जिसने दक्षिण अफ्रीकाके सत्याग्रहका इतिहास पढ़ा होगा, वह भलीभाँति जानता होगा कि निरपराध होते तथा परोपकार करते हुए महात्मा गांधी- जितना दूसरा कोई भी व्यक्ति न पिटा होगा। इतनेपर भी इन्होंने किसीपर हाथ उठाना तो दूर रहा, अपने प्रतिरोधीके अकल्याणकी बात कभी मनमें भी न आने दी। क्षमा तो उसे तुरंत कर ही दिया, दण्डसे भी बचानेकी भरपूर चेष्टा की। इतना ही नहीं, जहाँतक हो सका, बड़े प्रेमसे शक्तिभर जी लगाकर उसकी भलाई की। आदिसे अन्ततक ऐसी घटनाओंको पढ़कर मानवहृदय सर्वथा दुःखित, चकित, विस्मित और क्या-क्या होता जाता है, यह कौन बताये। ऐसी घटनाएँ उनके जीवनमें एकदो नहीं, पग-पगपर और जीवनके अन्ततक होती दीखती हैं; उनकी गणना कौन करे ? पर इनमें ट्रान्सवाल (दक्षिण अफ्रीका) की एक घटना बड़ी मर्मस्पर्शी है। वह नीचे दी जाती है
जनवरी 1908 की बात है। ट्रान्सवालमें उपनिवेशवाद (भारतीयोंके वहाँ बसने न बसने) – का सत्याग्रह चल रहा था। कुछ लोगोंने मिलकर गांधीजीके एक पुराने मवक्किल मीर आलमको उनके विरुद्ध बहकाया और उनको मारनेके लिये ठीक किया। एक दिन वे फॉन ब्राडिस स्क्वायर स्थित एशियाटिक ऑफिसमें आम मार्गसे चले जा रहे थे। वे गिन्सनकी कोठीके पार ही हुए थे कि मीर आलम उनकी बगलमें आ गयाऔर उनसे पूछा, ‘कहाँ जाते हो?’ गांधीजीने पहले दिनके दिये भाषणके अनुसार बतलाया कि ‘मैं दस अंगुलियोंकी निशानी देकर रजिष्ट्रीका सर्टिफिकेट लेने जा रहा हूँ। अगर तुम भी चलो तो तुम्हें दसों अंगुलियोंकी निशानी न देकर केवल दोनों अंगूठेकी निशानी देनेपर ही पहले सर्टिफिकेट दिलवा दूँ।’ गांधीजी अभी यह कह ही रहे थे कि इतनेमें उसने ताबड़तोड़ उनके सिरपर लाठी बरसाना आरम्भ किया। गांधीजी तो पहली लाठीमें ही ‘हे राम’ कहकर गिर पड़े और बेहोश हो गये। गिरते समय उनका शिरोभाग एक नुकीले पत्थरपर गिरा; परिणामतः ऊपरका ओठ और ठुड्डी बुरी तरह फट गयी, एक दाँत टूट गया। दूसरे नुकीले पत्थरसे ललाट फटा और तीसरेसे आँख इतनेपर भी आलम और उसके साथी गाँधीजीको लाठियों और लातोंसे मारते ही रहे। उनमेंसे कुछ इसप मियाँ और थम्बी नायडूको भी लगे।
शोर हुआ। गोरे आ गये। आलम और उसके साथी भागने लगे। पर गोरोंने उन्हें पकड़ लिया। गांधीजीको लोग मि0 गिप्सनके दफ्तरमें ले गये। होश आते ही उन्होंने पूछा- ‘मीर आलम कहाँ है?’ रेवरेंड डोक उनके पास थे। उन्होंने बतलाया ‘वह और उसके सभी साथी पकड़ लिये गये हैं।’ गांधीजीने तुरंत |कहा – ‘उन्हें छूटना चाहिये।’ लोगोंने लाख समझाया कि अभी इतनी क्या जल्दी है, अभी आप आराम करें; पर गांधीजीने एक न सुनी और ऐटर्नी जेनरलके नाम तुरंत तार भेजा—’मीर आलम और उनके साथियोंने मेरे ऊपर जो हमला किया, उसके लिये मैं उन्हें दोषी नहीं मानता। उनपर फौजदारी मुकदमा न चलाकर मेरी खातिर उन्हें तुरंत छोड़ दिया जाय।’ इस तारके उत्तरमें वे छोड़ दिये गये।
पर जोहान्सबर्गके गोरोंने तुरंत ऐटर्नी-जेनरलको एक कड़ा पत्र लिखा – ‘गांधीजीके निजी विचार यहाँ नहीं चल सकते। अपराधियोंने उन्हें सरेआम बीच रास्तेमें मारा है। यह सार्वजनिक अपराध है। अपराधियोंको | पकड़ना ही होगा।’ फलतः वे पुन: पकड़ लिये गये। गांधीजीकी छुड़ानेकी चेष्टाके बावजूद उन्हें तीन मासकी सख्त सजा मिली।
मुश्किलसे चार महीने बीते होंगे। जुलाईकी एक सभामें मीर आलमको गांधीजीने देखा। उसने सभामें अपनी भूल स्वीकार की और उनसे क्षमा माँगी। गांधीजीने उसका हाथ पकड़ लिया और बड़े स्नेहसे उसे दबाते हुए कहा ‘मैंने तुम्हारे विरुद्ध कभी कुछ नहीं सोचा। इसमें तो तुम्हारा कोई अपराध था ही नहीं। तुम बिलकुल निश्चिन्त रहो।
‘ -जा0 श0
