एक वनमें वटवृक्षकी जड़में सौ दरवाजोंका बिल बनाकर पलित नामका एक बुद्धिमान् चूहा रहता था । उसी वृक्षकी शाखापर लोमश नामका एक बिलाव भीरहता था। एक बार एक चाण्डालने आकर उस वनमें डेरा डाल दिया। सूर्यास्त होनेपर वह अपना जाल फैला देता था और उसकी ताँतकी डोरियोंको यथास्थानलगाकर मौजसे अपने झोंपड़े में सो जाता था । रातमें अनेकों जीव उसके जालमें फँस जाते थे, जिन्हें वह सबेरे पकड़ लेता था। बिलाव यद्यपि बहुत सावधान रहता था तो भी एक दिन उसके जालमें फँस ही गया। यह देखकर पलित चूहा निर्भय होकर वनमें आहार खोजने लगा। इतनेहीमें उसकी दृष्टि चाण्डालके डाले हुए (फँसानेके लिये) मांस खण्डोंपर पड़ी। वह जालपर चढ़कर उन्हें खाने लगा। इतनेमें ही उसने देखा कि हरिण नामका न्यौला चूहेको पकड़नेके लिये जीभ लपलपा रहा था। अब चूहेने जो ऊपरकी ओर वृक्षपर भागनेकी सोची तो उसने वटकी शाखापर रहनेवाले अपने घोर शत्रु चन्द्रक नामक उल्लूको देखा। इस प्रकार इन शत्रुओंके बीचमें पड़कर वह डर गया और चिन्तामें डूब गया।
इसी समय उसे एक विचार सूझ गया। उसने देखा कि बिलाव संकटमें पड़ा है, इसलिये वह इसकी रक्षा कर सकेगा। अतः उसने उसकी शरणमें जानेकी सोची। उसने बिलावसे कहा- ‘भैया! अभी जीवित हो न ? देखो! डरो मत। यदि तुम मुझे मारना न चाहो तो मैं तुम्हारा उद्धार कर सकता हूँ। मैंने खूब विचारकर अपने और तुम्हारे उद्धारके लिये उपाय सोचा है। उससे हम दोनोंका हित हो सकता है। देखो ये न्यौला और उल्लू मेरी घातमें बैठे हुए हैं। इन्होंने अभीतक मुझपर आक्रमण नहीं किया है, इसीलिये बचा हुआ हूँ। अब तुम मेरी रक्षा करो और तुम जिस जालको काटने में असमर्थ हो उसे काटकर मैं तुम्हारी रक्षा कर लूँगा।’ बिलाव भी बुद्धिमान् था। उसने कहा- ‘सौम्य !
तुम्हारी बातोंसे बड़ी प्रसन्नता हुई है। इस समय मेरे प्राण
संकटमें हैं। मैं तुम्हारी शरणमें हूँ। तुम जैसा भी कहोगे
मैं वैसा ही करूंगा।’
चूहा बोला- ‘तो मैं तुम्हारी गोदमें नीचे छिप जाना चाहता हूँ, क्योंकि नेवलेसे मुझे बड़ा भय हो रहा है। तुम मेरी रक्षा करना। इसके बाद मैं तुम्हारा जाल काट दूंगा। यह बात मैं सत्यकी शपथ लेकर कहता हूँ।’
लोमश बोला- ‘तुम तुरंत आ जाओ। भगवान् तुम्हारा मङ्गल करें। तुम तो मेरे प्राणोंके समान सखा हो। इस संकटसे छूट जानेपर मैं अपने बन्धु बान्धवोंके साथ तुम्हारा प्रिय तथा हितकारी कार्य करता रहूँगा।’अब चूहा आनन्दसे उसकी गोदमें जा बैठा। बिलावने भी उसे ऐसा निःशङ्क बना दिया कि वह | माता-पिताकी गोदके समान उसकी छातीसे लगकर सौ गया। जब न्यौले और उल्लूने उनकी ऐसी गहरी मित्रता | देखी तो वे निराश हो गये और अपने-अपने स्थानको धीरे-धीरे जाल चले गये। चूहा देशकालकी गतिको पहचानता था. इसलिये चाण्डालकी प्रतीक्षा करते हुए काटने लगा। बिलाव बन्धनके खेदसे ऊब गया था। उसने उससे जल्दी-जल्दी जाल काटनेकी प्रार्थना की। पलितने कहा, “भैया! घबराओ मत। मैं कभी न चुकूँगा। असमयमें काम करनेसे कर्ताको हानि हो होती है। यदि मैंने पहले ही तुम्हें छुड़ा दिया तो मुझे
