संसार-चक्र
एक ब्राह्मण किसी विशाल वनमें घूम रहा था। वह चलता-चलता एक दुर्गम स्थानमें जा पहुंचा। उसे सिंह, व्याघ्र, हाथी और रीछ आदि भयंकर जन्तुओंसे भरा देखकर उसका हृदय बहुत ही घबरा उठा उसे रोमांच हो आया और मनमें बड़ी उथल-पुथल होने लगी। उस वनमें इधर-उधर दौड़कर उसने बहुत ढूंढा कि कहीं कोई सुरक्षित स्थान मिल जाय. परंतु वह न तो वनसे निकलकर दूर ही जा सका और न उन जंगली जीवोंसे त्राण ही पा सका। इतनेहीमें उसने देखा कि वह भीषण वन सब ओर जालसे घिरा हुआ है। एक अत्यन्त भयानक स्त्रीने उसे अपनी भुजाओंसे घेर लिया है तथा पर्वतके समान ऊँचे पाँच सिरवाले नाग भी उसे सब ओरसे घेरे हुए हैं। उस बनके बीचमें झाड़-झंखाड़ोंसे भरा हुआ एक गहरा कुआँ था। वह ब्राह्मण इधर-उधर भटकता उसीमें गिर गया, किंतु लताजाल में फँसकर वह ऊपरको पैर और नीचेको सिर किये बीचहीमें लटक गया।
इतनेहीमें कुएँके भीतर उसे एक बड़ा भारी सर्प दिखायी दिया और ऊपरकी ओर उसके किनारेपर एक विशालकाय हाथी दीखा। उसके शरीरका रंग सफेद और काला था तथा उसके छः मुख और बारह पैर थे। वह धीरे-धीरे उस कुएँकी ओर ही आ रहा था। कुएँके किनारेपर जो वृक्ष था, उसकी शाखाओंपर तरह-तरहकी मधुमक्खियोंने छत्ता बना रखा था। उससे मधुकी कई धाराएँ गिर रही थीं। मधु तो स्वभावसे ही सब लोगोंको प्रिय है। अतः वह कुएँमें लटका हुआ पुरुष भी इन मधुकी धाराओंको ही पीने लगा था। इस संकटके समय भी उन्हें पीते-पीते उसकी तृष्णा शान्त नहीं हुई और न उसे अपने ऐसे जीवनके प्रति वैराग्य ही हुआ। जिस वृक्षके सहारे वह लटका हुआ था, उसे रात-दिन काले और सफेद चूहे काट रहे थे। इस प्रकार इस स्थितिमें उसे कई प्रकारके भयोंने घेर रखा था। वनकी सीमाके पास हिंसक जन्तुओंसे और अत्यन्त उग्ररूपा स्त्रीसे भय था, कुएँके नीचे नागसे और ऊपर हाथीसे आशंका थी, पाँचवाँ भय चूहोंके काट देनेपर वृक्षसे गिरनेका था और छठा भय मधुके लोभके कारण मधुमक्खियोंसे भी था। इस प्रकारकी उस विषम दशामें पड़कर भी वह वहीं डटा हुआ था तथा जीवनकी आशा बनी रहनेसे उसे मधुके आस्वादनसे वैराग्य भी नहीं होता था।
मोक्षतत्त्वके विद्वानोंने यह एक दृष्टान्त कहा है। इसे समझकर धर्मका आचरण करनेसे मनुष्य परलोकमें सुख पा सकता है। यह जो विशाल वन कहा गया है, वह यह विस्तृत संसार है। इसमें जो दुर्गम जंगल बताया है, वही इस संसारकी गहनता है। इसमें जो बड़े-बड़े हिंस्र जीव बताये गये हैं, वे तरह-तरहकी व्याधियाँ हैं तथा इसकी सीमापर जो बड़े डील-डौलवाली स्त्री है, वह वृद्धावस्था है, जो मनुष्यके रूप-रंगको बिगाड़ देती है। उस वनमें जो कुआँ है, वह मनुष्यदेह है। उसमें नीचेकी ओर जो नाग बैठा हुआ है, वह स्वयं काल ही है। वह समस्त देहधारियोंको नष्ट कर देनेवाला और उनके सर्वस्वको हड़प जानेवाला है। कुएँके भीतर जो लता है, जिसके तन्तुओंमें यह मनुष्य लटका हुआ है, वह इसके जीवनकी आशा है तथा ऊपरकी ओर जो छः मुँहवाला हाथी है, वह सम्वत्सर है। छः ऋतुएँ उसके मुख हैं तथा बारह महीने पैर हैं। उस वृक्षको जो चूहे काट रहे हैं, उन्हें रात-दिन कहा गया है तथा मनुष्यकी जो तरह-तरहकी कामनाएँ हैं, वे मधुमक्खियाँ हैं। मक्खियोंके छत्तेसे जो मधुकी धाराएँ चू रही हैं, उन्हें भोगोंसे प्राप्त होनेवाले रस समझो, जिनमें कि अधिकांश मनुष्य डूबे रहते हैं। बुद्धिमान् लोग संसार-चक्रकी गतिको ऐसा ही समझते हैं। तभी वे वैराग्यरूपी तलवारसे इसके पाशोंको काटते हैं। [ महाभारत ]
