श्रीकृष्णचन्द्र द्वारिका में नहीं हैं। जरासन्ध तथा अनेक दूसरे शत्रु हैं यादवों के। अतः पुरी को छोड़कर श्रीसंकर्षण कहीं जा नहीं सकते। उनका सन्देश- ‘श्रीकृष्ण के लिये त्रिभुवन में कहीं कोई भय नहीं है। उनकी चिन्ता छोड़कर लोग लौट आवें’
बारह दिन-रात प्रतीक्षा करके वे लौट गये। अत्यन्त दुःख से, श्रीबलराम का आदेश स्वीकार करके लौटे और लौटकर मणि के अन्वेषण में उन्होंने जो कुछ देखा था, महाराज उग्रसेन की राजसभा में उपस्थित होकर सुना दिया। सत्राजित को बुलाकर राजसभा में सुनाया उन्होंने और सभी धिक्कारने लगे उसे। वह उठकर सिर झुकाये चुपचाप घर चला गया। उससे अपराध हो गया था किन्तु अब क्या उपाय था। उसके प्रति लोगों का आक्रोश उत्तरोत्तर बढ़ता जा रहा था।
स्यमन्तक मणि अत्यन्त प्रभावशाली सूर्यमणि, वह प्रसेन के लिए प्राणघातक बनी। वह सिंह के द्वारा मारा गया। सिंह उसे लेकर चला तो उसे भी मृत्यु ने मुख में रख लिया किन्तु जाम्बवन्त के लिये उन श्रीरघुनाथ के अनन्त भक्त के लिये मणि अशुभ नहीं हो सकती थी। सूर्यवंश शिरोमणि के सेवक के घर मणि आयी तो महामंगल लेकर ही आना था उसे। जाम्बवान उस दिन अपनी गुफा से घूमने निकले थे। सतयुग के उन दिव्यदेही को द्वापरान्त के छुद्र प्राणियों में कोई रुचि नहीं थी। वे कभी कदाचित एकान्त में ही निकलते थे गुफा से और घूम-घामकर भीतर चले जाते थे। उनकी गुफा भीतर बहुत विस्तृत थी। वहाँ पूरा प्रदेश ही था। केवल प्रकाश ही नहीं था, निर्झर था, फल-भार से लदा वन था और देवसदन के समान सुसज्जित दिव्य भवन था रीछपति का। गुफा तो वहाँ पहुँचने का केवल मार्ग थी।
वहाँ जाम्बवान का पूरा परिवार सुखपूर्वक रहता था। अनेक दिनों से जाम्बवान कुछ चिन्तित रहने लगे थे। उनकी देवकन्या सी कुमारी युवती हो गयी थी और उसके योग्य वर सोचकर भी दीख नहीं रहा था कहीं। देवता भोगपरायण हैं और दैत्य निसर्ग क्रूर।मर्यादा पुरुषोत्तम के सेवक को दोनों तुच्छ लगते थे। यद्यपि ब्रह्मलोक उनके पिता का लोक था और पाताल तक भी उनकी गति निर्वाध थी किन्तु किसी लोक के अधिपति को भी कन्या दान करना उन्हें अभीष्ट नहीं था।
‘कर्म लोक केवल धरा है। यहीं बार-बार निखिल लोकनियंता अवतार लेते हैं’ जाम्बवान ने देखा था श्रीराघवेन्द्र को और उन्हें जिन नेत्रों ने एक बार देख लिया, दूसरा कोई उसे कैसे जँच सकता है। जाम्बवान की कठिनाई उन्होंने स्वयं बढ़ा ली थी। श्रीरघुनाथ के स्वरूप, सौन्दर्य, पराक्रम, गुणगण गायन के व्यसनी थे वे।उन्हें अपने आराध्य के वर्णन के समय अपने तन-मन का स्मरण भी नहीं रहता था। उनकी कन्या ने शैशव से पिता के मुख से बार-बार यह वर्णन सुना था और वे हृदयहारी उसके अन्तर में आसीन हो गये थे। वही- अब वही चाहिये उसे। वह उनकी दासी दूसरे पुरुष की चर्चा भी वह सुनने को प्रस्तुत नहीं। वे सर्वज्ञ हैं, सर्वसमर्थ हैं, करुणावरुणालय हैं, भक्तवत्सल हैं, घट-घट वासी हैं। यह सब पिता ने ही तो कहा है। जाम्बवती जानती है कि उनके पिता का असत्य स्पर्श नहीं करता, तब वे अन्तर्यामी क्या उनके हृदय की नहीं जानते? वे सर्वसमर्थ वे अनन्त दया धाम, क्या उनको अपने सेवक की कन्या पर दया नहीं आवेगी? जाम्बवान क्या करें। उनके आराध्य मर्यादापुरुषोत्तम हैं और धरा पर तो वे त्रेता में थे। यह तो द्वापरान्त है।
