श्री द्वारिकाधीश भाग -10

यहाँ अश्व भड़क उठा है। यह भयभीत हो गया था किसी कारण किन्तु लगता है कि प्रसेन को वह भय नहीं दीख पड़ा। वह बलपूर्वक अश्व को रोकता रहा है-आखेट के लक्षणज्ञों ने एक स्थान पर रुककर कहा। श्रीकृष्ण के साथ का यह सम्पूर्ण दल अश्वारोही था। वहाँ से थोड़ी दूरी से दुर्गन्ध उठ रही थी। गृद्ध उड़ते दीखे। समीप जाने पर प्रसेन का शव मिला उसके घोड़े के शव के साथ। दोनों शव मांसभक्षी पशुपक्षियों ने विकृत कर दिये थे।

‘इनको सिंह ने मारा है’ सिंह के रक्त ने पंजों के चिह्न स्पष्ट थे। वे चिह्न न होते तो प्रसेन को तो केवल वस्त्रों से पहिचानना पड़ा था। उसके तथा अश्व के कंकाल में मांस का अंश बहुत थोड़ा बचा था।

‘मणि का क्या हुआ?’ श्रीकृष्ण चन्द्र ने पूछा। वहाँ शव-कंकाल के वस्त्रों, अंगों पर या आस पास मणि नहीं है, यह उन दोनों व्यक्तियों ने देख लिया- ‘कोई गीध या चील मांसखण्ड समझकर ले उड़ी हो तो?’ एक नागरिक ने संदेह किया।
‘मणि केसरी ले गया है।’ एक चिह्न सूचक ने पृथ्वी की ओर देखते कहा- ‘उसके अगले पंजे में मणि है, यह चिह्न से स्पष्ट है’ केसरी ने रक्ताक्त लाल मणि को मांसखण्ड माना हो, इसमें आश्चर्य की बात नहीं थी।

एक अश्वारोही द्वारिका भेजा गया सत्राजित को समाचार देने कि वे अपने भाई का शव संस्कार करने के लिये मँगा लें। एक व्यक्ति को शव के समीप छोड़कर शेष लोग सिंह के पद चिह्नों के पीछे चल पड़े। सिंह पर्वत पर चढ़ता गया था। अश्व छोड़ देने पड़े एक के संरक्षण में। पर्वत के शिखर पर सिंह का शव मिल गया। उसके शव की भी वही दशा थी जो पहिले दोनों शवों की। उसे भी पक्षियों तथा पशुओं ने नोंच खाया था। मणि वहाँ भी नहीं मिली।

‘इसे तो किसी असाधारण आकार वाले रीछ ने मारा है’ चिह्न देखने वालों ने सिंह के पंजों में रीछ के केशों का एक गुच्छा देख लिया- ‘वह रीछ इसे मारकर मणि ले गया’ रीछ कुछ पद चारों पैरों हाथ-पैर दोनों से चला था। इसके पश्चात वह केवल पैरों से गया था। उसके पैर रक्त सने न होते तो पर्वत पर वह किधर गया, यह पता भी नहीं लगता। उन चिह्नों का पीछा करते हुए पर्वत शिखर से कुछ नीचे दूसरी दिशा में उतरना पड़ा और वहाँ वे चिह्न एक बहुत गहरी अन्धकारपूर्ण गुफा में चले गये थे।
‘लगता है यही रीछ का निवास है’ चिह्न देखने वाले गुफा-द्वार तक आकर रुक गये ‘ये चिह्न पैरों के इतने बड़े हैं और इतनी दूर-दूर पड़े हैं कि रीछ कितना बड़ा होगा, अनुमान करना कठिन है। कोई पर्वताकार रीछ होना चाहिये। इतना भारी रीछ सुनने में भी नहीं आया’
‘आप सब यहीं रुकें और मेरी प्रतीक्षा करें’ श्रीकृष्णचन्द्र ने सबसे कहा।
‘क्या आवश्यकता है?’ साथ का कोई भी नहीं चाहता था कि श्रीद्वारिकाधीश उस गुफा में प्रवेश करें।

