रास मध्य ललिता जु प्रार्थना जु कीनी।
कर ते सुकुमारी प्यारी वंशी तब दिनी।।
एक समय जब नित्य रास परायण श्री श्यामा श्याम महारास में थे तब शुभ अवसर जानकर श्रीप्रिया जु से ललिता सखी कहिने लगी कि भू धाम पर श्री श्याम सुंदर का रस तो भली भांति है लेकिन आपका रस, इन निभृत निकुंज के दिव्य रस से धरा धाम अगोचर है उसको जनता ही नही कोई इसलिये हे राधा रानी आप कृपा करें कि धरती के अधम जीवो को आपके निकुंज का परिचय हो तब श्रीराधा रानी ने श्री श्याम सुंदर की वंशी को ललिता सखी के कर कमल में रखा और कहा ये वंशी मुझसे एवं श्याम सुंदर से एक पल के लिये भी कभी दूर नही हुई, इसीलिए यही हमारे सम्पूर्ण रस को जानती है यही वंशी भू तल पर वंशी अवतार श्रीहित हरिवंश महाप्रभु के रूप में अवतार लेगी ओर तुम हरिदास ( ललिता सखी ) रूप में प्रकट होंगे।
परिचय–
राधावल्लभ संप्रदाय के गोस्वामी श्री हित रूपलाल जी ने अपने सहचरी वपु से श्री श्याम श्याम की एक लीला का दर्शन किया, जिसका वे स्वयं वर्णन कर रहे हैं –
व्यासंदन व्यासनंद व्यासनंदन गाएं।
जाको हित नाम लेत दम्पति रति पाइए ॥
रास मध्य ललितादिक प्रार्थना जू किन सीमित ।
कर ते सुकुमारी प्यारी वंशावली तब दीन मरीदित ॥
सोइ कलि प्रगट रूप वंशी वपु धार्यौ ।
कुञ्ज भवन रास रवन त्रिभुवन विस्तार्यौ ॥
गोकुल रावल सु ठाम बाद में निकट राजे ।
विदित प्रेमरासि जनम रसिकन हित काजे ॥
तीनको पिय नाम सहित मंत्र दियौ श्री राधे ।
सत-चित-आनंद रूप निगम अगम साधे॥
श्री वृन्दावन धाम तरणि जासु एरो निवासी ।
श्री राधापति रति अनन्य करत नित खवासी॥
अद्भुत हरि जू को वंश भनत नाम श्यामा।
जय श्री रूपलाल हित चित दैपायौ विश्रामा ॥
- श्री हित रूपलाल जी
श्री श्यामाश्याम की नित्य निकुंज लीला का रस अनवरत ब्लिट रहा है। एक बार श्री श्यामा जू की प्रमुख सोची श्री ललिता जू ने विचार किया कि “यह दिव्य मधुर रस धरा धाम पर मनुष्य उपाय के लिए कैसे समझने योग्य हो।” ऐसा विचार कर श्री ललिता जू ने महारास के मध्य श्री स्वामिनी जू की ओर प्रार्थनामयि दृष्टि से देखा। श्री श्यामा जू ने श्री श्याम सुंदर की ओर मधुर चितवन भरी दृष्टि से देखा तो श्री श्याम सुंदर श्री श्यामा जू के ह्रदय की बात को समझ गए और प्रेमरस रस्वादन की अपनी वंशी को श्री श्यामा जू के कर कमलों के दे दिया। प्यारी जू ने वंशी को ललिता जू को दिया और कहा “हे ललिते, तुम और ये वंशी दोनों मिलकर हमारे नित्य विहार रस को प्रकाशित करो।” प्यारी जू की वह वंशी श्री हित हरिवंश महाप्रभु के रूप में ब्रज मंडल में श्री राधारानी के ग्राम रावल के निकट बाद में ग्राम में प्रकट हुई और तीनो लोकों में इस दिव्य मधुर नित्य विहार रस का विस्तार किया। श्री ललिता जू श्री स्वामी हरिदास जू के रूप में वृन्दावन के राजपुर ग्राम में प्रकट हुए।
चरित्र:-
उत्तर प्रदेश के सहारनपुर जिले में एक ग्राम है देववन, जहां श्री तपन मिश्र के पुत्र, ज्योतिष के परम विद्वान, यजुर्वेदीय, कश्यप गोत्रीय, गौड़ ब्राह्मण श्री व्यास जी संयोजन निवास करते थे ।
