमें ‘तिपिटक’ (संस्कृत-त्रिपिटक)- का विशेष स्थान है। पिटक अर्थात् संग्रह। ये तीन पिटक हैं-सुत्त (सूत्र) पिटक, विनयपिटक तथा अभिधम्मपिटक सुत्तपिटक पाँच निकायोंमें विभाजित है- 1. दीर्घनिकाय, 2. मज्झिमनिकाय, 3. सम्युत्तनिकाय, 4 अंगुत्तरनिकाय और 5. खुद्दकनिकाय। इनमेंसे खुद्दकनिकायमें अनेक पुस्तकें और सामग्री संकलित हैं। इन्हींमेंसे एक है ‘थेरीगाथा।’ इसमें बौद्धसंघकी भिक्षुणियों अर्थात् थेरियोंकी काव्य रचनाएँ संकलित हैं।
थेरीगाथा’ की रचनाकर्त्री थेरियों अथवा भिक्षुणियोंके जीवनपर यदि हम दृष्टि डालें तो त्याग, तपस्या और साधनाके अनेक दृश्य हमारे सामने आते हैं। बुद्धकी शिक्षाओं और उपदेशोंको आत्मसात् करते हुए इन थेरियोंने जीवनका चरम लक्ष्य प्राप्त करनेके लिये जो मार्ग अपनाया, वह साधकोंके समक्ष एक आदर्श प्रस्तुत करता है।
खेमा थेरी
खेमा थेरीका नाम बौद्ध भिक्षुणियोंमें अत्यन्त उच्च स्थानपर आसीन है। संघमें उसे अन्य भिक्षुणियोंके लिये एक आदर्शके रूपमें स्वीकार किया गया था।
खेमा थेरीका जन्म मद्रदेशके एक राजपरिवारमें हुआ था। वह राजपरिवारसे तो थी ही, साथ ही अत्यन्त रूपवती भी थी। बताया जाता है कि उसकी अंगकान्ति स्वर्णके समान थी। स्वाभाविक ही था कि उसके सौन्दर्यको कोई महान् सम्राट् ही वरण करता। वह तत्कालीन महान् सम्राट् विम्बसारकी प्रधान महिषी बन गयी। विम्बसारकी पटरानीका पद प्राप्त करके तो खेमाका गर्व और भी बढ़ गया था।
उन दिनों गौतम बुद्ध वेणुवनमें ठहरे हुए थे। राजा बिम्बसार स्वयं भी बुद्धके अनुयायी थे। उनकी इच्छा थी कि उनकी पत्नी खेमा भी उनके साथ बुद्धके दर्शनहेतु चले। खेमाने भी बुद्धके सम्बन्धमें काफी कुछ सुन रखा था। उसे लगता था कि शायद बुद्धकी दृष्टिमें उसके सौन्दर्यका कोई मूल्य नहीं होगा। हो सकता है कि बुद्धके समक्ष जानेपर उसे बुद्धसे अपने विषयमें, विशेषतः अपने सौन्दर्यके सम्बन्धमें कुछ अरुचिकर सुनना पड़े। अपने इन्हीं विचारोंके कारण वह बुद्धके समक्ष जानेकी अनिच्छुक थी। किंतु बिम्बसारके बारम्बार आग्रहके परिणामस्वरूप उसे भी अपने पतिके साथ बुद्धके दर्शनहेतु जाना पड़ा।
गौतम बुद्धके समक्ष पहुँचकर उसने देखा कि वहाँ एक अत्यन्त रूपवती स्त्री उनके समक्ष उपस्थित होकर हाथमें पंखा लिये भगवान् बुद्धके ऊपर हवा कर रही है। खेमा उसको देखकर हतप्रभ हो गयी; क्योंकि खेमाको अभीतक अपने अप्रतिम रूप-सौन्दर्यपर अत्यन्त गर्व था, किंतु इस स्वर्गिक सौन्दर्यकी प्रतिमाके समक्ष तो उसे अपना सौन्दर्य अत्यन्त तुच्छ लगा। उसे यह ज्ञात नहीं था कि बुद्धद्वारा यह सौन्दर्य सम्राज्ञी नारी विशेषरूपसे खेमाको शिक्षा देनेके उद्देश्यसे ही वहाँ प्रकट की गयी थी।
