‘आप घर तो नहीं भूल गये हैं? मैं इस सम्मानका पात्र नहीं हूँ।’
‘भूले नहीं हैं, निश्चय ही हम आपकी ही सेवामें उपस्थित हुए हैं।’
‘मेरी सेवा ? मैं तो पामर प्राणी हूँ। सेवा तो विट्ठल भगवान्की करनी चाहिये भाई !
‘आप जगदीश्वरके परम भक्त हैं, यह सुनकर महाराजा छत्रपति शिवाजीने आपका स्वागत करनेके लिये ये हाथी, घोड़े, पालकी और सेवकगण भेजे हैं।आप हमारे साथ पधारनेकी कृपा करें।’ भक्तराज तुकाराम हँस पड़े—’अरे भाई! यदि मुझे जाना ही होगा तो ईश्वरके दिये हुए पैर तो मौजूद हैं। फिर इस आडंबरकी क्या जरूरत ?’
गाँवके लोगोंको हँसी उड़ानेका अवसर मिला. ‘वाह, अब तुका भगत भक्ति छोड़कर राजदरबारमें विराजेंगे।’
संत तुकाराम नम्रतापूर्वक कहने लगे-‘आप छत्रपतिको | मेरा संदेश कह दें कि मेरा आपको सदा-सर्वदा आशीर्वादहै। कृपा करके मुझे मेरे विट्ठलभगवान्की सेवासे विमुख | न करें। मैं जहाँ और जैसे हूँ, वहाँ वैसे ही ठीक हूँ। मेरी यह कुटिया ही मेरा राजमहल है और यह छोटा सा मन्दिर ही मेरे प्रभुका मेरा राजदरबार है। वैभवकी । वासनाको जगाकर मुझे इस भक्ति मार्गसे विचलित न करें। मेरे विठोबा उनका कल्याण करें।’
इकट्ठे हुए गाँववाले फिर हँस पड़े—’कैसे गँवार हैं तुका भगत! सामने आये हुए राज-वैभवको ठुकराते हैं, घर आयी लक्ष्मीको धक्का मारते हैं।’
छत्रपति शिवाजीने जब तुकारामकी अटल निःस्पृहताकी बात सुनी, तब वे ऐसे सच्चे संतके दर्शनके लिये अधीर हो उठे और स्वयं तुकारामके पास जा पहुँचे।
देहू गाँवकी जनताको आज और आश्चर्यका अनुभव हुआ देहू-जैसे छोटे-से गाँवमें छत्रपति शिवाजी महाराजका शुभागमन! जय घोषणासे दिशाएँ गूँज उठीं। –’छत्रपति
शिवाजी महाराजकी जय !’ तुकारामको देखते ही शिवाजी उनके चरणोंमें लोट गये। ‘हैं, हँ छत्रपति राजाको ईश्वरस्वरूप माना जाता है।
आप तो पूजनीय हो।’ तुकारामने शिवाजीको उठाया और प्रेमसे हृदयसे लगा लिया।
‘आज आप जैसे संतके दर्शन पाकर मैं कृतार्थ होगया। मेरी प्रार्थना है कि मेरी इस अल्प सेवाको आप स्वीकार करें।’ राजाने स्वर्ण मुद्राओंसे भरी थैली तुकारामके चरणों में रख दी।
“यह आप क्या कर रहे हैं महाराज ? भक्तिमें बाधा डालनेवाली मायामें मुझे क्यों फँसाते हैं? मुझे धन नहीं चाहिये। मुझे जो कुछ चाहिये वह मेरे विट्ठल प्रभुकी कृपासे अनायास मिल जाता है। जब भूख लगती है, तब भिक्षा माँग लाता हूँ। रास्तेमें पड़े चिथड़ोंसे शरीरको ढँक लेता हूँ। कहीं भी सोकर नींद ले लेता हूँ। फिर मुझे किस बातकी कमी है। मैं तो मेरे विठोबाकी सेवामें परम सुख सर्वस्वका अनुभव कर रहा हूँ महाराज ! आप इस धनको वापस ले जाइये। प्रभु आपका कल्याण करें।’
शिवाजी चकित हुए। वे बोल उठे –’धन्य हो भक्त शिरोमणि ऐसी अनुपम निःस्पृहता और निर्भयता मैंने कभी नहीं देखी। आपको मेरा कोटि-कोटि प्रणाम।’
‘धन है धूलि समान’ इस सूत्रको ज्ञानपूर्वक आचरणमें लानेवाले इस अद्भुत संतकी चरण-धूलि मस्तकपर चढ़ाकर उनको वन्दन करते हुए शिवाजी वापस लौट गये। इधर भक्तराज तुकारामने प्रभुसे प्रार्थना की- ‘ऐसी माया कभी फिर न दिखाना मेरे प्रभु!’
‘आप घर तो नहीं भूल गये हैं? मैं इस सम्मानका पात्र नहीं हूँ।’
‘भूले नहीं हैं, निश्चय ही हम आपकी ही सेवामें उपस्थित हुए हैं।’
‘मेरी सेवा ? मैं तो पामर प्राणी हूँ। सेवा तो विट्ठल भगवान्की करनी चाहिये भाई !
‘आप जगदीश्वरके परम भक्त हैं, यह सुनकर महाराजा छत्रपति शिवाजीने आपका स्वागत करनेके लिये ये हाथी, घोड़े, पालकी और सेवकगण भेजे हैं।आप हमारे साथ पधारनेकी कृपा करें।’ भक्तराज तुकाराम हँस पड़े—’अरे भाई! यदि मुझे जाना ही होगा तो ईश्वरके दिये हुए पैर तो मौजूद हैं। फिर इस आडंबरकी क्या जरूरत ?’
गाँवके लोगोंको हँसी उड़ानेका अवसर मिला. ‘वाह, अब तुका भगत भक्ति छोड़कर राजदरबारमें विराजेंगे।’
संत तुकाराम नम्रतापूर्वक कहने लगे-‘आप छत्रपतिको | मेरा संदेश कह दें कि मेरा आपको सदा-सर्वदा आशीर्वादहै। कृपा करके मुझे मेरे विट्ठलभगवान्की सेवासे विमुख | न करें। मैं जहाँ और जैसे हूँ, वहाँ वैसे ही ठीक हूँ। मेरी यह कुटिया ही मेरा राजमहल है और यह छोटा सा मन्दिर ही मेरे प्रभुका मेरा राजदरबार है। वैभवकी । वासनाको जगाकर मुझे इस भक्ति मार्गसे विचलित न करें। मेरे विठोबा उनका कल्याण करें।’
इकट्ठे हुए गाँववाले फिर हँस पड़े—’कैसे गँवार हैं तुका भगत! सामने आये हुए राज-वैभवको ठुकराते हैं, घर आयी लक्ष्मीको धक्का मारते हैं।’
छत्रपति शिवाजीने जब तुकारामकी अटल निःस्पृहताकी बात सुनी, तब वे ऐसे सच्चे संतके दर्शनके लिये अधीर हो उठे और स्वयं तुकारामके पास जा पहुँचे।
देहू गाँवकी जनताको आज और आश्चर्यका अनुभव हुआ देहू-जैसे छोटे-से गाँवमें छत्रपति शिवाजी महाराजका शुभागमन! जय घोषणासे दिशाएँ गूँज उठीं। -‘छत्रपति
शिवाजी महाराजकी जय !’ तुकारामको देखते ही शिवाजी उनके चरणोंमें लोट गये। ‘हैं, हँ छत्रपति राजाको ईश्वरस्वरूप माना जाता है।
आप तो पूजनीय हो।’ तुकारामने शिवाजीको उठाया और प्रेमसे हृदयसे लगा लिया।
‘आज आप जैसे संतके दर्शन पाकर मैं कृतार्थ होगया। मेरी प्रार्थना है कि मेरी इस अल्प सेवाको आप स्वीकार करें।’ राजाने स्वर्ण मुद्राओंसे भरी थैली तुकारामके चरणों में रख दी।
“यह आप क्या कर रहे हैं महाराज ? भक्तिमें बाधा डालनेवाली मायामें मुझे क्यों फँसाते हैं? मुझे धन नहीं चाहिये। मुझे जो कुछ चाहिये वह मेरे विट्ठल प्रभुकी कृपासे अनायास मिल जाता है। जब भूख लगती है, तब भिक्षा माँग लाता हूँ। रास्तेमें पड़े चिथड़ोंसे शरीरको ढँक लेता हूँ। कहीं भी सोकर नींद ले लेता हूँ। फिर मुझे किस बातकी कमी है। मैं तो मेरे विठोबाकी सेवामें परम सुख सर्वस्वका अनुभव कर रहा हूँ महाराज ! आप इस धनको वापस ले जाइये। प्रभु आपका कल्याण करें।’
शिवाजी चकित हुए। वे बोल उठे -‘धन्य हो भक्त शिरोमणि ऐसी अनुपम निःस्पृहता और निर्भयता मैंने कभी नहीं देखी। आपको मेरा कोटि-कोटि प्रणाम।’
‘धन है धूलि समान’ इस सूत्रको ज्ञानपूर्वक आचरणमें लानेवाले इस अद्भुत संतकी चरण-धूलि मस्तकपर चढ़ाकर उनको वन्दन करते हुए शिवाजी वापस लौट गये। इधर भक्तराज तुकारामने प्रभुसे प्रार्थना की- ‘ऐसी माया कभी फिर न दिखाना मेरे प्रभु!’