बहुत पहले अयोध्यामें एक राजा रहते थे ऋतध्वज महाराज रुक्माङ्गद इनके ही पुत्र थे। ये बड़े प्रतापी और धर्मात्मा थे। इनकी एक अत्यन्त पतिव्रता पत्नी थी विन्ध्यावती। उनके गर्भसे जन्म हुआ था धर्माङ्गदका, जो पितृभक्तोंमें सर्वप्रथम तथा अन्य धर्मो में अपने पिताके ही तुल्य थे। महाराज रुक्माङ्गदको एकादशी व्रत प्राणोंसे भी प्यारा था। उन्होंने अपने समस्त राज्यमें घोषणा करा दी थी कि जो एकादशी व्रत न करेगा, यह दण्डका भागी होगा। इसलिये उनके राज्यमें आठसे लेकर अस्सी वर्षतकके सभी बालक वृद्ध पुरुष-स्त्री श्रद्धापूर्वक एकादशी व्रतका अनुष्ठान करते थे। केवल कुछ रोगी, गर्भिणी स्त्रियाँ आदि इसके अपवाद थे। इस व्रतके प्रतापसे उनके समयमें कोई भी यमपुरी नहीं जाता था। यमपुरी सूनी हो गयी। यमराज इससे बड़े चिन्तित हुए। वे प्रजापति ब्रह्माके पास गये और उन्हें यमपुरीके उजाड़ होनेका तथा अपनी बेकारीका समाचारसुनाया। ब्रह्माजीने उन्हें शान्त रहनेका उपदेश दिया। यमराजके बहुत प्रयत्न करनेपर मायाकी एक मोहिनी नामकी स्त्री शिकारके लिये वनमें गये हुए राजाके पास गयी। उसने राजा रुक्माङ्गदको अपने वशमें कर लिया। राजाने उससे विवाह करना चाहा; तब उसने कहा कि ‘मेरी एक शर्त यह है कि मैं जो कुछ भी कहूँ, वही आपको करना पड़ेगा।’ महाराज तो मोहसे बेहोश थे ही, फिर न करनेकी तो बात ही कहाँ थी उसको लेकर वे राजधानी लौटे। राजकुमार धर्माङ्गदने बड़े उत्साहके साथ दोनोंका स्वागत किया। विन्ध्यावतीने भी अपनी सौतकी सेवा आरम्भ की और बिना किसी मानसिक क्लेशके अपनेको सेविका-जैसी मानकर वह मोहिनीकी टहलमें लग गयी।
अन्तमें एकादशी भी आ गयी। शहरमें ढिंढोरा पीटा जाने लगा- ‘कल एकादशी है; सावधान, कोई भूलसे अन्न न ग्रहण कर ले। सावधान!’ मोहिनीके कानों में येशब्द पहुँचे। उसने महाराजसे पूछा, ‘महाराज ! यह क्या है ?’ रुक्माङ्गदने सारी परिस्थिति बतलायी और स्वयं भी व्रत करनेके लिये तत्पर होने लगे ।
मोहिनीने कहा- ‘महाराज, मेरी एक बात माननी होगी।’ रुक्माङ्गदने कहा—’यह तो मेरी प्रतिज्ञा ही की हुई है।’
‘तब आप एकादशी व्रत न करें।’ मोहिनी बोल गयी। महाराज तो अवाक् रह गये उन्होंने बड़े कष्टसे कहा – ‘मोहिनी ! मैं तुम्हारी सारी बातें तो मान सकता हूँ और मानता ही हूँ; किंतु देवि ! मुझसे एकादशी व्रत छोड़नेके लिये मत कहो। यह मेरे लिये नितान्त असम्भव है।’
मोहिनीने कहा- ‘यह तो हो ही नहीं सकता। आपने इस ढंगकी प्रतिज्ञा की है । अतएव आप की हुई प्रतिज्ञासे कैसे टल सकते हैं।’
रुक्माङ्गदने कहा—’तुम किसी भी शर्तपर मुझे इसे करनेकी आज्ञा दो।’ मोहिनीने कहा- ‘यदि ऐसी ही बात है तो आपअपने हाथों धर्माङ्गदका सिर काटकर मुझे दे दीजिये।’ इसपर रुक्माङ्गद बड़े दुःखी हुए। धर्माङ्गदको जब यह बात मालूम हुई, तब उन्होंने अपने पिताको समझाया और वे इसके लिये तैयार हो गये। उन्होंने कहा- ‘मेरे लिये तो इससे बढ़कर कोई सौभाग्यका अवसर ही नहीं आ सकता।’ उसकी माता रानी विन्ध्यावतीने भी इसका अनुमोदन कर दिया।
सभी तैयार हो गये। महाराजने ज्यों ही तलवार चलायी, पृथ्वी काँप उठी; साक्षात् भगवान् वहाँ आविर्भूत हो गये और उनका हाथ पकड़ लिया। वे धर्माङ्गद, महाराज तथा विन्ध्यावतीको अपने साथ ही अपने श्रीधामको ले गये।
कामके वश होकर बिना विचारे प्रतिज्ञा करनेका क्या कुफल होता है और पिता तथा पतिके लिये सुपुत्र तथा सती स्त्री क्या कर सकती है एवं भगवान्की कृपा इनपर कैसे बरसती है, इसका यह ज्वलन्त उदाहरण है।
-जा0 श0
(बृहन्नारदीय पुराण, उत्तरभाग 1 – 40 )