खेमा तो जैसे बुद्धकी उपस्थितिको भी भूलकर उस अपूर्व अनुपम नारीको ही निहारनेमें मग्न थी। तभी एक आश्चर्यजनक घटना घटी। खेमाके देखते-देखते उस युवा सौन्दर्यकी प्रतिमामें वार्धक्य ( बुढ़ापे) के लक्षण प्रकट होने लगे। चेहरेपर झुर्रियाँ, बालोंमें सफेदी और धीरे धीरे कुछ क्षणोंमें वह वृद्धाके रूपमें परिवर्तित होकर वहीं गिर गयी। उसके निष्प्राण शरीरको देख खेमाको विचार हुआ कि यदि इस अप्रतिम सौन्दर्यकी यह परिणति है, तो स्वयं उसका भविष्य क्या है? उसी क्षण रूपगर्वान्विता खेमाका जैसे अन्त हो गया और उसका स्थान एक नयी खेमाने ले लिया, जो भौतिक जगत्की निस्सारताको समझ चुकी थी। बुद्धने उसे उपदेश दिया। खेमाने अपने पतिसे ‘संघ’ में प्रवेशहेतु अनुमति माँगी, जो विम्बसारने उसे सहर्ष प्रदान की।
इस प्रकार सम्राट् बिम्बसारकी प्रधान महिषी खेमा अब संघमें भिक्षुणी या थेरी खेमा बन गयी। वैसे जिस क्षण खेमाका हृदय परिवर्तन हुआ था, उसी क्षण उसने उस बोधको सहज ही प्राप्त कर लिया था, जहाँतक पहुँचनेके लिये अनेक साधकोंको साधनाका दीर्घ मार्ग तय करना होता है।
इस प्रकार यह थेरीगाथा मानवीय रूप-सौन्दर्यकी निःसारताका बोध कराती है।
भद्दा कुण्डलकेशा थेरी
भदा (भद्रा) के पिता राजगह (राजगृह) नगरमें धनाध्यक्ष (खजांची) थे। ऐसा बताया जाता है कि एक बार युवावस्थामें भद्दा जब अपने घरमें थी, तो उसने देखा कि कुछ प्रहरी एक युवकको बन्दी बनाकर ले जा रहे है। सत्तुक नामका यह युवक अपराधी प्रवृत्तिका था। चोरी-डकैतीमें लिप्त रहता था। ऐसे ही एक अपराधमें उसे पकड़ा गया था तथा बन्दी बनाकर वधहेतु ले जाया जा रहा था। वह युवक सुदर्शन था तथा भद्दाका समवयस्क भी था। प्रथम दृष्टिमें ही भद्दा उसपर अनुरक्त हो गयी और उसने कह दिया कि ‘वह उस युवकके बिना जीवित नहीं रह सकती।’
भद्दाके पिताको जब यह पता चला तो पुत्रीके
इच्छापूर्तिहेतु उन्होंने प्रहरियोंको कुछ धन देकर सत्तुक नामक उस युवकको मुक्त करा लिया और घर ले आये।
भद्दा अपनी इच्छा पूरी होनेसे अत्यन्त प्रसन्न थी। किंतु वह युवक अपनी अपराधी प्रवृत्तिको नहीं त्याग पाया। भद्दाके स्वर्णाभूषणोंको देख उसने एक योजना बनायी। उसने भद्दाको कहा कि अपराधके अभियोगसे मुक्त होनेके उपलक्ष्यमें वह पर्वतपर स्थित देवीके मन्दिरमें पूजाहेतु जायगा, भद्दाको भी साथ चलना होगा। भद्दा प्रसन्न होकर वस्त्रालंकारोंसे पूर्णतः सुसज्जित होकर उसके साथ चल दी।
पर्वतपर पहुँचनेके पश्चात् उस युवकने भद्दाके समक्ष अपना वास्तविक उद्देश्य प्रकट किया। भद्दाने उसे आलिंगन करनेके बहाने पकड़कर पर्वतकी चोटीसे नीचे ढकेल दिया। पर्वतकी देवीने भद्दाके इस साहसी कृत्यकी प्रशंसा की।
