उन्होंने कहा- ‘सब लोग अपने नेत्र बंद कर लें। तब तक बन्द रखें जब तक मेरा शंख नहीं बजता।’
श्रीकृष्णचंद्र का रथ पूरे वेग से गया। दूसरा कोई रथ विश्व में उसके समान गति नहीं पकड़ सकता और यादव-वाहिनी में तो रथ ही नहीं है, अश्व हैं, गज सेना और पदातिसेना भी है। इस सेना की सफलता तभी है जब यह श्रीकृष्णचन्द्र के विदर्भ पहुँचने से पूर्व उनके साथ मार्ग में मिल जायें लेकिन अनन्त-पराक्रम, भगवान अनन्त का संकल्प-ब्राह्मणों के उद्भव और प्रलय जिनके संकल्प से होते हैं, उनका संकल्प- समस्या कहाँ थी वहाँ कोई।
यादव सेना के सभी लोगों को लगा कि उन्होंने क्षण भर को नेत्र बन्द किये और श्रीसंकर्षण शंख गूँजने लगा। नेत्र खोलने पर कुछ क्षण लगा उन्हें यह समझने में कि विदर्भ की सीमा पर पहुँच गये हैं। उन्होंने नेत्र खोला और देखा कि गरुड़ध्वज रथ सामने ही है और खड़ा हो गया है।
‘तुम केवल राजकन्या को ले आओगे’ अग्रज ने कोई उलाहना नहीं दिया। आदेश दिया पहुँचते ही- ‘शेष सब हम सब पर छोड़ दो।’ ब्राह्मण देवता देखते ही रह गये। इतनी विशाल चतुरंगिणी सेना कब प्रस्तुत हुई? कब चली? किधर से कैसे आ गयी? वह भी तो द्वारिका से ही आ रहा है और ऐसे उड़ने वाले रथ में आया है।
श्रीकृष्णचन्द्र ने चकित ब्राह्मण की ओर सस्मित देखा- ‘हम सब कुण्डिनिपुर से बहुत दूर नहीं हैं। आप रथ से साथ चलेंगे?’ ‘नहीं आप मुझे यहीं उतार दें। मैं आपके यहाँ गया था, यह समाचार नगर में नहीं फैलना चाहिए। मैं पैदल भी अब शीघ्र पहुँच जाऊँगा।’ ब्राह्मण देवता वहीं रथ से उतर गये। एक अश्वारोही महाराज भीष्मक के पास चला गया समाचार देने कि उनकी कन्या का विवाह देखने द्वारिका से बलराम-श्रीकृष्ण आये हैं अपने परिकर के साथ।
रुको! आगे मत बढ़ो,- विदर्भ के ही सैनिकों के एक दल ने शस्त्र उठाकर साथियों को रोका- ‘राजकुमारी जिनके योग्य हैं, वे ही ले जा रहे हैं। हम पहिले से चाहते थे कि वे ले जायें। हम किसी को बाधक नहीं बनने देंगे।’
प्रारम्भ के आवेश में थोड़ा-सा युद्ध हुआ। विदर्भ के सैनिकों में ही दो दल हो गये थे किन्तु जो कन्या-हरण रोकना चाहते थे, वे संख्या में अल्प थे। उनमें भी उत्साह नहीं था। कुछ ही क्षणों में वे भी शान्त हो गये। किसी ने भी श्रीकृष्णचन्द्र के रथ का पीछा नहीं किया।
‘राजकन्या का हरण हो गया’ कुण्डिनपुर के सैनिकों के कोलाहल से जरासन्ध के सैनिकों का समाज भी सावधान हुआ। शीघ्रतापूर्वक वे उठे। अपने वस्त्र झाड़ने का भी स्मरण नहीं रहा। मुकुट-शिरस्त्राण सम्हाला, शस्त्र उठाया और वाहनों पर बैठकर झपटे किन्तु बहुत देर हो चुकी थी। इतने समय में तो यादवी सेना के व्यूहबद्ध शूरों ने पथावरोध कर लिया था।