‘यह तो स्पष्ट है कि मणि वह रीछ ही ले गया है। ऐसा रीछ जिसने सिंह को बिना कोई बड़ा संघर्ष किये मारा है। उस दानवाकार रीछ की इस भयानक अन्धकार भरी गुफा में जाना उचित नहीं है। आपने मणि नहीं लिया, यह तो अब स्पष्ट हो चुका है’
‘आप सबको यहाँ कष्ट होगा। इनमें-से एक सेवक नगर तक जायेगा। वह आप सबके यहाँ रुकने, आहारादि की व्यवस्था कर देगा’ श्रीकृष्णचन्द्र ने कहा- ‘उस असाधारण मणि की हानि नहीं होनी चाहिये। प्रजा की सम्पत्ति की रक्षा का दायित्व होता है राज पर और मैं महाराज उग्रसेन का भृत्य ही तो हूँ। मुझे यह कर्तव्य पालन करना चाहिये’

श्रीकृष्णचन्द्र सबके मना करने पर भी उस भयानक गुफा में प्रविष्ट हो गये। लोगों ने इतनी दूर नगर में किसी को नहीं भेजा। वे वहीं प्रतीक्षा करने लगे। अब आते हैं, अब आते हैं, अब आते हैं। प्रतीक्षा करते-करते दिन बीता- रात्रि बीती और फिर दिन बीतने लगा।

साथ आये लोग योद्धा नहीं थे।
वे वृद्ध थे, विद्वान थे। नागरिकों में सम्मानित जन थे। केवल दो वन के विशेषज्ञ चिह्नसूचक उनके साथ थे। उनमें-से एक को नगर में भेज दें और यहाँ कोई आवश्यकता आ पड़े तो? ये दोनों वन से फल, कन्द, आदि कुछ ला देते थे। वहीं शिला पर पत्ते बिछा दिये थे सबके लिये दोनों ने। जल समीप था और ग्रीष्म ऋतु में रात्रि खुले स्थान पर काटना कठिन नहीं था। दिन में समीप ही सघन वृक्ष की छाया थी। मनुष्य विवश है, उसे उदर की क्षुधा-पिपासा शान्त करनी ही पड़ती है। निद्रा देवी भी कुछ देर को उसे अपनी गोद में न चाहने पर भी ले ही लेती है किन्तु प्राण अटके थे गुफा में गये भगवान वासुदेव में। वे अकेले गये। वे भगवान हैं, सर्वसमर्थ हैं किन्तु अन्धकार से आच्छन्न गुफा। उसमें कोई असाधारण आकार का रीछ। पता नहीं, वह अकेला है या उसका परिवार भी है भीतर।
भय, आशंका, दुःख से लोग प्रतीक्षा करते रहे।

पूरे बारह दिन प्रतीक्षा की उन्होंने किन्तु श्रीकृष्ण नहीं निकले गुफा से। पहिले दिन ही गुफा के भीतर से भयानक शब्द आने लगा। जैसे भीतर कोई बहुत भारी वस्तु निरन्तर पटकी जा रही हो और साथ ही कोई क्रोध में भरा गर्जना कर रहा हो- गुर्रा रहा हो। रात-दिन वह भयानक शब्द और गुर्राहट आती रही। उसने रुकने का नाम नहीं लिया है। पता नहीं, गुफा में क्या हो रहा है। सत्राजित ने सन्देश पाकर अपने भाई के शव का कंकाल आकर उठाया। बहुत थोड़े स्वजन उसके साथ आये। भाई का संस्कार किया जाना उसने- सविधि अन्तेष्टि किन्तु द्वारिका में उसके स्वजनों में भी गिने लोग सम्मिलित हुए। लोग सत्राजित के सम्मुख ही उसे गालियाँ देने लगे थे। उसे अर्थ-पिशाच कहा जाने लगा था। उसने श्रीद्वारिकाधीश पर आक्षेप किया, यह सबकी दृष्टि में कभी क्षमा न करने योग्य अपराध हो गया। भगवान बलराम का सन्देश आ गया कि प्रजाजनों को नगर में आ जाना चाहिये।
(क्रमश:)

🚩जय श्रीराधे कृष्णा🚩



The horse has flared up here. It was frightened for some reason but it seems that Prasen did not see that fear. He has been stopping the horse forcefully – said the experts of the game, stopping at one place. This entire team accompanying Shri Krishna was horsemen. The foul smell was rising from a short distance from there. Vultures were seen flying. On going near, Prasen’s body was found along with the body of his horse. Both the dead bodies were mutilated by carnivorous animals and birds.

