कानपुरमें एक दिन आप अपनी मौजमें गङ्गामें लेटे है थे। थोड़ी दूरपर एक मगरमच्छ निकला। किनारे है बड़े श्रीप्यारेलालने चिल्लाकर कहा, ‘महाराज ! देखिये | वह मगरमच्छ निकला है।’ ईश्वर-विश्वासी, निर्भय दयानन्द बोले-‘भाई! जब हम इसका कुछ नहीं | बिगाड़ते, तब हमें यह क्यों दुःख देगा।’
एक बार कुम्भके अवसरपर एक साधुने कहा, स्वामीजी! आप ज्ञानी होकर भी भिक्षुककी तरह ईश्वरसे | करते रहते हैं तो अज्ञानियोंके कर्म है। बड़ी गम्भीरतासे आपने उत्तर दिया, ‘यह सत्य नहीं है कि ज्ञानीजन परमात्मासे प्रार्थना नहीं करते। वास्तविक सत्य यह है कि जैसे भूख-प्यासको अन्न जलादिसे तृप्त किया राता है, वैसे ही आत्मिक न्यूनताएँ ईश्वराराधना और अतपादनाके बिना पूरी नहीं हो सकती।’
फर्रुखाबादके कमिश्नर स्काट साहिब एक दिन पूछने लगे- ‘स्वामीजी ! पिछले जन्मके कर्मोंका क्या सबूत है? स्वामीजीने कहा, ‘पहले यह बताइये, आपके पाँवमें यह नुक्स क्यों है?’ (साहिब कुछ लँगड़ाकर चलते थे।) साहब बोले, ‘खुदाकी मर्जी है। स्वामीजीने कहा-‘खुदाकी मन कहिये। वह तो बड़ा दयालु तथा न्यायकारी है। जब किसी कष्टका कारण इस जन्ममें मालूम और दिखायी न दे तो समझ लेना चाहिये कि यह किसी पिछले जन्मका पापफल है।’
एक साधु ‘पुरुषार्थ और प्रारब्धसे किसकी मान्यता है?’ पूछने लगे। कहा, ‘दोनों आवश्यक हैं। प्रारब्ध पिछले कर्मों तथा उनके भोगका नाम है और वार्थ इस जन्म के नये कर्म करनेका।’
अनूपशहरमें किसीने स्वामीजीको पानमें विष दे दिया उनके मुसलमान भक्त सैय्यद मुहम्मद तहसीलदारको चलो विष देनेवाले व्यक्तिको पकड़ दयानन्दके दरवारमें अपराधी पेश किया गया। महाराजने । कहा-‘ इसे मुक्त कर दो। मैं संसारमें लोगोंको कैद |
कराने नहीं अपितु छुड़ाने आया हूँ।’ कायमगंजमें किसीने कहा, ‘आपके पास पात्र नहींहै। कमण्डलु तो होना चाहिये।’ हँसकर बोले, ‘हमारे हाथ भी तो पात्र हैं।’
स्वामीजी अपने आरम्भिक जीवनमें केवल एक कौपीनसे निर्वाह करते थे। एक दिन एक सज्जननेआकर कहा, ‘महाराज! आपके पास एक ही लँगोटी है। मैं यह नयी लंगोटी लाया है।’ दयानन्दजी बोले, “अरे, मुझे तो यह अकेली लँगोटी बोझ हो रही है तू और ले आया है, जा, ले जा भाई, इसे ले जा।’ फर्रुखाबादमें एक देवी अपने मृत बालकका शव लेकर पाससे गुजरी। लाश मैले-कुचैले कपड़ोंसे लपेटी थी। स्वामीजीने कहा- ‘माई, इसपर सफेद कपड़ा क्यों नहीं लपेटा ?’ ‘मेरे पास सफेद कपड़ा और उसके लिये पैसे कहाँ, महाराज!’ रोकर उसने कहा। ठंडी साँसके साथ करुणानिधि दयानन्दके आँसू उमड़ आये और वे बोले, ‘हाँ राजराजेश्वर भारतकी यह दुर्दशा कि आज उसके बच्चोंके लिये कफनतक नहीं!’
