सोये हुए शत्रुको मारना महापाप
पाण्डवोंका धृतराष्ट्रके पुत्रोंके साथ महाभारत नामक प्रसिद्ध युद्ध हुआ। अनेक अक्षौहिणी सेनाओंसे युक्त उस महायुद्धमें लगातार दस दिनोंतक संग्राम करके शान्तनुनन्दन भीष्मजी मारे गये। पाँच दिन युद्ध करनेपर द्रोणाचार्य, दो दिनकी लड़ाईमें कर्ण और एक दिन युद्ध करके राजा शल्य मार डाले गये। तदुपरान्त गदायुद्धमें जब दुर्योधनसे सामना हुआ, तब भीमने गदा मारकर उसकी जाँघ तोड़ डाली। इससे राजा दुर्योधन धराशायी हो गया। तदनन्तर युद्धकी समाप्ति हो गयी। सब राजा अपनी-अपनी छावनीपर लौट जानेकी जल्दी करने लगे। सबने प्रसन्नतापूर्वक शिविरको प्रस्थान किया। धृष्टद्युम्न, शिखण्डी आदि समस्त सृजयवंशी क्षत्रिय तथा अन्य राजा लोग भी अपने-अपने शिविरको लौट गये। श्रीकृष्ण और सात्यकिके साथ पाण्डव भी अपने शिविरमें चले गये। उस समय श्रीकृष्णने पाण्डवोंसे कहा-‘हमलोगोंको मंगलके लिये आजकी रातमें शिविरसे बाहर निवास करना चाहिये।’ तब श्रीकृष्ण और सात्यकिके साथ सब पाण्डव छावनीसे बाहर निकल गये। उन सबने ओघवती नदीके किनारे जाकर सुखपूर्वक वह रात्रि व्यतीत की।
इधर कृतवर्मा, कृपाचार्य और अश्वत्थामा सूर्यास्त होनेसे पहले दुर्योधनके पास गये। दुर्योधन रणभूमिमें धूलि-धूसरित होकर पड़ा था। उसका सारा वदन रक्तसे नहा गया गया था और वह धरतीपर पड़ा-पड़ा छटपटाता था। उसे उस अवस्थामें देखकर अश्वत्थामा आदि तीनोंको बड़ा शोक हुआ। राजा दुर्योधन भी उन सुहृदोंको देखकर शोकमग्न हो गया। तब अश्वत्थामा क्रोधसे प्रचण्ड अग्निकी भाँति जल उठा और इस प्रकार बोला- ‘राजन् ! इन नीच शत्रुओंने छलसे मेरे पिताको रणभूमिमें गिरा दिया था, परंतु उसके कारण मुझे वैसा शोक नहीं हुआ, जितना कि आज तुम्हारे गिराये जानेपर हो रहा है। सुयोधन! मैं अपने सत्कर्मोंकी शपथ खाकर कहता हूँ, आज रातमें सृ॑जयोंसहित पाण्डवोंका श्रीकृष्णके देखते-देखते वध कर डालूँगा, मुझे आज्ञा दो।’
अश्वत्थामाके ऐसा कहनेपर राजा दुर्योधनने ‘तथास्तु’ कहकर उसे स्वीकृति दे दी और कृपाचार्यसे कहा ‘आचार्य ! आप द्रोणपुत्रको कलशके जलसे सेनापतिके पदपर अभिषिक्त कीजिये।’ कृपाचार्यने ऐसा ही किया। सेनापतिके रूपमें अभिषिक्त होनेपर अश्वत्थामाने दुर्योधनको हृदयसे लगाया और कृपाचार्य तथा कृतवर्माके साथ तुरंत वहाँसे चल दिया। वे तीनों वीर दक्षिणकी ओर गये और सूर्यास्तसे पहले ही शिविरके समीप पहुँच गये। वहाँ पाण्डवोंकी भयंकर गर्जना सुनकर वे तीनों विजयाभिलाषी योद्धा भयसे भाग गये। एक स्थानपर उन्होंने घोड़ोंको पानी पिलाया। पास ही अनेक शाखाओंसे युक्त सघन वटका वृक्ष था। वहाँ जाकर तीनों रथसे उतर गये और घोड़ोंको वहीं छोड़कर आचमन एवं सन्ध्योपासना की। तदनन्तर, अन्धकारसे व्याप्त भयानक रात्रि सब ओर फैल गयी। कृतवर्मा, कृपाचार्य और अश्वत्थामा शोकसे पीड़ित हो वटके समीप बैठ गये। कृतवर्मा और कृपाचार्यको तो नींद आ गयी, किंतु क्रोधसे कलुषितचित होनेके कारण अश्वत्थामाको निदा नहीं आती थी। वह सर्पकी भाँति लम्बी साँस खींचता रहा। उसने देखा, इस बरगदपर बहुत-से कौए रहते हैं और सब-के-सब भिन्न-भिन्न शाखाओंपर सुखपूर्वक सो गये हैं। इतनेमें ही वहाँ एक उल्लू आया। वह बड़ा भयंकर था। उल्लू बहुत शब्द करके उस वृक्षमें छिप गया और उछल उछलकर सोये हुए कौओंको मारने लगा। थोड़ी ही देर में । कौओंके कटे हुए अंगोंसे उस वृक्षके सब ओरका भाग । आच्छादित हो गया। इस प्रकार कौओंका अन्त करके वह उल्लू बहुत प्रसन्न हुआ ।
अश्वत्थामाने उल्लूकी वह सारी करतूत रातमें | देखी। फिर उसने भी मनमें यह निश्चय किया कि मैं भी इसी प्रकार रात्रिमें सोते हुए शत्रुओंका संहार करूँगा। उसने उल्लूके उस कुकृत्यको अपने लिये उपदेश माना और सोचा, सीधे मार्गसे युद्ध करके मैं पाण्डवोंको जीत नहीं सकूँगा, अतः छलसे ही उन्हें मारना चाहिये।
ऐसा विचार करके अश्वत्थामाने सोते हुए कृपाचार्य और कृतवर्माको जगाया और इस प्रकार कहा- ‘निर्दयी श्रीमने राजा दुर्योधनके सिरपर लात मारी है, अत: आज रातमें पाण्डवोंके शिविरमें जाकर हमलोग उन्हें सोतेमें ही अनेक अस्त्र-शस्त्रोंसे मार डालेंगे।’ यह सुनकर कृपाचार्यने कहा- ‘सोते हुओंको मारना इस लोकमें धर्म नहीं है। इस कुकर्मका कहीं भी आदर नहीं होता। इसी प्रकार जो लोग शस्त्र, रथ और घोड़ोंको त्याग चुके हैं, उनको भी मारना धर्म नहीं है। हमलोग धृतराष्ट्र, पतिव्रता गान्धारी तथा विदुरजीसे पूछ लें और वे लोग जैसा कहें, वैसा करें।’ तब अश्वत्थामा बोले-‘मामाजी ! पाण्डवोंने छलसे युद्धमें मेरे पिताको मारा है, उसी प्रकार मैं भी रातमें सोते हुए पाण्डवोंका वध करूँगा।’.