तुमसे भय हो सकता है। इसलिये जिस समय मैं देखूँगा कि चाण्डाल हथियार लिये हुए इधर आ रहा है, उसी समय मैं तुम्हारे बन्धन काट डालूँगा। उस समय तुम्हें वृक्षपर चढ़ना ही सूझेगा और में तुरंत अपने बिलमें घुस जाऊँगा।’
विलावने कहा- ‘भाई। पहलेके मेरे अपराधोंको भूल जाओ। तुम अब फुर्तीके साथ मेरा बन्धन काट दो। देखो, मैंने आपत्तिमें देखकर तुम्हें तुरंत बचा लिया। अब तुम अपना मनोमालिन्य दूर कर दो।’
चूहेने कहा – ‘मित्र ! जिस मित्रसे भयको सम्भावना हो उसका काम इस प्रकार करना चाहिये, जैसे बाजीगर सर्पके साथ उसके मुँहसे हाथ बचाकर खेलता है। जो व्यक्ति बलवान् के साथ सन्धि करके अपनी रक्षाका ध्यान नहीं रखता, उसका वह मेल अपथ्य भोजनके समान कैसे हितकर होगा? मैंने बहुत-से तन्तुओंको काट डाला है, अब मुख्यतः एक ही डोरी काटनी है। जब चाण्डाल आ जायगा, तब भयके कारण तुम्हें भागनेकी ही सूझेगी, उसी समय मैं तुरंत उसे काट डालूँगा तुम बिलकुल न घबराओ।’
इसी तरह बातें करते वह रात बीत गयो । लोमशका भय बराबर बढ़ता गया। प्रातः काल परिधि नामक चाण्डाल हाथमें शस्त्र लिये आता दीखा। वह साक्षात् यमदूतके समान जान पड़ता था। अब तो बिलाव भयसे व्याकुल हो गया। अब चूहेने तुरंत जाल काट दिया। बिलाव झट पेड़पर चढ़ गया और चूहा बिलमें घुस गया। चाण्डाल भी जालको कटा देखनिराश होकर वापस चला गया।
अब लोमशने चूहेसे कहा- ‘भैया! तुम मुझसे कोई बात किये बिना ही बिलमें क्यों घुस गये। अब तो मैं तुम्हारा मित्र हो गया हूँ और अपने जीवनकी शपथ करके कहता हूँ, अब मेरे बन्धु-बान्धव भी तुम्हारी इस प्रकार सेवा करेंगे, जैसे शिष्य लोग गुरुकी सेवा करते हैं। तुम मेरे शरीर, मेरे घर और मेरी सारी सम्पत्तिके स्वामी हो । आजसे तुम मेरा मन्त्रित्व स्वीकार करो और पिताकी तरह मुझे शिक्षा दो। बुद्धिमें तो तुम साक्षात् शुक्राचार्य ही हो। अपने मन्त्रबलसे जीवनदान देकर तुमने मुझे निःशुल्क खरीद लिया है। अब मैं सर्वथा तुम्हारे अधीन हूँ।’
बिलावकी चिकनी-चुपड़ी बातें सुनकर परम नीतिज्ञ चूहा बोला- ‘भाई साहब! मित्रता तभीतक निभती है जबतक स्वार्थसे विरोध नहीं आता। मित्र वही बन सकता है जिससे कुछ स्वार्थ सिद्ध हो तथा जिसके मरनेसे कुछ हानि हो, तभीतक मित्रता चलती है। न मित्रता कोई स्थायी वस्तु है और न शत्रुता ही स्वार्थकी अनुकूलता – प्रतिकूलतासे ही मित्र तथा शत्रु बनते रहते हैं। समयके फेरसे कभी मित्र ही शत्रु तथा कभी शत्रु ही मित्र बन जाता है। हमारी प्रीति भी एक विशेष कारणसे ही हुई थी। अब जब वह कारण नष्ट हो गया तो प्रीति भी न रही। अब तो मुझे खा जानेके सिवा मुझसे तुम्हारा कोई दूसरा प्रयोजन सिद्ध होनेवाला नहीं। मैं दुर्बल तुम बलवान्, मैं भक्ष्य तथा तुम भक्षक ठहरे। अतएव तुम मुझसे भूख बुझाना चाहते हो। भला, जब तुम्हारे प्रिय पुत्र और स्त्री मुझे तुम्हारे पास बैठा देखेंगे। तो मुझे झट चट करनेमें वे क्यों चूकेंगे? इसलिये मैं।तुम्हारे साथ नहीं रह सकता। अतएव भैया । तुम्हारा कल्याण हो। मैं तो चला। यदि मेरे किये हुए उपकारका तुम्हें ध्यान हो तो कभी मैं चूक जाऊँ तो मुझे चटन कर जाना।’