अमृतसर में एक साधारण व्यक्तिने एक दिन पूछा, “दीनबन्धु धनी लोग तो दान-पुण्यसे धर्मशालाएँ बना और धर्मकार्यों में दान देकर तर जायँगे, महाराज! गरीबोंके लिये क्या उपाय है।’ कहा, ‘तुम भी नेक और धर्मात्मा बन सकते हो। संसारमें जहाँ एक पुरुष दान देने और परोपकारसे पार हो सकता है, वहाँ दूसरा बुराई न करनेसे, परनिन्दासे बचते हुए नेक बन सकता है। पाप न करना संसारकी भलाई करना है।’
बरसातकी ऋतु थी। बनारसमें वायुसेवन करते करते दादूपुर नगरकी सड़कपर आप जा निकले। देखा एक गाड़ीके बैल और पहिये कीचड़में फँसे हुए हैं पास खड़े लोग, तमाशाइयोंकी तरह तरकीबें बता रहे हैं। करुणासागर दयानन्दसे यह दृश्य कैसे देखा जाता। समीप जाकर बैलोंको खोल दिया। अखण्ड ब्रह्मचारी दयानन्दके कंधेपर आयी गाड़ी दलदलसे निकलकर पार हो गयी।
शाहजहाँपुरमें अपने कर्मचारियोंको नियत समयसे आध घंटे देरसे आये देखकर बोले-‘आज हमारेदेशवासी समयकी महानताको भूल गये हैं। समयकी सारताका तब पता चलता है जब मृत्युशय्यापर पड़े किसी रोगीको देखकर वैद्य कहता है, ‘यदि पाँच मिनट पहले मुझे बुला लिया होता तो बच जानेकी सम्भावना थी। अब लाखों खर्च करनेपर भी नहीं बच सकता।’
बम्बई में एक सेठजीके साथ आये हुए उनके दशवर्षीय पुत्रको पास बुलाकर बड़े प्यारसे कहा, ‘प्रातः काल उठकर हाथ-मुँह धोकर माता-पिताको प्रणाम किया करो। अपनी पुस्तकोंको आप ही उठायाकरो, नौकरोंसे नहीं। मार्गमें कोई माता मिले तो दृष्टि नीचे रखा करो। ऐसा किया करो तो कल्याण होगा।’ सन् 1891 में वीरभूमि चित्तौड़ पधारे। एक दिन कुछ राजकर्मचारियोंके साथ भ्रमण कर रहे थे। मार्गमें एक मन्दिरके पास छोटे-छोटे बालक खेल रहे थे। उनमें एक पञ्चवर्षीय बालिका भी थी। स्वामी दयानन्दने उस बालिकाको देखकर सीस झुका दिया। साथियोंने मर्मको न समझते हुए इधर-उधर देखा। दयानन्दजीने उनके आश्चर्यको बड़ी गम्भीरतासे यह कहकर दूर कर दिया, ‘देखते नहीं हो, वह मातृशक्ति सामने खड़ी है।’
कानपुरमें एक दिन आप अपनी मौजमें गङ्गामें लेटे है थे। थोड़ी दूरपर एक मगरमच्छ निकला। किनारे है बड़े श्रीप्यारेलालने चिल्लाकर कहा, ‘महाराज ! देखिये | वह मगरमच्छ निकला है।’ ईश्वर-विश्वासी, निर्भय दयानन्द बोले-‘भाई! जब हम इसका कुछ नहीं | बिगाड़ते, तब हमें यह क्यों दुःख देगा।’
एक बार कुम्भके अवसरपर एक साधुने कहा, स्वामीजी! आप ज्ञानी होकर भी भिक्षुककी तरह ईश्वरसे | करते रहते हैं तो अज्ञानियोंके कर्म है। बड़ी गम्भीरतासे आपने उत्तर दिया, ‘यह सत्य नहीं है कि ज्ञानीजन परमात्मासे प्रार्थना नहीं करते। वास्तविक सत्य यह है कि जैसे भूख-प्यासको अन्न जलादिसे तृप्त किया राता है, वैसे ही आत्मिक न्यूनताएँ ईश्वराराधना और अतपादनाके बिना पूरी नहीं हो सकती।’
फर्रुखाबादके कमिश्नर स्काट साहिब एक दिन पूछने लगे- ‘स्वामीजी ! पिछले जन्मके कर्मोंका क्या सबूत है? स्वामीजीने कहा, ‘पहले यह बताइये, आपके पाँवमें यह नुक्स क्यों है?’ (साहिब कुछ लँगड़ाकर चलते थे।) साहब बोले, ‘खुदाकी मर्जी है। स्वामीजीने कहा-‘खुदाकी मन कहिये। वह तो बड़ा दयालु तथा न्यायकारी है। जब किसी कष्टका कारण इस जन्ममें मालूम और दिखायी न दे तो समझ लेना चाहिये कि यह किसी पिछले जन्मका पापफल है।’
