परमेश्वर हमारे अन्दर है

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परमेश्वर हमारे अन्दर है

वृन्दावनमें एक वृद्ध महिला रहती थीं। उनका नाम था माया। वे एक छोटी-सी कुटियामें अकेले रहती थीं और भगवान् श्रीकृष्णकी अनन्य भक्त थीं। वे पूर्णरूपसे उनकी भक्तिके लिये समर्पित थीं। एक छोटी-सी बगिया में उनकी कुटिया थी। उस बगियामें तुलसीके पवित्र पौधे लगे हुए थे। वे नित्य तुलसीके दो दल (पत्तियाँ) तोड़कर एक छोटी-सी चौकीपर भगवान् के नामसे समर्पित करतीं। जिस समय वे भगवान्‌की पूजा करतीं, भगवान् प्रकट हो जाते। वे लकड़ीकी चौकीपर बैठ जाते और तुलसीदल उनके श्रीचरणोंमें रखे दिखायी देते। मुसकराते हुए वे मायासे पूछते – ‘माया ! तुम्हें क्या चाहिये ?’ वह रोने लगतीं और प्रसन्नतासे चिल्ला पड़तीं-‘हे मेरे स्वामी! आपको छोड़कर मुझे और क्या चाहिये! कृपाकर आप मुझे कभी न छोड़ें। बस, मुझे जीवनमें इतना ही चाहिये।’
भगवान् के ध्यानमें वे अपनी सुध-बुध खो देतीं तथा तब अपनी आँखें बन्द कर लेतीं और भगवान्का नाम-कीर्तन करती रहतीं। ऐसी दशामें भगवान् प्रकट होते और जब माया आँखें खोलतीं, तब वे गायब हो जाते। किंतु जानेसे पहले भगवान् अपना कर्तव्य पालन करना न भूलते। वे मायाके मिट्टीके पात्रोंको दाल भात, दही, दूधसे भर देते। वृद्ध माया इस भोजनको पुनः श्रीकृष्णके लिये समर्पित करतीं और फिर दोपहर बाद इस दिव्य भोजनको प्रसादरूपमें स्वयं ग्रहण करतीं। उनके पड़ोसी उसे एक रहस्य मानते । वे आपसमें कहते थे कि माया न तो कोई काम-धाम करती है, न भीख माँगती है और न ही किसीसे उधार माँगती है, फिर भी वह जिन्दा है। यह जाननेके लिये कि वृद्धाका रहस्य क्या है, उसके कुछ जिज्ञासु पड़ोसियोंने वृद्धाकी कुटिया में झाँककर देखा। वहाँ जो चमत्कार देखा, उससे वे अचम्भे में आ गये। उन्होंने देखा कि माया तो ध्यानमें आँखें बन्द किये हुए है और उधर भगवान् श्रीकृष्ण आसनपर बैठे हुए हैं। इधर भगवान् भी स्थिति समझ रहे थे, वे उन पड़ोसियोंसे कुछ बोले भी थे। इसपर भी पड़ोसियोंकी जिज्ञासा अभी शान्त नहीं हुई थी। उन्होंने उस वृद्धाके साथ एक कुटिल चाल चलनेकी कोशिश की। जब माया अपनी बगियामें तुलसीके पौधोंमें पानी डाल रही थी, उस समय इन लोगोंने उसके बर्तन चुरा लिये, बर्तनोंको तोड़ डाला तथा भगवान्‌की चौकीको यमुनाजीमें फेंक दिया।
दोपहर बाद, माया अपनी नित्यपूजा करनेके लिये आयी। पर यह क्या मायाने देखा कि न बर्तन हैं, न भोजन है, और इन सबके अतिरिक्त वेदी खाली पड़ी है. चौकी भी नहीं है। वह जोरसे भगवान्‌को पुकारकर कहने लगी- ‘प्रभो! कृष्ण! मेरे स्वामी! आप मुझे भोजनसे वंचित कर सकते हैं, किंतु मेरी कुटियामें आपका जो स्थान है, उससे वंचित न करिये।’ जब कोई असहाय व्यक्ति भगवान्का स्मरण करता है, तब स्वर्गके देवता चुप नहीं रहते। इसी समय मायाने अपने घरके बाहर कुछ खड़खड़ाहटकी आवाज सुनी। वह धीरेसे बाहर आयी। उसने देखा कि बाहर पड़ोसियोंकी भीड़ एकत्रित है, वे एक चमत्कार देख रहे हैं। कुटीके बाहर हजारों बर्तन रखे हुए हैं, बर्तनोंमें खानेकी वस्तुएँ भरी पड़ी हैं। मायाने पलकें बन्दकर आँसू रोके, पर कोई बर्तन स्पर्श नहीं किया। उसके साथ जिन लोगोंने बुरा किया, उनके प्रति उसके मनमें कोई क्रोध नहीं था, बदलेकी भावना नहीं थी। उसने श्रीकृष्णको पुकारते हुए कहा- ‘कृष्ण, मैंने आपसे भोजन नहीं माँगा था। यह निर्बल शरीर भोजनपर जीवित नहीं है। यह तो आपकी कृपापर जीवित है। आप मेरे जीवनमें पुनः आ जाइये।’ माया जोर-जोर से भगवान्‌को पुकार लगाती रही. साथमें निष्ठुर पड़ोसी, जो अब पश्चात्तापकी मुद्रामें थे, वे भी भगवान्‌को पुकार लगाते रहे। थोड़ी देरमें वे देखते क्या हैं कि मायाके हृदयमें भगवान् मुसकराते हुए विराजमान हैं। पड़ोसी भगवान् के सामने नतमस्तक हो गये। वे पश्चात्ताप करते हुए वृद्धासे क्षमा माँगने लगे। वे बोले-‘माँ! हम लोगोंने आपके साथ जो दुर्व्यवहार किया है. उसके लिये आप हमें क्षमा करें। आप ही भगवान्‌की वेदी हैं। आपमें ही भगवान् विराजमान हैं।’
मायाने झुककर देखा तो उसे मुसकराते हुए भगवान् श्रीकृष्ण उसकी छातीके मध्यमें दिखायी पड़े। उसने भीड़की ओर मुड़कर देखा और बोली- ‘आप लोग हमारे गुरु हैं। मुझे आप लोगोंके प्रति आभार व्यक्त करना चाहिये। आप लोगोंके कारण आज मैं अपने अज्ञानसे मुक्त हुई। आजतक मैं प्रभुको अपनेसे बाहर समझती रही और उन्हें बाहर ही ढूँढ़ती रही। अब मैं अपने अन्दर ही उन्हें पा रही हूँ।’ उधर भगवान् श्रीकृष्णने भी भीडको सम्बोधित करते हुए कहा- ‘जिन लोगोंके मनमें ईश्वरके प्रति विश्वास नहीं, उन्हें अब यह जान लेना चाहिये कि मेरे किसी भी भक्तको कोई दण्ड नहीं दिया जा सकता। ऊपरसे देखनेमें ऐसा लगता है कि हमारे भक्त कष्टमें हैं, परंतु जितना वे कष्ट उठाते हैं, उतना ही वे हमारे निकट आते हैं। मैं अन्नदाता हूँ, पालनकर्ता हूँ। तुम्हें यह जान लेना चाहिये कि जिस तरह मेरी इस आराधिका मायाने मुझे बाँध रखा था, उसी प्रकार तुम भी हमें अपनी भक्तिसे बाँध सकते हो। जहाँ ईश्वरमें भक्ति होती है, वहाँ अन्य सब वस्तुएँ अपने-आप सुलभ हो जाती हैं।’
हम भी अपने अन्दर परमेश्वरको ढूँढ़नेका प्रयास करें, हमारा जीवन परमेश्वरकी भक्तिसे ओतप्रोत रहे, यही हमारी परमेश्वरसे प्रार्थना है।