व्यास मिश्र उस समय के प्रसिद्ध ज्योतिष थे और इस विद्या के द्वारा उन्होंने करोड़ों संपत्ति की प्राप्ति की थी। धीरे-धीरे उनकी ख्याति पृथ्वीपति के सामने पहुँचती गई और उन्होंने कई अन्य प्रकार के मतभेदों को बुलावा भेजा। वैसे भी बाद में मिश्रशाह से चार श्रीफल लेकर मिले। बादशाह उनसे बातचीत करके उनके गुणों पर मुग्ध हो गए और उन्हें ‘चार हजार की रकम’ देकर हमेशा अपने साथ रखते रहे। व्यास मिश्र की समृद्धि का अब कोई ठिकाना नहीं रहा और वे राजसी ठाट-बाट से रहने लगे।
व्यास मिश्र के पूर्ण सुखी जीवन में एक ही पर्याप्त अभाव था। वे निसंतान थे। इस कमी के कारण वे एवं उनकी पत्नी तारारानी हमेशा उदास रहती थीं। व्यास मिश्र जी बारह भाई थे जिनमें एक नृसिंहश्रम जी विरक्त थे। नृसिंहश्रम जी उच्चकोटि के भक्त थे, एवं लोक में उनकी सिद्धता की अनेक कथायें प्रचलित थीं। विरक्त होते हुए भी वे व्यास जी से स्नेह रखते थे और कभी-कभी उनसे मिलते भी थे। एक बार मिश्रदंपति को समृद्धि में भी उदासी देखकर उन्होंने इसका कारण पूछा। व्यास मिश्र ने अपने संन्यास हीनता को उदास का कारण बताया और नृसिंहश्रम जी के सामने ‘परम भागवत रसिक अनन्य’ पुत्र प्राप्त करने की अपनी तीव्र अभिलाषा प्रगट की । नृसिंहश्रम जी ने उत्तर दिया “भाई, तुम तो स्वयं ज्योतिषी हो । तुमको अपने जन्माक्षरों से अपनी नियति की गति को समझ लेना चाहिये और संतोष-पूर्ण जीवनयापन करना चाहते हैं।”
यह सुनकर व्यास मित्र तो चुप हो गए, उनकी पत्नी ने जलते-धूप से पूछा “यदि सभी कुछ भाग्य का ही होता है, यदि विधि का कथन ही सत्य है, तो इसमें आपकी महिमा क्या रही?” इस बार नृसिंहश्रम जी उत्तर न दे सके और विचारमग्न वहां से पहुंचे।
एकान्त वन में जाकर उन्होंने अपना इष्ट का आराधन किया और उनसे भिन्न भिन्न मनोकामना पूर्ण करने की प्रार्थना की। रात्रि को स्वप्न में प्रभु ने उन्हें सन्देश दिया कि “तुम्हारे सत्संकल्प को पूर्ण करने के लिए स्वयं हरि अपनी वंशी सहित भिन्न भिन्न के घर में प्रगट होंगे।” नृसिंहश्रम जी ने यह सन्देश व्यास मिश्र को सुना और इसे सुनकर मिश्र-दम्पति के आनन्द का ठिकाना नहीं रहा।
बादशाह व्यास जी को सर्वत्र अपने साथ रखता था। श्री हरिवंश के जन्म के समय भी व्यास अपनी पत्नी-सहित बादशाह के साथ थे और ब्रजभूमि में आए थे। वहीं मुथ से 5 मील दूर ‘बाद’ नामक ग्राम में वैशाख शुक्ला एकादशी सोमवार सम्वत 1559 में अरुणोदय काल में श्रीहित हरिवंश का जन्म हुआ। महापुरुषों के साथ साधारणतया जो मांगलिकता संसार में प्रगट होती है, वह श्री हित हरिवंश के जन्म के साथ हुई और सभी लोगों में अनायास धार्मिक रुचि, संबंधित प्रीति एवं सुख-शान्ति का संचार हो गया। ब्रज के वन हरे-भरे हो गए, ग्रामीणों में भड़क उठे, क्षुब्ध सरोवर जल से भर गए, वातावरण में सुगन्धि व्याप्त हो गई, आकाश में बिजली चमकने लगी, हलकी-हलकी बारिश की गिरने लगी, वातावरण सुहावना हो गया, ब्रजवासियों के ह्रदय अकमात ही प्रेम एवं हर्ष से भर गए, पक्षीगण मधुर रंगव करने लगे, मोर नृत्य करने लगे ।