पृथ्वी पर तो अब उपदेवताओं की रीछ जाति में अकेला जाम्बवान का परिवार ही रह गया। वानर उपदेवों में द्विविद बचा और वह संगदोष से असुर बन गया। श्रीहनुमान पता नहीं कहाँ हैं, वे मिल जाते तो उनसे जाम्बवान कुछ कहते-पूछते किन्तु वे अब पता नहीं कहाँ रहते होंगे। अकेले उदासीन पुत्री की समस्या से चिन्तित जाम्बवान अपने आराध्य का चिन्तन करते-करते उस दिन गुफा द्वार से पर्वत पर घूमने निकल आये थे।
‘यह मणि ऐसी प्रकाशमय मणि’ -सिंह पर्वत पर बैठकर पंजे से मणि को सम्मुख रखकर सूंघ रहा था। जाम्बवान की दृष्टि पड़ी। ऐसी मणियाँ तो उन्होंने केवल अयोध्या के राजसदन में देखी है। यह पशु कहाँ से ले आया इसे?
सहजभाव से मणि देखने जाम्बवन्त बढ़े थे किन्तु सिंह को लगा कि वे उसे छीनने आ रहे हैं। वह उत्तोजित होकर कूद पड़ा। उसे मार देना रीछपति के लिए अप्रयास सरल था। सिंह को मारकर मणि उठा ली उन्होंने और अपनी गुफा में लौट पड़े। उनके लिये मणि का कोई महत्त्व नहीं था। गुफा में आकर उनके परिवार के एक छोटे शिशु ने उस चमकीले पदार्थ को पाने के लिये हाथ उठाया तो जाम्बवान ने मणि उसे खेलने के लिये दे दी। शिशु को यह खिलौना इतना प्रिय लगा कि वह उसे साथ लिये फिरने लगा। मणि वह छोड़ना ही नहीं चाहता था। मणि भले वहाँ महत्त्वहीन हो गया हो, मणि का प्रभाव तो महत्त्वहीन नहीं हो गया था। मणि को ढूँढ़ते श्रीकृष्णचन्द्र गुफा में प्रविष्ट हुए। आगे बढ़ने पर पर्याप्त भीतर जाकर प्रकाश दिखलायी पड़ा और जब भीतर पहुँच गये, स्यमन्तक जैसा ज्योतिर्मय मणि क्या छिपा रहता है।
वह रीछ-शिशु के करों में था- उपदेव जाति के रीछ-शिशु के करों में। वह शिशु मणि से खेल रहा था। बालक को भयभीत नहीं करना था। उससे मणि छीनकर उसे दुःखी भी नहीं करना था। श्रीकृष्ण समीप जाकर खड़े हो गये। बालक इस खिलौने से ऊबकर इसे छोड़ दे तो उठा लें, इतना ही चाहते थे वे किन्तु बालक की धाय ने बालक के समीप एक अपिरिचित पुरुष को देखा तो डरकर चिल्ला पड़ी- ‘दौड़ो बचाओ पता नहीं, कौन आ गया। शिशु को पकड़ने आया यह।’
जाम्बवान दौड़ पड़े रोष में भरे, और आते ही उन्होंने उस अपरिचित पुरुष पर मुष्टि-प्रहार किया। श्रीकृष्णचन्द्र ने भी मुष्टि-प्रहार से ही उत्तर दिया। जाम्बवान भूल गये किन्तु ये नीलसुन्दर तो भूलते नहीं। त्रेता में इन रीछाधिप ने एक दिन श्रीरघुनाथ जी से कहा था- ‘मेरी द्वन्द्व-युद्ध की इच्छा लंका के युद्ध में भी अतृप्त ही रही। दशग्रीव भी मेरे आघात से मूर्च्छित हो गया।’
‘मैं ही कभी तम्हारी यह इच्छा तृप्त कर दूँगा’ -हँसकर राघवेन्द्र ने कह दिया था।
(क्रमश:)
🚩जय श्रीराधे कृष्णा🚩