श्रीसंकर्षण प्रलयंकर बन गये थे। वे जो भी वृक्ष पास मिलता, उखाड़कर शत्रुसेना पर पटकते जा रहे थे। रथ, गज, अश्व, पदाति जो सामने पड़ गया, उसका शव भी पहिचानने योग्य नहीं रह गया। श्रीकृष्णानुज गद ने रथ त्याग किया और गदा लेकर शत्रु-सेना में घुस पड़े। उनकी गदा प्रलय करने लगी। जरासन्ध आदि कइयों ने गद को घेर लिया किन्तु तभी श्रीबलराम अपना प्रज्वलित मुशल उठाये आ पहुँचे उनका पहिला ही आघात दन्तवक्र के मुख पर हुआ और उसका टेढ़ा दाँत टूटकर गिर पड़ा। उसके मुख से रक्त की धारा चलने लगी। मुशल ने बंगराज की कपाल-क्रिया कर दी। गरुड़ध्वज रथ वेग से द्वारिका की दिशा में जा रहा था किन्तु रुक्मिणी की दृष्टि पीछे लगी थी। इतने नरेश- इतनी भारी उनकी सेना- अब मन में आशंका उठी। द्वारिका के शूरों का समूह एकत्र होकर मार्गावरोध बन गया था किन्तु शत्रुओं की बाण-वर्षा में ढ़क गया यह समाज। रुक्मिणी भय से व्याकुल हो उठीं। उन्होंने लज्जापूर्ण, भयव्याकुल नेत्र पति की ओर उठाये।
दृष्टि ने कहा- ‘अपने तो सब घिर गये। संकट में हैं। अपका शांरग या चक्र……’ श्रीकृष्णचन्द्र हँस पड़े- ‘डरो मत तुमने कोई युद्ध भला क्यों देखा होगा। शत्रुओं की सेना तुम्हारे अपनों के लिए बहुत तुच्छ है। वे कुछ क्षणों में ही शत्रुओं का नाश कर देंगे।’
आश्वासन पर्याप्त नहीं होता किन्तु शत्रुदल सचमुच छिन्न होने लगा। वह सैनिकों का उमड़ता आता मेघ रुका, छिन्न-भिन्न हुआ और अदृश्य हो गया। रथ वेग में बढ़ता न होता तो रुक्मिणी सैनिकों, गजों, अश्वों का क्रन्दन, उनके शवों की राशियाँ, कटेफटे अंग- रक्त की बहुत दूर तक फैलकर बहती धार बहुत विचलित करती। यह दृश्य उनके देखने योग्य नहीं था।
जरासन्ध के साथ आये प्रायः सब सैनिक मारे गये। उसके साथ के राजाओं में भी कई मारे गये, कुछ घायल हुए। श्रीबलराम-श्रीकृष्ण के साथ युद्ध में सेना मरने लगे तो भागने में ही कुशलता समझी।
‘तुम तो पुरुष सिंह हो, यह उदासी तुम्हें शोभा नहीं देती।’ लौटकर जरासन्ध सीधे शिशुपाल के समीप पहुँचा। शिशुपाल वर बना बैठा था। वह न कन्या की देवी मन्दिर-यात्रा देखने जा सका और न युद्ध में गया। उसका मुख कान्तिहीन हो गया था। सूख गये अधर। वह इतना हताश- मुख लटकाये बैठा था, मानो काई स्वजन मर गया उसका। ‘मनुष्य अपना प्रिय पाने या अप्रिय से बचने में स्वाधीन नहीं है। कठपुतली जैसे खिलौने खेलने वाले के हाथ के संकेत के अनुसार चलने को विवश है, वैसे ही सब प्राणी जगन्नियन्ता के वश में है।’ मगधराज स्नेहपूर्वक समझाने लगा। शिशुपाल उसके लिये ज्येष्ठ-पुत्र है। उसका दुःखी होना जरासन्ध के लिये बहुत ही क्लेश देने वाला है।’
तुमने देखा ही है कि इन्हीं बलराम से मैं तेईस अक्षौहिणी सेना लेकर लड़ा और सत्रह बार पराजित हुआ। अन्तिम बार मुझे अठारहवें उद्योग में विजय मिली।’
(क्रमश:)
🚩जय श्रीराधे कृष्णा🚩