इस घटनासे भद्दाका हृदय भौतिक इच्छाओंसे उचट गया। उसने घर वापस लौटना भी ठीक न समझा। वह श्वेताम्बर निगन्थी सम्प्रदायमें चली गयी। कठोर साधनाके क्रममें उसने अपने सिरके बाल नुचवा दिये। जब नये बाल उगे तो वे घुँघराले थे, अतः उसे कुण्डलकेशा कहा जाने लगा। कुछ समयतक इस सम्प्रदायमें रहकर उसे लगा कि यहाँ वह अपने लक्ष्यतक नहीं पहुँच सकेगी। अतः उसने उस पंथको छोड़ दिया।
एक बार सारिपुत्तने सावत्थी (श्रावस्ती) के निकट भद्दाकी गाड़ी हुई वृक्षकी शाखा देखी। उन्होंने कुछ बच्चोंसे कहकर उसे तुड़वा दिया। भद्दा और सारिपुत्तका शास्त्रार्थ हुआ। सारिपुत्तके सारगर्भित वचनोंसे निरुत्तर हुई भद्दाने उनसे प्रार्थना की कि वे उसे अपनी शिष्या स्वीकार करें। किंतु सारिपुत्तने ऐसा न करके भद्दाको बुद्धके पास शिक्षा ग्रहण करने हेतु भेज दिया। बुद्धने उसे उपदेश दिया । उपदेश पूर्ण होनेपर भद्दा बोध प्राप्त कर चुकी थी। इस प्रकार संघमें दीक्षित होकर भद्दा कुण्डलकेशा थेरीने अपना लक्ष्य प्राप्त किया तथा अन्य साधकों एवं मोक्षार्थियोंहेतु एक आदर्श प्रस्तुत किया।
इस प्रकार यह थेरीगाथा कुसंगति से बचने और भौतिक भोग-विलाससे उपरतिका बोध कराती है।
थेरीगाथाकी बौद्ध भिक्षुणियाँ – कतिपय प्रसंग
बौद्ध धार्मिक साहित्य, जो पाली भाषामें है, उसमें ‘तिपिटक’ (संस्कृत-त्रिपिटक)- का विशेष स्थान है। पिटक अर्थात् संग्रह। ये तीन पिटक हैं-सुत्त (सूत्र) पिटक, विनयपिटक तथा अभिधम्मपिटक सुत्तपिटक पाँच निकायोंमें विभाजित है- 1. दीर्घनिकाय, 2. मज्झिमनिकाय, 3. सम्युत्तनिकाय, 4 अंगुत्तरनिकाय और 5. खुद्दकनिकाय। इनमेंसे खुद्दकनिकायमें अनेक पुस्तकें और सामग्री संकलित हैं। इन्हींमेंसे एक है ‘थेरीगाथा।’ इसमें बौद्धसंघकी भिक्षुणियों अर्थात् थेरियोंकी काव्य रचनाएँ संकलित हैं।
थेरीगाथा’ की रचनाकर्त्री थेरियों अथवा भिक्षुणियोंके जीवनपर यदि हम दृष्टि डालें तो त्याग, तपस्या और साधनाके अनेक दृश्य हमारे सामने आते हैं। बुद्धकी शिक्षाओं और उपदेशोंको आत्मसात् करते हुए इन थेरियोंने जीवनका चरम लक्ष्य प्राप्त करनेके लिये जो मार्ग अपनाया, वह साधकोंके समक्ष एक आदर्श प्रस्तुत करता है।
खेमा थेरी
खेमा थेरीका नाम बौद्ध भिक्षुणियोंमें अत्यन्त उच्च स्थानपर आसीन है। संघमें उसे अन्य भिक्षुणियोंके लिये एक आदर्शके रूपमें स्वीकार किया गया था।
खेमा थेरीका जन्म मद्रदेशके एक राजपरिवारमें हुआ था। वह राजपरिवारसे तो थी ही, साथ ही अत्यन्त रूपवती भी थी। बताया जाता है कि उसकी अंगकान्ति स्वर्णके समान थी। स्वाभाविक ही था कि उसके सौन्दर्यको कोई महान् सम्राट् ही वरण करता। वह तत्कालीन महान् सम्राट् विम्बसारकी प्रधान महिषी बन गयी। विम्बसारकी पटरानीका पद प्राप्त करके तो खेमाका गर्व और भी बढ़ गया था।