जब श्री हिताचार्य 6 मास के थे तब उनके मुख से संस्कृत के श्लोक उद्भूत होने लगे, जिसमें उपस्थित श्री नृसिंहश्रम जी ने श्रावण किया। वह कोई सामान्य श्लोक नहीं थे, अपितु श्री श्यामाश्याम के दिव्य निकुंज लीला से संबंधित थे । ऐसा दिन तक हो रहा है और जब श्लोकों की संख्या 270 हो जाती है तो श्री हिताचार्य के मुख से श्लोक उद्धृत होना बंद हो गया। उन सभी 270 श्लोकों को श्री नृसिंहश्रम जी ने ग्रंथ में लिप्यबद्ध कर लिया जिसका नाम “श्री राधासुधानिधि” हुआ।
श्री हित हरिवंश के पिता श्री व्यास जी ब्रज दर्शन के उद्देश्य से आए थे। इस प्रकार वे ब्रज में छह महीने निवास कर दिव्य लीला स्थलों के दर्शन करने लगे और देवता बन गए। आज्ञा के समय ज्योतिषियों ने बतलाया था कि यह बालक अनेक अद्भुत कर्म करने वाला होगा। उनकी भविष्य वाणी बालक की जन्म कुण्डली पर आधारित थी इसलिए वह संपूर्णतः सत्य भी हुई। बालक हरिवंश के उन शैशव काल में कई चमत्कार पूर्ण कार्य का वर्णन रसिकन प्रणीत कई चरित्र ग्रन्थों में मिलता है। श्रीाचार्य हित समवायस्क कुमारों के साथ सामान्य बाल क्रीड़ा करते हुए देखकर ज्ञानू नामक भक्त को ज्योतिषियों की बात पर अविश्वास होने लगा था इसलिए वह अपना सन्देह दूर करने का उद्देश्य से एक दिन बालक हरिवंश की परीक्षा के लिए निर्धारित किया गया था उसे श्री हिताचार्य ने अपने बाल क्रीड़ा में ही श्यामा-श्याम की कुंज केलि के प्रत्यक्ष दर्शन कराएं और वह देह त्याग कर निकुंज महल में सम्प्रविष्ट हो गए ।
एक दिन की रात में हित हरिवंश को श्रीजी ने आज्ञा दी की “बाग में एक कुंआ है जिसमें हमारा एक द्विभुज स्वरूप है जो कर में बांसुरी के लिए हुए हैं, उन्हें मेरी गादी संगठित कर सेवा करो।” दूसरे दिन श्री हरिवंश जी कुएँ में कूद पड़े और वहाँ से श्याम वर्ण द्विभुज मुरलीधारी एक श्री विग्रह निकालकर ले आयें। उन्होंने उस विग्रह को श्रीराधा की गुग्गी के साथ एक नव निर्मित मंदिर में विराजमान करके विधि निषेध शून्य अपनी मूल सेवा पद्धति का शुभारंभ किया। बालक हरिवंश ने उस विग्रह का नाम ‘रंगीलाल’ रक्खा; जो अद्यापि देववन नगरस्थ मन्दिर में विराजमान है। इस घटना का स्मारक कुंआ भी ‘हरिवंश चह’ के नाम से विख्यात आज भी देखा जाता है। यह तब की घटना है जब श्री हिताचार्य की आयु सात वर्ष की थी।
श्री हिताचार्य को परिजन ग्रसित से कब और परिजन शास्त्रों की शिक्षा अज्ञात है। इनके द्वारा विर्चित ‘हित चौरासी’ और ‘स्फुट वाणी नामक ब्रजभाषा ग्रन्थ तथा ‘राधासुधानिधि’ एवं ‘यमुनाष्टक’ जैसे संस्कृत कृतियों से ज्ञात होता है कि उन्हें संस्कृत व्याकरण, साहित्य, संगीत, ज्योतिष और श्रुति पुराणादिकों की सर्वोच्च शिक्षा प्राप्त हुई होगी। उनकी चारों रचनाएँ ही इस तथ्य को प्रमाणित करती हैं।
रसिकों द्वारा विरचित चरित्र ग्रन्थों व वाणी ग्रन्थों के अनुसार श्री हिताचार्य को उनका स्वेष्ट श्रीराधा ने मंत्र प्रदान किया था।
एक दिन सोवत सुख लह्यौ । श्री राधे सुपने में कह्यौ॥
द्वार तिरारे पीपर जो है । ऊँचे दर सबनि में सोहै॥
तामै अरुण पत्र इक न्यारौ । जामें जुगल मंत्र है भारौ ॥
लेहु मंत्र तुम करहु प्रकाश । रसिकजननि की पुष्टि आश॥
- श्री हित चरित्र, प्रदर्शनदास जी
व्यासंदन व्यासनंद व्यासनंदन गाएं।
तीनको पिय नाम सहित मंत्र दियौ श्री राधे ।
सत-चित-आनंद रूप निगम अगम साधे॥
- श्री हित रूपलाल जी
स्वयं श्री हित ने अपनी ‘राधासुधानिधि’ नामक रचना में अनेक स्थानों पर श्री राधा को अपनी इष्ट के साथ ही गुरु रूप में भी स्मरण किया है।
यस्याः कदापि वसनाञ्चल खेलनोत्थ, धन्याति धन्य पवनेन कृतार्थ प्राप्त ।
योगेन्द्र दुर्गम गतिर्मधुसूदनोपि, तस्या नमोस्तु वृषभानु भुवनोदिशेऽपि ॥
रहौ कोउ काहू मनहि दिए।
मेरे प्राणनाथ श्रीश्यामा शपथ करौं तण छिये ॥
एक दिन श्री हितचारी रात में सो रहे थे, तब श्री राधा ने स्वप्न में आदेश दिया “तुम्हारे घर के सामने जो पीपल का वृक्ष है, उसका सबसे ऊंचा डाल पर एक अद्भुत अरुण पत्र है, उसमें निहित मंत्र है, उसे ग्रहण कर लिया है। रसिकनों में प्रकाश करो।”
इस आदेश को पाकर श्री हिताचार्य ने उस अरुण पत्र को पीपल पर सुबह की चढ़ाई से उतारकर अपने रसिकजनों में प्रकट किया।
जब श्री हिताचार्य देववन में निवास करते थे, तब श्री राधा स्वयं प्रकट होकर श्री हिताचार्य को “हित” प्रदान करती थीं। उसी समय से श्री हिताचार्य का नाम हित हरिवंश हो गया। “हित” का अर्थ प्रेम है।
समय करें चरित परशंश । जगगुरु विदित श्री हरिवंश ॥
श्री राधा कृपा कियौ । श्री मुख मंत्र निजु कर दियौ ॥
दयिता कृष्ण जिनके इष्ट । पुनि गुरु भ प्रीति गरिष्ट ॥
दीनी रेज हित की आपाधापी। ता करि बढ़ायौ भक्ति प्रताप ॥
- अंकल वृन्दावन दास जी
महाभारत के पश्चात अर्जुन के पूछने पर भी योगेश्वर श्रीकृष्ण ने गर्ग संहिता में भी कहा है ::—-
अहमेव भविष्यामि वंशी रूपेण चार्जुन।
हरिवंशेति विख्यातो प्रेम भक्ति रस प्रद:।।
शेष भाग कल-
Raas Madhya Lalita Ju Prarthana Ju Keeni. If you do, then you have given me a beautiful family. Once upon a time, when Shri Shyama Shyam Maharas was in Nitya Raas Parayan, then knowing the auspicious occasion, Shripriya Ju started saying to Lalita Sakhi that the juice of Shri Shyam Sundar is very good on Bhu Dham, but your juice, from the divine juice of these Nibhrit Nikunj, the Dhara Dham is invisible. No one knows him, that’s why O Radha Rani, please bless the lowly creatures of the earth with your Nikunj. She never went away even for a moment, that’s why she knows our complete rasa.
Introduction- Goswami Shri Hit Rooplal ji of Radhavallabh sect saw a leela of Shri Shyam Shyam from his companion Vapu, which he himself is describing –
Sing Vyasandan Vyasananda Vyasandan. Jako hit naam leet dampati rati paiye ॥ Ras middle Lalitadik prayer ju kin limited. do you delicately lovely genealogy then poor martyred. Soi Kali Pragat Roop Vanshi Vapu Dharyau. Kunja, Bhavana, Rāsa and Ravana are the three worlds. Gokul Rawal Su Tham later ruled nearby. You are known as the source of love, and you are born in the interest of the connoisseur. Sri Radhe gave the mantra with the name of the three drinkers. Sat-Chit-Anand Roop Nigam Agam Sadhe॥ Resident of Shri Vrindavan Dham Tarani Jasu Aero. Sri Radhapati Rati exclusively doing constantly eating. The descendants of the wonderful Hari Ju are called Shyama. Jai Shri Ruplal Hit Chit Daipayau Vishrama ॥ Mr. Hit Ruplal
श्री श्यामाश्याम की नित्य निकुंज लीला का रस अनवरत ब्लिट रहा है। एक बार श्री श्यामा जू की प्रमुख सोची श्री ललिता जू ने विचार किया कि “यह दिव्य मधुर रस धरा धाम पर मनुष्य उपाय के लिए कैसे समझने योग्य हो।” ऐसा विचार कर श्री ललिता जू ने महारास के मध्य श्री स्वामिनी जू की ओर प्रार्थनामयि दृष्टि से देखा। श्री श्यामा जू ने श्री श्याम सुंदर की ओर मधुर चितवन भरी दृष्टि से देखा तो श्री श्याम सुंदर श्री श्यामा जू के ह्रदय की बात को समझ गए और प्रेमरस रस्वादन की अपनी वंशी को श्री श्यामा जू के कर कमलों के दे दिया। प्यारी जू ने वंशी को ललिता जू को दिया और कहा “हे ललिते, तुम और ये वंशी दोनों मिलकर हमारे नित्य विहार रस को प्रकाशित करो।” प्यारी जू की वह वंशी श्री हित हरिवंश महाप्रभु के रूप में ब्रज मंडल में श्री राधारानी के ग्राम रावल के निकट बाद में ग्राम में प्रकट हुई और तीनो लोकों में इस दिव्य मधुर नित्य विहार रस का विस्तार किया। श्री ललिता जू श्री स्वामी हरिदास जू के रूप में वृन्दावन के राजपुर ग्राम में प्रकट हुए। चरित्र:- उत्तर प्रदेश के सहारनपुर जिले में एक ग्राम है देववन, जहां श्री तपन मिश्र के पुत्र, ज्योतिष के परम विद्वान, यजुर्वेदीय, कश्यप गोत्रीय, गौड़ ब्राह्मण श्री व्यास जी संयोजन निवास करते थे । व्यास मिश्र उस समय के प्रसिद्ध ज्योतिष थे और इस विद्या के द्वारा उन्होंने करोड़ों संपत्ति की प्राप्ति की थी। धीरे-धीरे उनकी ख्याति पृथ्वीपति के सामने पहुँचती गई और उन्होंने कई अन्य प्रकार के मतभेदों को बुलावा भेजा। वैसे भी बाद में मिश्रशाह से चार श्रीफल लेकर मिले। बादशाह उनसे बातचीत करके उनके गुणों पर मुग्ध हो गए और उन्हें ‘चार हजार की रकम’ देकर हमेशा अपने साथ रखते रहे। व्यास मिश्र की समृद्धि का अब कोई ठिकाना नहीं रहा और वे राजसी ठाट-बाट से रहने लगे। व्यास मिश्र के पूर्ण सुखी जीवन में एक ही पर्याप्त अभाव था। वे निसंतान थे। इस कमी के कारण वे एवं उनकी पत्नी तारारानी हमेशा उदास रहती थीं। व्यास मिश्र जी बारह भाई थे जिनमें एक नृसिंहश्रम जी विरक्त थे। नृसिंहश्रम जी उच्चकोटि के भक्त थे, एवं लोक में उनकी सिद्धता की अनेक कथायें प्रचलित थीं। विरक्त होते हुए भी वे व्यास जी से स्नेह रखते थे और कभी-कभी उनसे मिलते भी थे। एक बार मिश्रदंपति को समृद्धि में भी उदासी देखकर उन्होंने इसका कारण पूछा। व्यास मिश्र ने अपने संन्यास हीनता को उदास का कारण बताया और नृसिंहश्रम जी के सामने ‘परम भागवत रसिक अनन्य’ पुत्र प्राप्त करने की अपनी तीव्र अभिलाषा प्रगट की । नृसिंहश्रम जी ने उत्तर दिया “भाई, तुम तो स्वयं ज्योतिषी हो । तुमको अपने जन्माक्षरों से अपनी नियति की गति को समझ लेना चाहिये और संतोष-पूर्ण जीवनयापन करना चाहते हैं।” यह सुनकर व्यास मित्र तो चुप हो गए, उनकी पत्नी ने जलते-धूप से पूछा “यदि सभी कुछ भाग्य का ही होता है, यदि विधि का कथन ही सत्य है, तो इसमें आपकी महिमा क्या रही?” इस बार नृसिंहश्रम जी उत्तर न दे सके और विचारमग्न वहां से पहुंचे। एकान्त वन में जाकर उन्होंने अपना इष्ट का आराधन किया और उनसे भिन्न भिन्न मनोकामना पूर्ण करने की प्रार्थना की। रात्रि को स्वप्न में प्रभु ने उन्हें सन्देश दिया कि “तुम्हारे सत्संकल्प को पूर्ण करने के लिए स्वयं हरि अपनी वंशी सहित भिन्न भिन्न के घर में प्रगट होंगे।” नृसिंहश्रम जी ने यह सन्देश व्यास मिश्र को सुना और इसे सुनकर मिश्र-दम्पति के आनन्द का ठिकाना नहीं रहा।
बादशाह व्यास जी को सर्वत्र अपने साथ रखता था। श्री हरिवंश के जन्म के समय भी व्यास अपनी पत्नी-सहित बादशाह के साथ थे और ब्रजभूमि में आए थे। वहीं मुथ से 5 मील दूर ‘बाद’ नामक ग्राम में वैशाख शुक्ला एकादशी सोमवार सम्वत 1559 में अरुणोदय काल में श्रीहित हरिवंश का जन्म हुआ। महापुरुषों के साथ साधारणतया जो मांगलिकता संसार में प्रगट होती है, वह श्री हित हरिवंश के जन्म के साथ हुई और सभी लोगों में अनायास धार्मिक रुचि, संबंधित प्रीति एवं सुख-शान्ति का संचार हो गया। ब्रज के वन हरे-भरे हो गए, ग्रामीणों में भड़क उठे, क्षुब्ध सरोवर जल से भर गए, वातावरण में सुगन्धि व्याप्त हो गई, आकाश में बिजली चमकने लगी, हलकी-हलकी बारिश की गिरने लगी, वातावरण सुहावना हो गया, ब्रजवासियों के ह्रदय अकमात ही प्रेम एवं हर्ष से भर गए, पक्षीगण मधुर रंगव करने लगे, मोर नृत्य करने लगे । जब श्री हिताचार्य 6 मास के थे तब उनके मुख से संस्कृत के श्लोक उद्भूत होने लगे, जिसमें उपस्थित श्री नृसिंहश्रम जी ने श्रावण किया। वह कोई सामान्य श्लोक नहीं थे, अपितु श्री श्यामाश्याम के दिव्य निकुंज लीला से संबंधित थे । ऐसा दिन तक हो रहा है और जब श्लोकों की संख्या 270 हो जाती है तो श्री हिताचार्य के मुख से श्लोक उद्धृत होना बंद हो गया। उन सभी 270 श्लोकों को श्री नृसिंहश्रम जी ने ग्रंथ में लिप्यबद्ध कर लिया जिसका नाम “श्री राधासुधानिधि” हुआ। श्री हित हरिवंश के पिता श्री व्यास जी ब्रज दर्शन के उद्देश्य से आए थे। इस प्रकार वे ब्रज में छह महीने निवास कर दिव्य लीला स्थलों के दर्शन करने लगे और देवता बन गए। आज्ञा के समय ज्योतिषियों ने बतलाया था कि यह बालक अनेक अद्भुत कर्म करने वाला होगा। उनकी भविष्य वाणी बालक की जन्म कुण्डली पर आधारित थी इसलिए वह संपूर्णतः सत्य भी हुई। बालक हरिवंश के उन शैशव काल में कई चमत्कार पूर्ण कार्य का वर्णन रसिकन प्रणीत कई चरित्र ग्रन्थों में मिलता है। श्रीाचार्य हित समवायस्क कुमारों के साथ सामान्य बाल क्रीड़ा करते हुए देखकर ज्ञानू नामक भक्त को ज्योतिषियों की बात पर अविश्वास होने लगा था इसलिए वह अपना सन्देह दूर करने का उद्देश्य से एक दिन बालक हरिवंश की परीक्षा के लिए निर्धारित किया गया था उसे श्री हिताचार्य ने अपने बाल क्रीड़ा में ही श्यामा-श्याम की कुंज केलि के प्रत्यक्ष दर्शन कराएं और वह देह त्याग कर निकुंज महल में सम्प्रविष्ट हो गए । एक दिन की रात में हित हरिवंश को श्रीजी ने आज्ञा दी की “बाग में एक कुंआ है जिसमें हमारा एक द्विभुज स्वरूप है जो कर में बांसुरी के लिए हुए हैं, उन्हें मेरी गादी संगठित कर सेवा करो।” दूसरे दिन श्री हरिवंश जी कुएँ में कूद पड़े और वहाँ से श्याम वर्ण द्विभुज मुरलीधारी एक श्री विग्रह निकालकर ले आयें। उन्होंने उस विग्रह को श्रीराधा की गुग्गी के साथ एक नव निर्मित मंदिर में विराजमान करके विधि निषेध शून्य अपनी मूल सेवा पद्धति का शुभारंभ किया। बालक हरिवंश ने उस विग्रह का नाम ‘रंगीलाल’ रक्खा; जो अद्यापि देववन नगरस्थ मन्दिर में विराजमान है। इस घटना का स्मारक कुंआ भी ‘हरिवंश चह’ के नाम से विख्यात आज भी देखा जाता है। यह तब की घटना है जब श्री हिताचार्य की आयु सात वर्ष की थी। श्री हिताचार्य को परिजन ग्रसित से कब और परिजन शास्त्रों की शिक्षा अज्ञात है। इनके द्वारा विर्चित ‘हित चौरासी’ और ‘स्फुट वाणी नामक ब्रजभाषा ग्रन्थ तथा ‘राधासुधानिधि’ एवं ‘यमुनाष्टक’ जैसे संस्कृत कृतियों से ज्ञात होता है कि उन्हें संस्कृत व्याकरण, साहित्य, संगीत, ज्योतिष और श्रुति पुराणादिकों की सर्वोच्च शिक्षा प्राप्त हुई होगी। उनकी चारों रचनाएँ ही इस तथ्य को प्रमाणित करती हैं। रसिकों द्वारा विरचित चरित्र ग्रन्थों व वाणी ग्रन्थों के अनुसार श्री हिताचार्य को उनका स्वेष्ट श्रीराधा ने मंत्र प्रदान किया था।
One day I slept happily. Shri Radhe said in the dream. The peeper who is at the door. He sleeps in the high door. Tamai Arun Patra Ik Nyarau. Jaam jugal mantra hai Bharau ॥ Lehu mantra tum karhu prakash. Confirmation of Rasikjanani Aash ॥ Mr. Hit Charitra, Prabandhas ji
Sing Vyasandan Vyasananda Vyasandan. Sri Radhe gave the mantra with the name of the three drinkers. Sat-Chit-Anand Roop Nigam Agam Sadhe॥ Mr. Hit Ruplal Shri Hit himself in his work ‘Radhasudhanidhi’ has mentioned Shri Radha as his desired as well as Guru in many places. Whose clothes never rose to play, Blessed is the blessed wind that has attained gratification. O best of all mystics, even Lord Madhusūdana is difficult to reach. I offer my respectful obeisances unto that goddess who is situated in all directions.
Raho kou kahu manahi diye. My life-giver, Shri Shyama, I swear to you.
One day Shri Hitchari was sleeping at night, then Shri Radha ordered in a dream “The Peepal tree in front of your house has a wonderful Arun Patra on its topmost branch, there is a mantra in it, accept it. Light in the fans. After getting this order, Shri Hitacharya took that Arun Patra from the Peepal tree in the morning and revealed it to his devotees. When Shri Hitacharya used to reside in Devvan, then Shri Radha herself appeared and provided “Hita” to Shri Hitacharya. From that time onwards the name of Shri Hitacharya became Hit Harivansh. “Hita” means love.
Take time to praise the character. Jagguru Vidit Shri Harivansh. Pleased Shri Radha. Shree Mukh Mantra Niju Diyo ॥ Dayita Krishna whose favorite Puni Guru Bha Preeti Garisht ॥ Desperation for the interest of religion. Ta kari increased bhakti pratap ॥ Uncle Vrindavan Das
Even after the Mahabharata, on being asked by Arjuna, Yogeshwar Shri Krishna has also said in Garga Samhita ::—
I myself shall be in the form of a dynasty, O Arjuna. He is known as Harivansha and bestows the taste of love and devotion
Remaining part tomorrow-