बहुत पहले अयोध्यामें एक राजा रहते थे ऋतध्वज महाराज रुक्माङ्गद इनके ही पुत्र थे। ये बड़े प्रतापी और धर्मात्मा थे। इनकी एक अत्यन्त पतिव्रता पत्नी थी विन्ध्यावती। उनके गर्भसे जन्म हुआ था धर्माङ्गदका, जो पितृभक्तोंमें सर्वप्रथम तथा अन्य धर्मो में अपने पिताके ही तुल्य थे। महाराज रुक्माङ्गदको एकादशी व्रत प्राणोंसे भी प्यारा था। उन्होंने अपने समस्त राज्यमें घोषणा करा दी थी कि जो एकादशी व्रत न करेगा, यह दण्डका भागी होगा। इसलिये उनके राज्यमें आठसे लेकर अस्सी वर्षतकके सभी बालक वृद्ध पुरुष-स्त्री श्रद्धापूर्वक एकादशी व्रतका अनुष्ठान करते थे। केवल कुछ रोगी, गर्भिणी स्त्रियाँ आदि इसके अपवाद थे। इस व्रतके प्रतापसे उनके समयमें कोई भी यमपुरी नहीं जाता था। यमपुरी सूनी हो गयी। यमराज इससे बड़े चिन्तित हुए। वे प्रजापति ब्रह्माके पास गये और उन्हें यमपुरीके उजाड़ होनेका तथा अपनी बेकारीका समाचारसुनाया। ब्रह्माजीने उन्हें शान्त रहनेका उपदेश दिया। यमराजके बहुत प्रयत्न करनेपर मायाकी एक मोहिनी नामकी स्त्री शिकारके लिये वनमें गये हुए राजाके पास गयी। उसने राजा रुक्माङ्गदको अपने वशमें कर लिया। राजाने उससे विवाह करना चाहा; तब उसने कहा कि ‘मेरी एक शर्त यह है कि मैं जो कुछ भी कहूँ, वही आपको करना पड़ेगा।’ महाराज तो मोहसे बेहोश थे ही, फिर न करनेकी तो बात ही कहाँ थी उसको लेकर वे राजधानी लौटे। राजकुमार धर्माङ्गदने बड़े उत्साहके साथ दोनोंका स्वागत किया। विन्ध्यावतीने भी अपनी सौतकी सेवा आरम्भ की और बिना किसी मानसिक क्लेशके अपनेको सेविका-जैसी मानकर वह मोहिनीकी टहलमें लग गयी।
अन्तमें एकादशी भी आ गयी। शहरमें ढिंढोरा पीटा जाने लगा- ‘कल एकादशी है; सावधान, कोई भूलसे अन्न न ग्रहण कर ले। सावधान!’ मोहिनीके कानों में येशब्द पहुँचे। उसने महाराजसे पूछा, ‘महाराज ! यह क्या है ?’ रुक्माङ्गदने सारी परिस्थिति बतलायी और स्वयं भी व्रत करनेके लिये तत्पर होने लगे ।
मोहिनीने कहा- ‘महाराज, मेरी एक बात माननी होगी।’ रुक्माङ्गदने कहा—’यह तो मेरी प्रतिज्ञा ही की हुई है।’
‘तब आप एकादशी व्रत न करें।’ मोहिनी बोल गयी। महाराज तो अवाक् रह गये उन्होंने बड़े कष्टसे कहा – ‘मोहिनी ! मैं तुम्हारी सारी बातें तो मान सकता हूँ और मानता ही हूँ; किंतु देवि ! मुझसे एकादशी व्रत छोड़नेके लिये मत कहो। यह मेरे लिये नितान्त असम्भव है।’
मोहिनीने कहा- ‘यह तो हो ही नहीं सकता। आपने इस ढंगकी प्रतिज्ञा की है । अतएव आप की हुई प्रतिज्ञासे कैसे टल सकते हैं।’
रुक्माङ्गदने कहा—’तुम किसी भी शर्तपर मुझे इसे करनेकी आज्ञा दो।’ मोहिनीने कहा- ‘यदि ऐसी ही बात है तो आपअपने हाथों धर्माङ्गदका सिर काटकर मुझे दे दीजिये।’ इसपर रुक्माङ्गद बड़े दुःखी हुए। धर्माङ्गदको जब यह बात मालूम हुई, तब उन्होंने अपने पिताको समझाया और वे इसके लिये तैयार हो गये। उन्होंने कहा- ‘मेरे लिये तो इससे बढ़कर कोई सौभाग्यका अवसर ही नहीं आ सकता।’ उसकी माता रानी विन्ध्यावतीने भी इसका अनुमोदन कर दिया।
सभी तैयार हो गये। महाराजने ज्यों ही तलवार चलायी, पृथ्वी काँप उठी; साक्षात् भगवान् वहाँ आविर्भूत हो गये और उनका हाथ पकड़ लिया। वे धर्माङ्गद, महाराज तथा विन्ध्यावतीको अपने साथ ही अपने श्रीधामको ले गये।
कामके वश होकर बिना विचारे प्रतिज्ञा करनेका क्या कुफल होता है और पिता तथा पतिके लिये सुपुत्र तथा सती स्त्री क्या कर सकती है एवं भगवान्की कृपा इनपर कैसे बरसती है, इसका यह ज्वलन्त उदाहरण है।
-जा0 श0
(बृहन्नारदीय पुराण, उत्तरभाग 1 – 40 )