उन दिनों गौतम बुद्ध वेणुवनमें ठहरे हुए थे। राजा बिम्बसार स्वयं भी बुद्धके अनुयायी थे। उनकी इच्छा थी कि उनकी पत्नी खेमा भी उनके साथ बुद्धके दर्शनहेतु चले। खेमाने भी बुद्धके सम्बन्धमें काफी कुछ सुन रखा था। उसे लगता था कि शायद बुद्धकी दृष्टिमें उसके सौन्दर्यका कोई मूल्य नहीं होगा। हो सकता है कि बुद्धके समक्ष जानेपर उसे बुद्धसे अपने विषयमें, विशेषतः अपने सौन्दर्यके सम्बन्धमें कुछ अरुचिकर सुनना पड़े। अपने इन्हीं विचारोंके कारण वह बुद्धके समक्ष जानेकी अनिच्छुक थी। किंतु बिम्बसारके बारम्बार आग्रहके परिणामस्वरूप उसे भी अपने पतिके साथ बुद्धके दर्शनहेतु जाना पड़ा।
गौतम बुद्धके समक्ष पहुँचकर उसने देखा कि वहाँ एक अत्यन्त रूपवती स्त्री उनके समक्ष उपस्थित होकर हाथमें पंखा लिये भगवान् बुद्धके ऊपर हवा कर रही है। खेमा उसको देखकर हतप्रभ हो गयी; क्योंकि खेमाको अभीतक अपने अप्रतिम रूप-सौन्दर्यपर अत्यन्त गर्व था, किंतु इस स्वर्गिक सौन्दर्यकी प्रतिमाके समक्ष तो उसे अपना सौन्दर्य अत्यन्त तुच्छ लगा। उसे यह ज्ञात नहीं था कि बुद्धद्वारा यह सौन्दर्य सम्राज्ञी नारी विशेषरूपसे खेमाको शिक्षा देनेके उद्देश्यसे ही वहाँ प्रकट की गयी थी।
खेमा तो जैसे बुद्धकी उपस्थितिको भी भूलकर उस अपूर्व अनुपम नारीको ही निहारनेमें मग्न थी। तभी एक आश्चर्यजनक घटना घटी। खेमाके देखते-देखते उस युवा सौन्दर्यकी प्रतिमामें वार्धक्य ( बुढ़ापे) के लक्षण प्रकट होने लगे। चेहरेपर झुर्रियाँ, बालोंमें सफेदी और धीरे धीरे कुछ क्षणोंमें वह वृद्धाके रूपमें परिवर्तित होकर वहीं गिर गयी। उसके निष्प्राण शरीरको देख खेमाको विचार हुआ कि यदि इस अप्रतिम सौन्दर्यकी यह परिणति है, तो स्वयं उसका भविष्य क्या है? उसी क्षण रूपगर्वान्विता खेमाका जैसे अन्त हो गया और उसका स्थान एक नयी खेमाने ले लिया, जो भौतिक जगत्की निस्सारताको समझ चुकी थी। बुद्धने उसे उपदेश दिया। खेमाने अपने पतिसे ‘संघ’ में प्रवेशहेतु अनुमति माँगी, जो विम्बसारने उसे सहर्ष प्रदान की।
इस प्रकार सम्राट् बिम्बसारकी प्रधान महिषी खेमा अब संघमें भिक्षुणी या थेरी खेमा बन गयी। वैसे जिस क्षण खेमाका हृदय परिवर्तन हुआ था, उसी क्षण उसने उस बोधको सहज ही प्राप्त कर लिया था, जहाँतक पहुँचनेके लिये अनेक साधकोंको साधनाका दीर्घ मार्ग तय करना होता है।
इस प्रकार यह थेरीगाथा मानवीय रूप-सौन्दर्यकी निःसारताका बोध कराती है।
भद्दा कुण्डलकेशा थेरी