संसार-चक्र
एक ब्राह्मण किसी विशाल वनमें घूम रहा था। वह चलता-चलता एक दुर्गम स्थानमें जा पहुंचा। उसे सिंह, व्याघ्र, हाथी और रीछ आदि भयंकर जन्तुओंसे भरा देखकर उसका हृदय बहुत ही घबरा उठा उसे रोमांच हो आया और मनमें बड़ी उथल-पुथल होने लगी। उस वनमें इधर-उधर दौड़कर उसने बहुत ढूंढा कि कहीं कोई सुरक्षित स्थान मिल जाय. परंतु वह न तो वनसे निकलकर दूर ही जा सका और न उन जंगली जीवोंसे त्राण ही पा सका। इतनेहीमें उसने देखा कि वह भीषण वन सब ओर जालसे घिरा हुआ है। एक अत्यन्त भयानक स्त्रीने उसे अपनी भुजाओंसे घेर लिया है तथा पर्वतके समान ऊँचे पाँच सिरवाले नाग भी उसे सब ओरसे घेरे हुए हैं। उस बनके बीचमें झाड़-झंखाड़ोंसे भरा हुआ एक गहरा कुआँ था। वह ब्राह्मण इधर-उधर भटकता उसीमें गिर गया, किंतु लताजाल में फँसकर वह ऊपरको पैर और नीचेको सिर किये बीचहीमें लटक गया।
इतनेहीमें कुएँके भीतर उसे एक बड़ा भारी सर्प दिखायी दिया और ऊपरकी ओर उसके किनारेपर एक विशालकाय हाथी दीखा। उसके शरीरका रंग सफेद और काला था तथा उसके छः मुख और बारह पैर थे। वह धीरे-धीरे उस कुएँकी ओर ही आ रहा था। कुएँके किनारेपर जो वृक्ष था, उसकी शाखाओंपर तरह-तरहकी मधुमक्खियोंने छत्ता बना रखा था। उससे मधुकी कई धाराएँ गिर रही थीं। मधु तो स्वभावसे ही सब लोगोंको प्रिय है। अतः वह कुएँमें लटका हुआ पुरुष भी इन मधुकी धाराओंको ही पीने लगा था। इस संकटके समय भी उन्हें पीते-पीते उसकी तृष्णा शान्त नहीं हुई और न उसे अपने ऐसे जीवनके प्रति वैराग्य ही हुआ। जिस वृक्षके सहारे वह लटका हुआ था, उसे रात-दिन काले और सफेद चूहे काट रहे थे। इस प्रकार इस स्थितिमें उसे कई प्रकारके भयोंने घेर रखा था। वनकी सीमाके पास हिंसक जन्तुओंसे और अत्यन्त उग्ररूपा स्त्रीसे भय था, कुएँके नीचे नागसे और ऊपर हाथीसे आशंका थी, पाँचवाँ भय चूहोंके काट देनेपर वृक्षसे गिरनेका था और छठा भय मधुके लोभके कारण मधुमक्खियोंसे भी था। इस प्रकारकी उस विषम दशामें पड़कर भी वह वहीं डटा हुआ था तथा जीवनकी आशा बनी रहनेसे उसे मधुके आस्वादनसे वैराग्य भी नहीं होता था।
मोक्षतत्त्वके विद्वानोंने यह एक दृष्टान्त कहा है। इसे समझकर धर्मका आचरण करनेसे मनुष्य परलोकमें सुख पा सकता है। यह जो विशाल वन कहा गया है, वह यह विस्तृत संसार है। इसमें जो दुर्गम जंगल बताया है, वही इस संसारकी गहनता है। इसमें जो बड़े-बड़े हिंस्र जीव बताये गये हैं, वे तरह-तरहकी व्याधियाँ हैं तथा इसकी सीमापर जो बड़े डील-डौलवाली स्त्री है, वह वृद्धावस्था है, जो मनुष्यके रूप-रंगको बिगाड़ देती है। उस वनमें जो कुआँ है, वह मनुष्यदेह है। उसमें नीचेकी ओर जो नाग बैठा हुआ है, वह स्वयं काल ही है। वह समस्त देहधारियोंको नष्ट कर देनेवाला और उनके सर्वस्वको हड़प जानेवाला है। कुएँके भीतर जो लता है, जिसके तन्तुओंमें यह मनुष्य लटका हुआ है, वह इसके जीवनकी आशा है तथा ऊपरकी ओर जो छः मुँहवाला हाथी है, वह सम्वत्सर है। छः ऋतुएँ उसके मुख हैं तथा बारह महीने पैर हैं। उस वृक्षको जो चूहे काट रहे हैं, उन्हें रात-दिन कहा गया है तथा मनुष्यकी जो तरह-तरहकी कामनाएँ हैं, वे मधुमक्खियाँ हैं। मक्खियोंके छत्तेसे जो मधुकी धाराएँ चू रही हैं, उन्हें भोगोंसे प्राप्त होनेवाले रस समझो, जिनमें कि अधिकांश मनुष्य डूबे रहते हैं। बुद्धिमान् लोग संसार-चक्रकी गतिको ऐसा ही समझते हैं। तभी वे वैराग्यरूपी तलवारसे इसके पाशोंको काटते हैं। [ महाभारत ]