पलितने जब इस प्रकार खरी-खरी सुनायी तो बिलावने लज्जित होकर कहा-‘भाई। मैं सत्यकी शपथ खाकर कहता हूँ, तुम मेरे परमप्रिय हो और मैं तुमसे द्रोह नहीं कर सकता। अधिक क्या तुम्हारे कहनेसे मैं अपने बन्धु बान्धवोंके साथ प्राणतक त्याग सकता हूँ।’
इस प्रकार बिलावने जब चूहेकी और भी बहुत प्रशंसा की, तब चूहेने कहा-‘आप वास्तवमें बड़े साधु हैं। आपपर मैं पूर्ण प्रसन्न हूँ, तथापि मैं आपमें विश्वास नहीं कर सकता। इस सम्बन्धमें शुक्राचार्यकी दो बातें ध्यान देने योग्य हैं- (1) जब दो शत्रुओंपर एक-सी विपत्ति आ पड़े तब परस्पर मिलकर बड़ी सावधानीसे काम लेना चाहिये और जब काम हो जाय तब बली शत्रुका विश्वास नहीं करना चाहिये। (2) जो अविश्वासका पात्र हो, उसका कभी भी विश्वास न करे और जो विश्वासपात्र हो, उसका भी अत्यधिक विश्वास न करे। नीतिशास्त्रका यही सार है कि किसीका विश्वास न करना ही अच्छा है। इसलिये लोमशजी! मुझे आपसे सर्वथा सावधान रहना चाहिये और आपको भी जन्मशत्रु चाण्डालसे बचना चाहिये।”
चाण्डालका नाम सुनकर बिलाव भाग गया और चूहा भी बिलमें चला गया। इस तरह दुर्बल और अकेला होनेपर भी बुद्धिबलसे पलित कई शत्रुओंसे बच गया।
-जा श (महा0 शान्ति आपद्धर्म अध्याय 138)
एक वनमें वटवृक्षकी जड़में सौ दरवाजोंका बिल बनाकर पलित नामका एक बुद्धिमान् चूहा रहता था । उसी वृक्षकी शाखापर लोमश नामका एक बिलाव भीरहता था। एक बार एक चाण्डालने आकर उस वनमें डेरा डाल दिया। सूर्यास्त होनेपर वह अपना जाल फैला देता था और उसकी ताँतकी डोरियोंको यथास्थानलगाकर मौजसे अपने झोंपड़े में सो जाता था । रातमें अनेकों जीव उसके जालमें फँस जाते थे, जिन्हें वह सबेरे पकड़ लेता था। बिलाव यद्यपि बहुत सावधान रहता था तो भी एक दिन उसके जालमें फँस ही गया। यह देखकर पलित चूहा निर्भय होकर वनमें आहार खोजने लगा। इतनेहीमें उसकी दृष्टि चाण्डालके डाले हुए (फँसानेके लिये) मांस खण्डोंपर पड़ी। वह जालपर चढ़कर उन्हें खाने लगा। इतनेमें ही उसने देखा कि हरिण नामका न्यौला चूहेको पकड़नेके लिये जीभ लपलपा रहा था। अब चूहेने जो ऊपरकी ओर वृक्षपर भागनेकी सोची तो उसने वटकी शाखापर रहनेवाले अपने घोर शत्रु चन्द्रक नामक उल्लूको देखा। इस प्रकार इन शत्रुओंके बीचमें पड़कर वह डर गया और चिन्तामें डूब गया।
इसी समय उसे एक विचार सूझ गया। उसने देखा कि बिलाव संकटमें पड़ा है, इसलिये वह इसकी रक्षा कर सकेगा। अतः उसने उसकी शरणमें जानेकी सोची। उसने बिलावसे कहा- ‘भैया! अभी जीवित हो न ? देखो! डरो मत। यदि तुम मुझे मारना न चाहो तो मैं तुम्हारा उद्धार कर सकता हूँ। मैंने खूब विचारकर अपने और तुम्हारे उद्धारके लिये उपाय सोचा है। उससे हम दोनोंका हित हो सकता है। देखो ये न्यौला और उल्लू मेरी घातमें बैठे हुए हैं। इन्होंने अभीतक मुझपर आक्रमण नहीं किया है, इसीलिये बचा हुआ हूँ। अब तुम मेरी रक्षा करो और तुम जिस जालको काटने में असमर्थ हो उसे काटकर मैं तुम्हारी रक्षा कर लूँगा।’ बिलाव भी बुद्धिमान् था। उसने कहा- ‘सौम्य !