ऐसा कहकर अश्वत्थामा घोड़े जुते हुए रथपर सवार हो क्रोधसे जलता हुआ पाण्डवोंकी ओर चल दिया। उसके पीछे-पीछे कृतवर्मा और कृपाचार्य भी गये। शिविरके द्वारपर पहुँचकर द्रोणपुत्र अश्वत्थामा खड़ा हो गया। उसने रातमें ही कृपानिधान महादेवजीकी आराधना करके उनसे एक उज्ज्वल खड्ग प्राप्त किया। तत्पश्चात् कृतवर्मा और कृपाचार्य दोनोंको शिविरके द्वारपर ही खड़ा करके वह स्वयं भीतर घुस गया। उस समय द्रोणपुत्र अत्यन्त कुपित हो तेजसे प्रज्वलित-सा हो रहा था। धीरे धीरे वह धृष्टद्युम्नके शिविरमें गया। वहाँ महायुद्धसे थके हुए धृष्टद्युम्न आदि वीर अपनी सेनाके साथ निश्चिन्त होकर सो रहे थे। अश्वत्थामाने उत्तम शय्यापर सोते हुए महाबली धृष्टद्युम्नको क्रोधपूर्वक लातसे मारा। उस आघातसे जगकर धृष्टद्युम्न शय्यासे उठने लगा। उसी समय द्रोणपुत्रने उसके बाल खींचकर उसे पृथ्वीपर गिरा दिया और उसकी छातीपर चढ़कर धनुषकी डोरीसे उसके •गलेको कसकर बाँध दिया। बेचारा विवश होकर चीखता। और छटपटाता रहा, किंतु अश्वत्थामाने उसे पशुकी तरह। गला दबाकर मार डाला। उसने सब सैनिकोंको भी सोतेमें। ही मार डाला। युधामन्यु और महापराक्रमी उत्तमौजाको, द्रौपदीके पाँचों पुत्रोंको तथा युद्धसे बचे हुए सोमक नामवाले क्षत्रिय वीरोंको भी उसने मौतके घाट उतार दिया। शिखण्डी आदि बहुत-से क्षत्रिय वीरोंको अश्वत्थामाने तलवारसे काट डाला। उसके भयसे भागकर जो लोग दरवाजेसे निकले, उन सब सैनिकोंको कृतवर्मा और कृपाचार्यने मृत्युका ग्रास बना दिया। इस प्रकार सारी सेनाके मारे जानेसे वह शिविर उसी प्रकार सूना हो गया, जैसे प्रलयकालमें तीनों लोक शून्य हो जाते हैं। तदनन्तर वे तीनों योद्धा पाण्डवोंसे भयभीत होकर शीघ्र-गतिसे इधर उधर निकल भागे।
अश्वत्थामा नर्मदाके मनोरम तटपर चला गया। वहाँ सहस्रों वेदवादी ऋषि परस्पर पुण्यकथाएँ कहते हुए उत्तम तपस्यामें संलग्न रहते थे। द्रोणाचार्यका पुत्र उन ऋषियोंके आश्रमोंमें गया। उसके प्रवेश करते ही ब्रह्मवादी मुनियोंने योगबलसे उसका दुश्चरित्र जान लिया -‘द्रोणपुत्र! तू सोते हुए मनुष्योंको और इस प्रकार कहा-‘ मारनेवाला पापी अधम ब्राह्मण है। तेरे दर्शनसे भी हमलोग निश्चय ही पतित हो जायँगे। तुझसे वार्तालाप करनेपर दस हजार ब्रह्महत्याओंका पाप लगेगा। अतः नराधम ! तू हमारे आश्रमोंसे दूर हो जा।’
