ईश्वर और जीवका भेद

gold buddha statue

ईश्वर और जीवका भेद

एक महात्माने एक जिज्ञासुसे कहा कि हमको प्यास लगी है, यह तूंबा ले जा और यहाँसे थोड़ी दूरपर गंगाजी हैं, उनका जल ले आ। गंगाजल पानकर मैं तेरी समस्याका समाधान करूँगा। वह व्यक्ति गंगाजीसे जल भर लाया। तब महात्माने तँबामें गंगाजल भरा देखकर कहा कि ‘यह गंगाजल नहीं है।’ जिज्ञासुने कहा- ‘हम कसम खाते हैं कि यह जल हम गंगाजीसे ही भरकर लाये हैं। यह गंगाजल ही है।’ महात्माने कहा कि ‘हम कैसे मान लें कि इस तूंबेमें गंगाजल है; क्योंकि गंगामें तो सैकड़ों मगरमच्छ रहते हैं, इसमें तो कुछ नहीं दीखता । गंगामें सैकड़ों नावें चलती हैं, इस तूंबेमें तो एक भी नौका नहीं दीख रही है।’ तब जिज्ञासुने कहा-‘महाराज ! इस तँबेमें यह सब दृश्य कैसे हो सकता है, गंगा तो बहुत बड़ा प्रवाह है, वैसा इस तँबेमें थोड़े ही है-उसका अंशमात्र है।’
महात्माने कहा- यही ईश्वर और जीवमें भेद है। इसलिये ईश्वर सर्वत्र दीखता है, सर्वत्र रह सकता है। जीव छोटा-सा अंश है, अतः उसमें यह शक्ति नहीं है, परंतु तत्त्वतः दोनों एक हैं—दोनोंमें कोई अन्तर नहीं है। जो ईश्वर है, वही जीव भी है।
यह बात सुनकर जिज्ञासु शान्त हो गया, उसकी समस्याका समाधान हो गया। फिर जिज्ञासुने प्रश्न किया- ‘ज्ञानवान्की दृष्टिमें आत्मा सबके शरीरमें एक ही है, शुद्ध है, निर्दोष है, तब सबके साथ एक सा व्यवहार क्यों नहीं होता ?’
महात्माने उत्तर दिया- ज्ञानी दो प्रकारके होते हैंएक तो जीवन्मुक्त कहे जाते हैं, जिनको अपने शरीरकी भी खबर नहीं रहती और दूसरे चतुर्थी भूमिकावाले आचार्य कहे जाते हैं। जो जीवन्मुक्त हैं, वे तो अजगरकी-सी वृत्तिवाले होते हैं। किसीने उनके मुखमें अन्न डाल दिया तो खा लेते हैं, अन्यथा पड़े रहते हैं। उनको सब बराबर है, भूख-प्यास और भरा पेट दोनोंमें कोई अन्तर नहीं दीखता। वे आत्मानन्दमें डूबे रहते हैं। उन्हें भंगी, चमार, ब्राह्मण सब एक समान हैं, कोई भेद नहीं। किंतु दूसरे जो आचार्यकोटिके जीव हैं, वे सब जीवोंमें एक ही आत्माको तो देखते हैं, इसीसे उनको किसीसे राग या द्वेष नहीं है, परंतु वह समवर्ती (सबके साथ एक-सा व्यवहार करनेवाले) नहीं होते; क्योंकि समवर्तीका नाम ज्ञानी नहीं है। फिर ज्ञानका फल कहीं समवर्ती होना लिखा भी नहीं है, उसका फल तो राग-द्वेषसे मुक्त होना है। सो जो राग द्वेषरहित हैं, अपने आत्मानन्दमें आनन्दित हैं, वे ही ज्ञानी हैं। ज्ञानी- अज्ञानीमें इतना ही फर्क है कि ज्ञानीमें राग-द्वेष नहीं होता और अज्ञानीमें होता है।’

difference between god and soul
A Mahatma told a curious person that he is thirsty, take this tomb and Gangaji is a little far away from here, bring its water. I will solve your problem after drinking the water of the Ganges. That person brought water from Gangaji. Then the Mahatma saw the water of the Ganges in the copper and said, ‘This is not the water of the Ganges.’ The curious said – ‘ We swear that we have brought this water filled from Gangaji only. This is only the water of the Ganges. Mahatma said that ‘ how can we believe that there is Gangajal in this tomb; Because hundreds of crocodiles live in the Ganges, nothing is visible in it. Hundreds of boats ply in the Ganges, not even a single boat is visible in this tomb.’ Then the curious said – ‘ Maharaj! How can all this be visible in this copper, the Ganga is a huge flow, but this copper has only a fraction of it.’
Mahatma said – this is the difference between God and soul. That’s why God is seen everywhere, can be everywhere. The soul is a small part, so it does not have this power, but in essence both are one – there is no difference between the two. The one who is God, is also a living being.
Hearing this, the curious became calm, his problem was solved. Then the curious asked – ‘In the eyes of the wise, the soul in everyone’s body is the same, it is pure, it is innocent, then why is everyone not treated the same?’
Mahatma replied – There are two types of wise ones, one is called Jivanmukta, who is not even aware of his body and the other is called Acharya with fourth role. Those who are free from life, they have the attitude of a python. If someone puts food in their mouth, they eat it, otherwise they keep lying down. They are all equal, they do not see any difference between hunger and thirst and a full stomach. They remain engrossed in the bliss of the Self. To them Bhangi, Chamar, Brahmin are all the same, there is no difference. But others who are Acharyakoti’s creatures, they see only one soul in all living beings, that’s why they don’t have attachment or hatred towards anyone, but they are not concurrent (treating everyone in the same way); Because the name of the Concurrent is not knowledgeable. Then it is not even written that the fruit of knowledge should be concurrent, its fruit is to be free from attachment and hatred. So those who are free from attachment and malice, who are happy in their self-bliss, they are wise. The only difference between the wise and the ignorant is that the wise do not have attachment and hatred and the ignorant do.

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