भदा (भद्रा) के पिता राजगह (राजगृह) नगरमें धनाध्यक्ष (खजांची) थे। ऐसा बताया जाता है कि एक बार युवावस्थामें भद्दा जब अपने घरमें थी, तो उसने देखा कि कुछ प्रहरी एक युवकको बन्दी बनाकर ले जा रहे है। सत्तुक नामका यह युवक अपराधी प्रवृत्तिका था। चोरी-डकैतीमें लिप्त रहता था। ऐसे ही एक अपराधमें उसे पकड़ा गया था तथा बन्दी बनाकर वधहेतु ले जाया जा रहा था। वह युवक सुदर्शन था तथा भद्दाका समवयस्क भी था। प्रथम दृष्टिमें ही भद्दा उसपर अनुरक्त हो गयी और उसने कह दिया कि ‘वह उस युवकके बिना जीवित नहीं रह सकती।’
भद्दाके पिताको जब यह पता चला तो पुत्रीके
इच्छापूर्तिहेतु उन्होंने प्रहरियोंको कुछ धन देकर सत्तुक नामक उस युवकको मुक्त करा लिया और घर ले आये।
भद्दा अपनी इच्छा पूरी होनेसे अत्यन्त प्रसन्न थी। किंतु वह युवक अपनी अपराधी प्रवृत्तिको नहीं त्याग पाया। भद्दाके स्वर्णाभूषणोंको देख उसने एक योजना बनायी। उसने भद्दाको कहा कि अपराधके अभियोगसे मुक्त होनेके उपलक्ष्यमें वह पर्वतपर स्थित देवीके मन्दिरमें पूजाहेतु जायगा, भद्दाको भी साथ चलना होगा। भद्दा प्रसन्न होकर वस्त्रालंकारोंसे पूर्णतः सुसज्जित होकर उसके साथ चल दी।
पर्वतपर पहुँचनेके पश्चात् उस युवकने भद्दाके समक्ष अपना वास्तविक उद्देश्य प्रकट किया। भद्दाने उसे आलिंगन करनेके बहाने पकड़कर पर्वतकी चोटीसे नीचे ढकेल दिया। पर्वतकी देवीने भद्दाके इस साहसी कृत्यकी प्रशंसा की।
इस घटनासे भद्दाका हृदय भौतिक इच्छाओंसे उचट गया। उसने घर वापस लौटना भी ठीक न समझा। वह श्वेताम्बर निगन्थी सम्प्रदायमें चली गयी। कठोर साधनाके क्रममें उसने अपने सिरके बाल नुचवा दिये। जब नये बाल उगे तो वे घुँघराले थे, अतः उसे कुण्डलकेशा कहा जाने लगा। कुछ समयतक इस सम्प्रदायमें रहकर उसे लगा कि यहाँ वह अपने लक्ष्यतक नहीं पहुँच सकेगी। अतः उसने उस पंथको छोड़ दिया।
एक बार सारिपुत्तने सावत्थी (श्रावस्ती) के निकट भद्दाकी गाड़ी हुई वृक्षकी शाखा देखी। उन्होंने कुछ बच्चोंसे कहकर उसे तुड़वा दिया। भद्दा और सारिपुत्तका शास्त्रार्थ हुआ। सारिपुत्तके सारगर्भित वचनोंसे निरुत्तर हुई भद्दाने उनसे प्रार्थना की कि वे उसे अपनी शिष्या स्वीकार करें। किंतु सारिपुत्तने ऐसा न करके भद्दाको बुद्धके पास शिक्षा ग्रहण करने हेतु भेज दिया। बुद्धने उसे उपदेश दिया । उपदेश पूर्ण होनेपर भद्दा बोध प्राप्त कर चुकी थी। इस प्रकार संघमें दीक्षित होकर भद्दा कुण्डलकेशा थेरीने अपना लक्ष्य प्राप्त किया तथा अन्य साधकों एवं मोक्षार्थियोंहेतु एक आदर्श प्रस्तुत किया।
इस प्रकार यह थेरीगाथा कुसंगति से बचने और भौतिक भोग-विलाससे उपरतिका बोध कराती है।