उनके ऐसा कहनेपर अश्वत्थामा लज्जित हो उस मुनिसेवित आश्रमसे निकल गया। इसी प्रकार वह काशी आदि सभी पुण्यतीर्थोंमें गया; परंतु वहाँके महात्मा ब्राह्मणोंसे निन्दित होकर लौट आया और अन्तमें प्रायश्चित करनेकी इच्छासे भगवान् वेदव्यासजीकी शरणमें गया। महामुनि व्यासजी बदरिकारण्यमें विराजमान थे। उनके पास जाकर उसने भक्तिपूर्वक प्रणाम किया। तब व्यासजीने उससे कहा-‘द्रोणकुमार! तू शीघ्र मेरे आश्रमसे निकल जा । सोते हुओंको मारनेके पापसे तू महापातकी हो गया है। तेरे साथ बात करनेसे भी मुझे महान् पाप लगेगा।’
ऐसा कहकर व्यासजीने भी उसके इस कार्यकीनिन्दा की। इस प्रकार सोते हुए मनुष्योंकी हत्या करनामहापाप है और ऐसा करनेवाला महापापी होता है।
[ स्कन्दपुराण ]
सोये हुए शत्रुको मारना महापाप
पाण्डवोंका धृतराष्ट्रके पुत्रोंके साथ महाभारत नामक प्रसिद्ध युद्ध हुआ। अनेक अक्षौहिणी सेनाओंसे युक्त उस महायुद्धमें लगातार दस दिनोंतक संग्राम करके शान्तनुनन्दन भीष्मजी मारे गये। पाँच दिन युद्ध करनेपर द्रोणाचार्य, दो दिनकी लड़ाईमें कर्ण और एक दिन युद्ध करके राजा शल्य मार डाले गये। तदुपरान्त गदायुद्धमें जब दुर्योधनसे सामना हुआ, तब भीमने गदा मारकर उसकी जाँघ तोड़ डाली। इससे राजा दुर्योधन धराशायी हो गया। तदनन्तर युद्धकी समाप्ति हो गयी। सब राजा अपनी-अपनी छावनीपर लौट जानेकी जल्दी करने लगे। सबने प्रसन्नतापूर्वक शिविरको प्रस्थान किया। धृष्टद्युम्न, शिखण्डी आदि समस्त सृजयवंशी क्षत्रिय तथा अन्य राजा लोग भी अपने-अपने शिविरको लौट गये। श्रीकृष्ण और सात्यकिके साथ पाण्डव भी अपने शिविरमें चले गये। उस समय श्रीकृष्णने पाण्डवोंसे कहा-‘हमलोगोंको मंगलके लिये आजकी रातमें शिविरसे बाहर निवास करना चाहिये।’ तब श्रीकृष्ण और सात्यकिके साथ सब पाण्डव छावनीसे बाहर निकल गये। उन सबने ओघवती नदीके किनारे जाकर सुखपूर्वक वह रात्रि व्यतीत की।
इधर कृतवर्मा, कृपाचार्य और अश्वत्थामा सूर्यास्त होनेसे पहले दुर्योधनके पास गये। दुर्योधन रणभूमिमें धूलि-धूसरित होकर पड़ा था। उसका सारा वदन रक्तसे नहा गया गया था और वह धरतीपर पड़ा-पड़ा छटपटाता था। उसे उस अवस्थामें देखकर अश्वत्थामा आदि तीनोंको बड़ा शोक हुआ। राजा दुर्योधन भी उन सुहृदोंको देखकर शोकमग्न हो गया। तब अश्वत्थामा क्रोधसे प्रचण्ड अग्निकी भाँति जल उठा और इस प्रकार बोला- ‘राजन् ! इन नीच शत्रुओंने छलसे मेरे पिताको रणभूमिमें गिरा दिया था, परंतु उसके कारण मुझे वैसा शोक नहीं हुआ, जितना कि आज तुम्हारे गिराये जानेपर हो रहा है। सुयोधन! मैं अपने सत्कर्मोंकी शपथ खाकर कहता हूँ, आज रातमें सृ॑जयोंसहित पाण्डवोंका श्रीकृष्णके देखते-देखते वध कर डालूँगा, मुझे आज्ञा दो।’