जिसने दक्षिण अफ्रीकाके सत्याग्रहका इतिहास पढ़ा होगा, वह भलीभाँति जानता होगा कि निरपराध होते तथा परोपकार करते हुए महात्मा गांधी- जितना दूसरा कोई भी व्यक्ति न पिटा होगा। इतनेपर भी इन्होंने किसीपर हाथ उठाना तो दूर रहा, अपने प्रतिरोधीके अकल्याणकी बात कभी मनमें भी न आने दी। क्षमा तो उसे तुरंत कर ही दिया, दण्डसे भी बचानेकी भरपूर चेष्टा की। इतना ही नहीं, जहाँतक हो सका, बड़े प्रेमसे शक्तिभर जी लगाकर उसकी भलाई की। आदिसे अन्ततक ऐसी घटनाओंको पढ़कर मानवहृदय सर्वथा दुःखित, चकित, विस्मित और क्या-क्या होता जाता है, यह कौन बताये। ऐसी घटनाएँ उनके जीवनमें एकदो नहीं, पग-पगपर और जीवनके अन्ततक होती दीखती हैं; उनकी गणना कौन करे ? पर इनमें ट्रान्सवाल (दक्षिण अफ्रीका) की एक घटना बड़ी मर्मस्पर्शी है। वह नीचे दी जाती है
जनवरी 1908 की बात है। ट्रान्सवालमें उपनिवेशवाद (भारतीयोंके वहाँ बसने न बसने) – का सत्याग्रह चल रहा था। कुछ लोगोंने मिलकर गांधीजीके एक पुराने मवक्किल मीर आलमको उनके विरुद्ध बहकाया और उनको मारनेके लिये ठीक किया। एक दिन वे फॉन ब्राडिस स्क्वायर स्थित एशियाटिक ऑफिसमें आम मार्गसे चले जा रहे थे। वे गिन्सनकी कोठीके पार ही हुए थे कि मीर आलम उनकी बगलमें आ गयाऔर उनसे पूछा, ‘कहाँ जाते हो?’ गांधीजीने पहले दिनके दिये भाषणके अनुसार बतलाया कि ‘मैं दस अंगुलियोंकी निशानी देकर रजिष्ट्रीका सर्टिफिकेट लेने जा रहा हूँ। अगर तुम भी चलो तो तुम्हें दसों अंगुलियोंकी निशानी न देकर केवल दोनों अंगूठेकी निशानी देनेपर ही पहले सर्टिफिकेट दिलवा दूँ।’ गांधीजी अभी यह कह ही रहे थे कि इतनेमें उसने ताबड़तोड़ उनके सिरपर लाठी बरसाना आरम्भ किया। गांधीजी तो पहली लाठीमें ही ‘हे राम’ कहकर गिर पड़े और बेहोश हो गये। गिरते समय उनका शिरोभाग एक नुकीले पत्थरपर गिरा; परिणामतः ऊपरका ओठ और ठुड्डी बुरी तरह फट गयी, एक दाँत टूट गया। दूसरे नुकीले पत्थरसे ललाट फटा और तीसरेसे आँख इतनेपर भी आलम और उसके साथी गाँधीजीको लाठियों और लातोंसे मारते ही रहे। उनमेंसे कुछ इसप मियाँ और थम्बी नायडूको भी लगे।
शोर हुआ। गोरे आ गये। आलम और उसके साथी भागने लगे। पर गोरोंने उन्हें पकड़ लिया। गांधीजीको लोग मि0 गिप्सनके दफ्तरमें ले गये। होश आते ही उन्होंने पूछा- ‘मीर आलम कहाँ है?’ रेवरेंड डोक उनके पास थे। उन्होंने बतलाया ‘वह और उसके सभी साथी पकड़ लिये गये हैं।’ गांधीजीने तुरंत |कहा – ‘उन्हें छूटना चाहिये।’ लोगोंने लाख समझाया कि अभी इतनी क्या जल्दी है, अभी आप आराम करें; पर गांधीजीने एक न सुनी और ऐटर्नी जेनरलके नाम तुरंत तार भेजा—’मीर आलम और उनके साथियोंने मेरे ऊपर जो हमला किया, उसके लिये मैं उन्हें दोषी नहीं मानता। उनपर फौजदारी मुकदमा न चलाकर मेरी खातिर उन्हें तुरंत छोड़ दिया जाय।’ इस तारके उत्तरमें वे छोड़ दिये गये।
पर जोहान्सबर्गके गोरोंने तुरंत ऐटर्नी-जेनरलको एक कड़ा पत्र लिखा – ‘गांधीजीके निजी विचार यहाँ नहीं चल सकते। अपराधियोंने उन्हें सरेआम बीच रास्तेमें मारा है। यह सार्वजनिक अपराध है। अपराधियोंको | पकड़ना ही होगा।’ फलतः वे पुन: पकड़ लिये गये। गांधीजीकी छुड़ानेकी चेष्टाके बावजूद उन्हें तीन मासकी सख्त सजा मिली।
मुश्किलसे चार महीने बीते होंगे। जुलाईकी एक सभामें मीर आलमको गांधीजीने देखा। उसने सभामें अपनी भूल स्वीकार की और उनसे क्षमा माँगी। गांधीजीने उसका हाथ पकड़ लिया और बड़े स्नेहसे उसे दबाते हुए कहा ‘मैंने तुम्हारे विरुद्ध कभी कुछ नहीं सोचा। इसमें तो तुम्हारा कोई अपराध था ही नहीं। तुम बिलकुल निश्चिन्त रहो।
‘ -जा0 श0