एक साधु ‘पुरुषार्थ और प्रारब्धसे किसकी मान्यता है?’ पूछने लगे। कहा, ‘दोनों आवश्यक हैं। प्रारब्ध पिछले कर्मों तथा उनके भोगका नाम है और वार्थ इस जन्म के नये कर्म करनेका।’
अनूपशहरमें किसीने स्वामीजीको पानमें विष दे दिया उनके मुसलमान भक्त सैय्यद मुहम्मद तहसीलदारको चलो विष देनेवाले व्यक्तिको पकड़ दयानन्दके दरवारमें अपराधी पेश किया गया। महाराजने । कहा-‘ इसे मुक्त कर दो। मैं संसारमें लोगोंको कैद |
कराने नहीं अपितु छुड़ाने आया हूँ।’ कायमगंजमें किसीने कहा, ‘आपके पास पात्र नहींहै। कमण्डलु तो होना चाहिये।’ हँसकर बोले, ‘हमारे हाथ भी तो पात्र हैं।’
स्वामीजी अपने आरम्भिक जीवनमें केवल एक कौपीनसे निर्वाह करते थे। एक दिन एक सज्जननेआकर कहा, ‘महाराज! आपके पास एक ही लँगोटी है। मैं यह नयी लंगोटी लाया है।’ दयानन्दजी बोले, “अरे, मुझे तो यह अकेली लँगोटी बोझ हो रही है तू और ले आया है, जा, ले जा भाई, इसे ले जा।’ फर्रुखाबादमें एक देवी अपने मृत बालकका शव लेकर पाससे गुजरी। लाश मैले-कुचैले कपड़ोंसे लपेटी थी। स्वामीजीने कहा- ‘माई, इसपर सफेद कपड़ा क्यों नहीं लपेटा ?’ ‘मेरे पास सफेद कपड़ा और उसके लिये पैसे कहाँ, महाराज!’ रोकर उसने कहा। ठंडी साँसके साथ करुणानिधि दयानन्दके आँसू उमड़ आये और वे बोले, ‘हाँ राजराजेश्वर भारतकी यह दुर्दशा कि आज उसके बच्चोंके लिये कफनतक नहीं!’
अमृतसर में एक साधारण व्यक्तिने एक दिन पूछा, “दीनबन्धु धनी लोग तो दान-पुण्यसे धर्मशालाएँ बना और धर्मकार्यों में दान देकर तर जायँगे, महाराज! गरीबोंके लिये क्या उपाय है।’ कहा, ‘तुम भी नेक और धर्मात्मा बन सकते हो। संसारमें जहाँ एक पुरुष दान देने और परोपकारसे पार हो सकता है, वहाँ दूसरा बुराई न करनेसे, परनिन्दासे बचते हुए नेक बन सकता है। पाप न करना संसारकी भलाई करना है।’
बरसातकी ऋतु थी। बनारसमें वायुसेवन करते करते दादूपुर नगरकी सड़कपर आप जा निकले। देखा एक गाड़ीके बैल और पहिये कीचड़में फँसे हुए हैं पास खड़े लोग, तमाशाइयोंकी तरह तरकीबें बता रहे हैं। करुणासागर दयानन्दसे यह दृश्य कैसे देखा जाता। समीप जाकर बैलोंको खोल दिया। अखण्ड ब्रह्मचारी दयानन्दके कंधेपर आयी गाड़ी दलदलसे निकलकर पार हो गयी।
शाहजहाँपुरमें अपने कर्मचारियोंको नियत समयसे आध घंटे देरसे आये देखकर बोले-‘आज हमारेदेशवासी समयकी महानताको भूल गये हैं। समयकी सारताका तब पता चलता है जब मृत्युशय्यापर पड़े किसी रोगीको देखकर वैद्य कहता है, ‘यदि पाँच मिनट पहले मुझे बुला लिया होता तो बच जानेकी सम्भावना थी। अब लाखों खर्च करनेपर भी नहीं बच सकता।’
बम्बई में एक सेठजीके साथ आये हुए उनके दशवर्षीय पुत्रको पास बुलाकर बड़े प्यारसे कहा, ‘प्रातः काल उठकर हाथ-मुँह धोकर माता-पिताको प्रणाम किया करो। अपनी पुस्तकोंको आप ही उठायाकरो, नौकरोंसे नहीं। मार्गमें कोई माता मिले तो दृष्टि नीचे रखा करो। ऐसा किया करो तो कल्याण होगा।’ सन् 1891 में वीरभूमि चित्तौड़ पधारे। एक दिन कुछ राजकर्मचारियोंके साथ भ्रमण कर रहे थे। मार्गमें एक मन्दिरके पास छोटे-छोटे बालक खेल रहे थे। उनमें एक पञ्चवर्षीय बालिका भी थी। स्वामी दयानन्दने उस बालिकाको देखकर सीस झुका दिया। साथियोंने मर्मको न समझते हुए इधर-उधर देखा। दयानन्दजीने उनके आश्चर्यको बड़ी गम्भीरतासे यह कहकर दूर कर दिया, ‘देखते नहीं हो, वह मातृशक्ति सामने खड़ी है।’