अश्वत्थामाके ऐसा कहनेपर राजा दुर्योधनने ‘तथास्तु’ कहकर उसे स्वीकृति दे दी और कृपाचार्यसे कहा ‘आचार्य ! आप द्रोणपुत्रको कलशके जलसे सेनापतिके पदपर अभिषिक्त कीजिये।’ कृपाचार्यने ऐसा ही किया। सेनापतिके रूपमें अभिषिक्त होनेपर अश्वत्थामाने दुर्योधनको हृदयसे लगाया और कृपाचार्य तथा कृतवर्माके साथ तुरंत वहाँसे चल दिया। वे तीनों वीर दक्षिणकी ओर गये और सूर्यास्तसे पहले ही शिविरके समीप पहुँच गये। वहाँ पाण्डवोंकी भयंकर गर्जना सुनकर वे तीनों विजयाभिलाषी योद्धा भयसे भाग गये। एक स्थानपर उन्होंने घोड़ोंको पानी पिलाया। पास ही अनेक शाखाओंसे युक्त सघन वटका वृक्ष था। वहाँ जाकर तीनों रथसे उतर गये और घोड़ोंको वहीं छोड़कर आचमन एवं सन्ध्योपासना की। तदनन्तर, अन्धकारसे व्याप्त भयानक रात्रि सब ओर फैल गयी। कृतवर्मा, कृपाचार्य और अश्वत्थामा शोकसे पीड़ित हो वटके समीप बैठ गये। कृतवर्मा और कृपाचार्यको तो नींद आ गयी, किंतु क्रोधसे कलुषितचित होनेके कारण अश्वत्थामाको निदा नहीं आती थी। वह सर्पकी भाँति लम्बी साँस खींचता रहा। उसने देखा, इस बरगदपर बहुत-से कौए रहते हैं और सब-के-सब भिन्न-भिन्न शाखाओंपर सुखपूर्वक सो गये हैं। इतनेमें ही वहाँ एक उल्लू आया। वह बड़ा भयंकर था। उल्लू बहुत शब्द करके उस वृक्षमें छिप गया और उछल उछलकर सोये हुए कौओंको मारने लगा। थोड़ी ही देर में । कौओंके कटे हुए अंगोंसे उस वृक्षके सब ओरका भाग । आच्छादित हो गया। इस प्रकार कौओंका अन्त करके वह उल्लू बहुत प्रसन्न हुआ ।
अश्वत्थामाने उल्लूकी वह सारी करतूत रातमें | देखी। फिर उसने भी मनमें यह निश्चय किया कि मैं भी इसी प्रकार रात्रिमें सोते हुए शत्रुओंका संहार करूँगा। उसने उल्लूके उस कुकृत्यको अपने लिये उपदेश माना और सोचा, सीधे मार्गसे युद्ध करके मैं पाण्डवोंको जीत नहीं सकूँगा, अतः छलसे ही उन्हें मारना चाहिये।
ऐसा विचार करके अश्वत्थामाने सोते हुए कृपाचार्य और कृतवर्माको जगाया और इस प्रकार कहा- ‘निर्दयी श्रीमने राजा दुर्योधनके सिरपर लात मारी है, अत: आज रातमें पाण्डवोंके शिविरमें जाकर हमलोग उन्हें सोतेमें ही अनेक अस्त्र-शस्त्रोंसे मार डालेंगे।’ यह सुनकर कृपाचार्यने कहा- ‘सोते हुओंको मारना इस लोकमें धर्म नहीं है। इस कुकर्मका कहीं भी आदर नहीं होता। इसी प्रकार जो लोग शस्त्र, रथ और घोड़ोंको त्याग चुके हैं, उनको भी मारना धर्म नहीं है। हमलोग धृतराष्ट्र, पतिव्रता गान्धारी तथा विदुरजीसे पूछ लें और वे लोग जैसा कहें, वैसा करें।’ तब अश्वत्थामा बोले-‘मामाजी ! पाण्डवोंने छलसे युद्धमें मेरे पिताको मारा है, उसी प्रकार मैं भी रातमें सोते हुए पाण्डवोंका वध करूँगा।’.