‘The lion has killed him’ The claw marks were clear in the blood of the lion. If those signs were not there, Prasen had to be identified only by clothes. There was very little flesh left in his and the horse’s skeleton.

‘What happened to Mani?’ Sri Krishna Chandra asked. There is no gem on the clothes, organs or around the body-skeleton, both of those people saw it – ‘What if a vulture or an eagle has taken it away mistaking it for a piece of meat?’ A citizen doubted. ‘Mani Kesari has taken away.’ A sign indicator looking at the earth said – ‘He has a gem in his fore paw, it is clear from the sign’ It was not surprising that Kesari considered the blood-stained red gem as a piece of flesh.

A horse rider was sent to Dwarka to inform Satrajit that he should ask for his brother’s dead body for cremation. Leaving one person near the dead body, the rest followed Singh’s footprints. The lion kept climbing the mountain. Had to leave the horse under the protection of one. The body of a lion was found on the top of the mountain. His dead body was also in the same condition as the first two dead bodies. He was also scratched by birds and animals. The gem was not found there either.

‘He was killed by a bear of some extraordinary size’ Those who saw the sign saw a tuft of bear’s hair in the paws of the lion – ‘That bear killed him and took away the gem’ The bear walked a few steps with both hands and feet . After this he went only by feet. Had his feet not been stained with blood, it is not even known where he went on the mountain. Following those signs, had to descend a little below the mountain peak in another direction and there those signs had gone into a very deep dark cave. ‘It seems that this is the abode of the bear’ The people who saw the signs stopped at the entrance of the cave ‘These signs are so big of the feet and are lying so far apart that it is difficult to estimate how big the bear would be. Must be a mountain bear. Such a heavy bear was not even heard. ‘You all stay here and wait for me’ Shri Krishnachandra told everyone. ‘What is needed?’ No one wanted Sridwarikadhish to enter that cave.

‘It is clear that the bear has taken the gem. Such a bear which has killed the lion without any major struggle. It is not proper to go into this terrible dark cave of that giant bear. You didn’t take the gem, it’s clear now’ ‘You all will suffer here. One of these servants will go to the city. He will arrange for all of you to stay here, eat etc. ‘Shri Krishna Chandra said-‘ That extraordinary gem should not be harmed. The responsibility of protecting the property of the people rests on the king and I am only a servant of Maharaj Ugrasen. I must perform this duty’

Shri Krishnachandra entered that terrible cave even after everyone’s refusal. People did not send anyone to the city so far away. They waited there. Come now, come now, come now The day passed while waiting, the night passed and then the day began to pass.

The people who came along were not warriors. He was old, scholar. There were respectable people among the citizens. Only two expert marksmen of the forest accompanied them. Send one of them to the city and if any need arises here? Both of them used to bring fruits, tubers, etc. from the forest. Both had spread leaves on the same rock for everyone. Water was close by and it was not difficult to spend the night in the open in summer. There was shade of dense trees nearby during the day. Man is helpless, he has to calm the hunger and thirst of the stomach. Nidra Devi also takes him in her lap for some time even when he does not want to, but his life was stuck in Lord Vasudev who had gone to the cave. He went alone. He is God, omnipotent but a cave covered with darkness. A bear of extraordinary size in it. Don’t know, he is alone or his family is also inside. People kept waiting with fear, apprehension, sadness.

He waited for twelve whole days but Shri Krishna did not come out of the cave. On the very first day, terrible noises started coming from inside the cave. As if some very heavy object is continuously being slammed inside and at the same time someone is roaring in anger. Night and day that dreadful sound and growl kept coming. He has not taken the name of stopping. Don’t know what is happening in the cave. After getting the message, Satrajit came and picked up the skeleton of his brother’s dead body. Very few relatives came with him. Brother’s rites were performed by him – the ritual funeral, but in Dwarka, a number of his relatives also attended. People started abusing him in front of Satrajit. He came to be called the Earth-vampire. He attacked Sridwarikadhish, it became an unforgivable crime in everyone’s eyes. Lord Balram’s message came that the people should come to the city. (respectively)

🚩Jai Shri Radhe Krishna🚩

Share on whatsapp
Share on facebook
Share on twitter
Share on pinterest
Share on telegram
Share on email

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *