|| श्री हरि: ||
गत पोस्ट से आगे ……….
प्रिय दूतो ! बुद्धिमान पुरुष ऐसा विचार कर भगवान् अनन्त में ही सम्पूर्ण अन्त:करण से अपना भक्तिभाव स्थापित करते हैं | वे मेरे दण्ड के पात्र नहीं हैं | पहली बात तो यह है कि वे पाप करते ही नहीं, परन्तु यदि कदाचित संयोगवश कोई पाप बन भी जाय, तो उसे भगवान् का गुणगान तत्काल नष्ट कर देता है ||२६|| जो समदर्शी साधु भगवान् को ही अपना साध्य और साधन दोनों समझकर उन पर निर्भर हैं, बड़े-बड़े देवता और सिध्द उनके पवित्र चरित्रों का प्रेम से गान करते रहते हैं | मेरे दूतो ! भगवान् की गदा उनकी सदा रक्षा करती रहती है | उनके पास तुम लोग कभी भूलकर भी मत फटकना | उन्हें दण्ड देने की सामर्थ्य न हममें है और न साक्षात काल में ही ||२७|| बड़े-बड़े परमहंस दिव्य रस के लोभ से सम्पूर्ण जगत और शरीर आदि से भी अपनी अहंता-ममता हटाकर, अकिंचन होकर निरन्तर भगवान् मुकुन्द के पदारविन्द का मकरन्द-रस पान करते रहते हैं | जो दुष्ट उस दिव्य रस से विमुख हैं और नरक के दरवाजे घर-गृहस्थी की तृष्णा का बोझा बाँधकर उसे ढो रहे हैं, उन्ही को मेरे पास मेरे पास लाया करो ||२८|| जिनकी जीभ भगवान् के गुणों और नामों का उच्चारण नहीं करती, जिनका चित उनके चरणारविन्दों का चिन्तन नहीं करता और जिनका सिर एक बार भी भगवान् श्रीकृष्ण के चरणों में नहीं झुकता, उन भगवत्सेवा विमुख पापियों को ही मेरे पास लाया करो ||२९|| आज मेरे दूतों ने भगवान् के पार्षदों का अपराध करके स्वयं भगवान् का ही तिरस्कार किया है | यह मेरा ही अपराध है | महापुराण भगवान् नारायण हम लोगों का यह अपराध क्षमा करें | हम अज्ञानी होने पर भी हैं उनके निजजन, और उनकी आज्ञा पाने के लिये अंजलि बाँधकर सदा उत्सुक रहते हैं | अत: परम महिमान्वित भगवान् के लिये यही योग्य है कि वे क्षमा कर दें | मैं उन सर्वान्तर्यामी एकरस अनन्त प्रभु को नमस्कार करता हूँ ||३०||
शेष आगामी पोस्ट में |
गीताप्रेस, गोरखपुर द्वारा प्रकाशित पुस्तक परम सेवा पुस्तक कोड १९४४ से |
, Shri Hari: || Continuing from previous post………. Dear messengers! The wise men, thinking like this, establish their devotion to the Lord in the infinite with all their heart. They do not deserve my punishment. The first thing is that they do not commit sin at all, but even if by chance a sin does become it, it is immediately destroyed by the praise of the Lord.||26|| The samdarshus who are dependent on the Supreme Personality of Godhead as both their ends and means, great deities and siddhas keep on singing their holy characters with love. my messengers! God’s mace always protects him. Do not ever fall near them even by forgetting you. We do not have the power to punish them, nor in the real time itself ||27|| The great Paramahansa, with the greed of transcendental rasa, removes his ego-mamta from the whole world and body etc. The wicked who are estranged from that divine rasa and are carrying the burden of household cravings at the doors of hell, bring them to me ||28|| Whose tongue does not utter the qualities and names of the Lord, whose mind does not contemplate His feet, and whose head does not bow down at the feet of Lord Sri Krishna even once, bring only those sinners who turn away from the service of God ||29|| Today my messengers have despised the Lord Himself by committing the crime of God’s councilors. This is my own crime. Mahapuran Lord Narayan forgive us this crime. Even though we are ignorant, we are his personal ones, and are always eager to get his permission by tying anjali. Therefore it is only for the most glorified Lord to forgive. I bow to the omnipotent one eternal Lord ||30|| rest in upcoming posts. From the book Param Seva Book Code 1944 published by GeetaPress, Gorakhpur.