ऐसा कहकर अश्वत्थामा घोड़े जुते हुए रथपर सवार हो क्रोधसे जलता हुआ पाण्डवोंकी ओर चल दिया। उसके पीछे-पीछे कृतवर्मा और कृपाचार्य भी गये। शिविरके द्वारपर पहुँचकर द्रोणपुत्र अश्वत्थामा खड़ा हो गया। उसने रातमें ही कृपानिधान महादेवजीकी आराधना करके उनसे एक उज्ज्वल खड्ग प्राप्त किया। तत्पश्चात् कृतवर्मा और कृपाचार्य दोनोंको शिविरके द्वारपर ही खड़ा करके वह स्वयं भीतर घुस गया। उस समय द्रोणपुत्र अत्यन्त कुपित हो तेजसे प्रज्वलित-सा हो रहा था। धीरे धीरे वह धृष्टद्युम्नके शिविरमें गया। वहाँ महायुद्धसे थके हुए धृष्टद्युम्न आदि वीर अपनी सेनाके साथ निश्चिन्त होकर सो रहे थे। अश्वत्थामाने उत्तम शय्यापर सोते हुए महाबली धृष्टद्युम्नको क्रोधपूर्वक लातसे मारा। उस आघातसे जगकर धृष्टद्युम्न शय्यासे उठने लगा। उसी समय द्रोणपुत्रने उसके बाल खींचकर उसे पृथ्वीपर गिरा दिया और उसकी छातीपर चढ़कर धनुषकी डोरीसे उसके •गलेको कसकर बाँध दिया। बेचारा विवश होकर चीखता। और छटपटाता रहा, किंतु अश्वत्थामाने उसे पशुकी तरह। गला दबाकर मार डाला। उसने सब सैनिकोंको भी सोतेमें। ही मार डाला। युधामन्यु और महापराक्रमी उत्तमौजाको, द्रौपदीके पाँचों पुत्रोंको तथा युद्धसे बचे हुए सोमक नामवाले क्षत्रिय वीरोंको भी उसने मौतके घाट उतार दिया। शिखण्डी आदि बहुत-से क्षत्रिय वीरोंको अश्वत्थामाने तलवारसे काट डाला। उसके भयसे भागकर जो लोग दरवाजेसे निकले, उन सब सैनिकोंको कृतवर्मा और कृपाचार्यने मृत्युका ग्रास बना दिया। इस प्रकार सारी सेनाके मारे जानेसे वह शिविर उसी प्रकार सूना हो गया, जैसे प्रलयकालमें तीनों लोक शून्य हो जाते हैं। तदनन्तर वे तीनों योद्धा पाण्डवोंसे भयभीत होकर शीघ्र-गतिसे इधर उधर निकल भागे।
अश्वत्थामा नर्मदाके मनोरम तटपर चला गया। वहाँ सहस्रों वेदवादी ऋषि परस्पर पुण्यकथाएँ कहते हुए उत्तम तपस्यामें संलग्न रहते थे। द्रोणाचार्यका पुत्र उन ऋषियोंके आश्रमोंमें गया। उसके प्रवेश करते ही ब्रह्मवादी मुनियोंने योगबलसे उसका दुश्चरित्र जान लिया -‘द्रोणपुत्र! तू सोते हुए मनुष्योंको और इस प्रकार कहा-‘ मारनेवाला पापी अधम ब्राह्मण है। तेरे दर्शनसे भी हमलोग निश्चय ही पतित हो जायँगे। तुझसे वार्तालाप करनेपर दस हजार ब्रह्महत्याओंका पाप लगेगा। अतः नराधम ! तू हमारे आश्रमोंसे दूर हो जा।’
उनके ऐसा कहनेपर अश्वत्थामा लज्जित हो उस मुनिसेवित आश्रमसे निकल गया। इसी प्रकार वह काशी आदि सभी पुण्यतीर्थोंमें गया; परंतु वहाँके महात्मा ब्राह्मणोंसे निन्दित होकर लौट आया और अन्तमें प्रायश्चित करनेकी इच्छासे भगवान् वेदव्यासजीकी शरणमें गया। महामुनि व्यासजी बदरिकारण्यमें विराजमान थे। उनके पास जाकर उसने भक्तिपूर्वक प्रणाम किया। तब व्यासजीने उससे कहा-‘द्रोणकुमार! तू शीघ्र मेरे आश्रमसे निकल जा । सोते हुओंको मारनेके पापसे तू महापातकी हो गया है। तेरे साथ बात करनेसे भी मुझे महान् पाप लगेगा।’
ऐसा कहकर व्यासजीने भी उसके इस कार्यकीनिन्दा की। इस प्रकार सोते हुए मनुष्योंकी हत्या करनामहापाप है और ऐसा करनेवाला महापापी होता है।
[ स्कन्दपुराण ]