श्री लाला बाबू, भाग – 1

“मैं लाला बाबू ….अपनी वसीयत लिख रहा हूँ ….और इसी कामना से लिख रहा हूँ कि मेरी बातों का अक्षरशः पालन किया जाये ….मेरे पास जो भी है वो सब मेरे ठाकुर जी का है …इसलिये सम्पत्ति मेरे रिश्तेदारों को ना मिले ठाकुर जी के मन्दिर में ही उसका सदुपयोग हो । मेरी सम्पत्ति के मालिक मेरे ठाकुर जी हैं ना कि मेरे कोई रिश्तेदार ।”

वकील वसीयत पढ़ रहा था ….वो इतना पढ़कर रुक गया ….उनके नेत्र सजल हो गये ….फिर उसने रूमाल से अपने आँसु पोंछते हुए आगे पढ़ना शुरू कर दिया था ।

“मेरी मृत्यु के पश्चात् मेरे इस देह के लिए कोई विमान आदि न बनाया जाये ….न मुझे विमान में लेकर यमुना जी जाया जाये ….मेरी मृत्यु के पश्चात् मेरे इस देह को बृज रज में घसीटते हुए ले जायें …यही मेरी इच्छा है …”

परम भक्त लाला बाबू ने अपना शरीर त्याग दिया था …मन्दिर में ही उनके शरीर को रखा गया था ….चारों ओर भक्तों और सन्तों का हुजूम उमड़ पड़ा था …तब वकील ने आकर उनकी वसीयत सुनानी आरम्भ की थी ।

“जिस बृजरज के लिये बड़े बड़े देव तरसते हैं ….उस रज को छोड़ इस देह को विमान आदि में ले जाया जाए तो मेरे लिए ये अपराध की श्रेणी में आयेगा मेरी ऐसी भावना है ….इसलिये बृजरज में घसीटते हुए इस देह को ले जाया जाये । और हाँ , इस देह को जलाया न जाए इसको यमुना जी में प्रवाहित किया जाए ताकि यमुना जी में रहने वाले जीवों को भी आहार मिल जाये ।”

ये वसीयत सुनते ही वहाँ उपस्थित समस्त साधु सन्त बृजवासी “जय हो”, “लाला बाबू की जय हो “ सब बोलने लगे थे …और जैसी भावना थी लाला बाबू की उसी के अनुसार व्यवस्था की गयी लाला बाबू के अन्तिम यात्रा की ….रज में स्पर्श कराते हुए लाला बाबू के देह को ले जाया गया …..यमुना जी के किनारे उनके देह में सबनें रज डाला ….पूरा श्रीधाम वृन्दावन इनकी धाम निष्ठा और श्रीधाम के रज के प्रति इनकी अपार भाव से गदगद हो रहा था । श्रीधाम को ही इन्होंने अपना इष्ट समझा ….धाम और धामी में कोई भी भेद नही है ये इनका दृढ़ निश्चय था । आज भी “लाला बाबू का मन्दिर” श्रीधाम में अपना एक विशिष्ट स्थान रखता है ।

कलकत्ता शहर के धनीमानी व्यक्ति थे प्राणकृष्ण सिंह जी ….इनके कोई पुत्र नही था इनके परिवार में भगवान श्रीकृष्ण को आराध्य माना जाता था ….उड़ीसा के एक सिद्ध महात्मा इनके परिवार के गुरुदेव थे ….वे चैतन्य महाप्रभु के अनन्य भक्त थे ….उन्हीं की कृपा इनके परिवार के ऊपर निरन्तर बरसती रही थी । भगवान श्रीकृष्ण की आराधना महामन्त्र का जाप यही इनके गुरुदेव ने सिखाया था …इस सीख को सब बड़े प्रेम से पालन करते थे ।

एक दिन नवद्वीप होते हुए इनके सिद्ध गुरुदेव कलकत्ता अपने शिष्य के घर में पधारे थे तब प्राण कृष्ण सिंह जी की पत्नी के मुख मण्डल में उदासी देखी तो गुरुदेव ने पूछ लिया ….पत्नी रो उठीं ….कारण जानना चाहा तो पति प्राणकृष्ण ने बताया कि परिवार की इच्छा है एक पुत्र हो ….”तुम भगवान श्रीकृष्ण से क्यों नही कहतीं” गुरुदेव ने कड़े शब्दों में कहा । पत्नी ने अपने अश्रु पोंछे और कहा ….गुरु और गोविन्द में हमने कभी भेद नही माना है ….आप ही हमारे लिए श्रीकृष्ण रूप हैं ….प्राण कृष्ण की पत्नी बोलीं । आँखें बन्द करके गुरुदेव ने कुछ कहा …और वो वहाँ से निकल गये ।

समय बीता ….और सन 1775 में इनके यहाँ ख़ुशियाँ आगयीं …..बालक का जन्म हुआ ….इनका नाम रखा – “कृष्ण” ….इस बात से और प्रसन्न हुए सब लोग ….पर होनी को कौन टाल सका है ….पिता प्राण कृष्ण जी बालक के जन्म के कुछ समय बाद ही स्वर्ग सिधार गये थे ।

प्राण कृष्ण जी अपने पीछे अपार सम्पत्ति छोड़ गये थे …इनके दादा जी अंग्रेज गवर्नर के दीवान थे …..बंगाल , बिहार उड़ीसा गवर्नर के ये दीवान थे ….अब दादा के वात्सल्य में कृष्ण पलने लगे थे …गौर वर्ण गोलु मोलु इसलिये ही कृष्ण को सब लोग प्यार से “लाला” कहते थे ।

शेष कल –

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