तुम्हारी बातोंसे बड़ी प्रसन्नता हुई है। इस समय मेरे प्राण
संकटमें हैं। मैं तुम्हारी शरणमें हूँ। तुम जैसा भी कहोगे
मैं वैसा ही करूंगा।’
चूहा बोला- ‘तो मैं तुम्हारी गोदमें नीचे छिप जाना चाहता हूँ, क्योंकि नेवलेसे मुझे बड़ा भय हो रहा है। तुम मेरी रक्षा करना। इसके बाद मैं तुम्हारा जाल काट दूंगा। यह बात मैं सत्यकी शपथ लेकर कहता हूँ।’
लोमश बोला- ‘तुम तुरंत आ जाओ। भगवान् तुम्हारा मङ्गल करें। तुम तो मेरे प्राणोंके समान सखा हो। इस संकटसे छूट जानेपर मैं अपने बन्धु बान्धवोंके साथ तुम्हारा प्रिय तथा हितकारी कार्य करता रहूँगा।’अब चूहा आनन्दसे उसकी गोदमें जा बैठा। बिलावने भी उसे ऐसा निःशङ्क बना दिया कि वह | माता-पिताकी गोदके समान उसकी छातीसे लगकर सौ गया। जब न्यौले और उल्लूने उनकी ऐसी गहरी मित्रता | देखी तो वे निराश हो गये और अपने-अपने स्थानको धीरे-धीरे जाल चले गये। चूहा देशकालकी गतिको पहचानता था. इसलिये चाण्डालकी प्रतीक्षा करते हुए काटने लगा। बिलाव बन्धनके खेदसे ऊब गया था। उसने उससे जल्दी-जल्दी जाल काटनेकी प्रार्थना की। पलितने कहा, “भैया! घबराओ मत। मैं कभी न चुकूँगा। असमयमें काम करनेसे कर्ताको हानि हो होती है। यदि मैंने पहले ही तुम्हें छुड़ा दिया तो मुझे
तुमसे भय हो सकता है। इसलिये जिस समय मैं देखूँगा कि चाण्डाल हथियार लिये हुए इधर आ रहा है, उसी समय मैं तुम्हारे बन्धन काट डालूँगा। उस समय तुम्हें वृक्षपर चढ़ना ही सूझेगा और में तुरंत अपने बिलमें घुस जाऊँगा।’
विलावने कहा- ‘भाई। पहलेके मेरे अपराधोंको भूल जाओ। तुम अब फुर्तीके साथ मेरा बन्धन काट दो। देखो, मैंने आपत्तिमें देखकर तुम्हें तुरंत बचा लिया। अब तुम अपना मनोमालिन्य दूर कर दो।’
चूहेने कहा – ‘मित्र ! जिस मित्रसे भयको सम्भावना हो उसका काम इस प्रकार करना चाहिये, जैसे बाजीगर सर्पके साथ उसके मुँहसे हाथ बचाकर खेलता है। जो व्यक्ति बलवान् के साथ सन्धि करके अपनी रक्षाका ध्यान नहीं रखता, उसका वह मेल अपथ्य भोजनके समान कैसे हितकर होगा? मैंने बहुत-से तन्तुओंको काट डाला है, अब मुख्यतः एक ही डोरी काटनी है। जब चाण्डाल आ जायगा, तब भयके कारण तुम्हें भागनेकी ही सूझेगी, उसी समय मैं तुरंत उसे काट डालूँगा तुम बिलकुल न घबराओ।’
इसी तरह बातें करते वह रात बीत गयो । लोमशका भय बराबर बढ़ता गया। प्रातः काल परिधि नामक चाण्डाल हाथमें शस्त्र लिये आता दीखा। वह साक्षात् यमदूतके समान जान पड़ता था। अब तो बिलाव भयसे व्याकुल हो गया। अब चूहेने तुरंत जाल काट दिया। बिलाव झट पेड़पर चढ़ गया और चूहा बिलमें घुस गया। चाण्डाल भी जालको कटा देखनिराश होकर वापस चला गया।
अब लोमशने चूहेसे कहा- ‘भैया! तुम मुझसे कोई बात किये बिना ही बिलमें क्यों घुस गये। अब तो मैं तुम्हारा मित्र हो गया हूँ और अपने जीवनकी शपथ करके कहता हूँ, अब मेरे बन्धु-बान्धव भी तुम्हारी इस प्रकार सेवा करेंगे, जैसे शिष्य लोग गुरुकी सेवा करते हैं। तुम मेरे शरीर, मेरे घर और मेरी सारी सम्पत्तिके स्वामी हो । आजसे तुम मेरा मन्त्रित्व स्वीकार करो और पिताकी तरह मुझे शिक्षा दो। बुद्धिमें तो तुम साक्षात् शुक्राचार्य ही हो। अपने मन्त्रबलसे जीवनदान देकर तुमने मुझे निःशुल्क खरीद लिया है। अब मैं सर्वथा तुम्हारे अधीन हूँ।’
बिलावकी चिकनी-चुपड़ी बातें सुनकर परम नीतिज्ञ चूहा बोला- ‘भाई साहब! मित्रता तभीतक निभती है जबतक स्वार्थसे विरोध नहीं आता। मित्र वही बन सकता है जिससे कुछ स्वार्थ सिद्ध हो तथा जिसके मरनेसे कुछ हानि हो, तभीतक मित्रता चलती है। न मित्रता कोई स्थायी वस्तु है और न शत्रुता ही स्वार्थकी अनुकूलता – प्रतिकूलतासे ही मित्र तथा शत्रु बनते रहते हैं। समयके फेरसे कभी मित्र ही शत्रु तथा कभी शत्रु ही मित्र बन जाता है। हमारी प्रीति भी एक विशेष कारणसे ही हुई थी। अब जब वह कारण नष्ट हो गया तो प्रीति भी न रही। अब तो मुझे खा जानेके सिवा मुझसे तुम्हारा कोई दूसरा प्रयोजन सिद्ध होनेवाला नहीं। मैं दुर्बल तुम बलवान्, मैं भक्ष्य तथा तुम भक्षक ठहरे। अतएव तुम मुझसे भूख बुझाना चाहते हो। भला, जब तुम्हारे प्रिय पुत्र और स्त्री मुझे तुम्हारे पास बैठा देखेंगे। तो मुझे झट चट करनेमें वे क्यों चूकेंगे? इसलिये मैं।तुम्हारे साथ नहीं रह सकता। अतएव भैया । तुम्हारा कल्याण हो। मैं तो चला। यदि मेरे किये हुए उपकारका तुम्हें ध्यान हो तो कभी मैं चूक जाऊँ तो मुझे चटन कर जाना।’
पलितने जब इस प्रकार खरी-खरी सुनायी तो बिलावने लज्जित होकर कहा-‘भाई। मैं सत्यकी शपथ खाकर कहता हूँ, तुम मेरे परमप्रिय हो और मैं तुमसे द्रोह नहीं कर सकता। अधिक क्या तुम्हारे कहनेसे मैं अपने बन्धु बान्धवोंके साथ प्राणतक त्याग सकता हूँ।’
इस प्रकार बिलावने जब चूहेकी और भी बहुत प्रशंसा की, तब चूहेने कहा-‘आप वास्तवमें बड़े साधु हैं। आपपर मैं पूर्ण प्रसन्न हूँ, तथापि मैं आपमें विश्वास नहीं कर सकता। इस सम्बन्धमें शुक्राचार्यकी दो बातें ध्यान देने योग्य हैं- (1) जब दो शत्रुओंपर एक-सी विपत्ति आ पड़े तब परस्पर मिलकर बड़ी सावधानीसे काम लेना चाहिये और जब काम हो जाय तब बली शत्रुका विश्वास नहीं करना चाहिये। (2) जो अविश्वासका पात्र हो, उसका कभी भी विश्वास न करे और जो विश्वासपात्र हो, उसका भी अत्यधिक विश्वास न करे। नीतिशास्त्रका यही सार है कि किसीका विश्वास न करना ही अच्छा है। इसलिये लोमशजी! मुझे आपसे सर्वथा सावधान रहना चाहिये और आपको भी जन्मशत्रु चाण्डालसे बचना चाहिये।”
चाण्डालका नाम सुनकर बिलाव भाग गया और चूहा भी बिलमें चला गया। इस तरह दुर्बल और अकेला होनेपर भी बुद्धिबलसे पलित कई शत्रुओंसे बच गया।
-जा श (महा0 शान्ति आपद्धर्म अध्याय 138)