परमेश्वर हमारे अन्दर है
वृन्दावनमें एक वृद्ध महिला रहती थीं। उनका नाम था माया। वे एक छोटी-सी कुटियामें अकेले रहती थीं और भगवान् श्रीकृष्णकी अनन्य भक्त थीं। वे पूर्णरूपसे उनकी भक्तिके लिये समर्पित थीं। एक छोटी-सी बगिया में उनकी कुटिया थी। उस बगियामें तुलसीके पवित्र पौधे लगे हुए थे। वे नित्य तुलसीके दो दल (पत्तियाँ) तोड़कर एक छोटी-सी चौकीपर भगवान् के नामसे समर्पित करतीं। जिस समय वे भगवान्‌की पूजा करतीं, भगवान् प्रकट हो जाते। वे लकड़ीकी चौकीपर बैठ जाते और तुलसीदल उनके श्रीचरणोंमें रखे दिखायी देते। मुसकराते हुए वे मायासे पूछते – ‘माया ! तुम्हें क्या चाहिये ?’ वह रोने लगतीं और प्रसन्नतासे चिल्ला पड़तीं-‘हे मेरे स्वामी! आपको छोड़कर मुझे और क्या चाहिये! कृपाकर आप मुझे कभी न छोड़ें। बस, मुझे जीवनमें इतना ही चाहिये।’
भगवान् के ध्यानमें वे अपनी सुध-बुध खो देतीं तथा तब अपनी आँखें बन्द कर लेतीं और भगवान्का नाम-कीर्तन करती रहतीं। ऐसी दशामें भगवान् प्रकट होते और जब माया आँखें खोलतीं, तब वे गायब हो जाते। किंतु जानेसे पहले भगवान् अपना कर्तव्य पालन करना न भूलते। वे मायाके मिट्टीके पात्रोंको दाल भात, दही, दूधसे भर देते। वृद्ध माया इस भोजनको पुनः श्रीकृष्णके लिये समर्पित करतीं और फिर दोपहर बाद इस दिव्य भोजनको प्रसादरूपमें स्वयं ग्रहण करतीं। उनके पड़ोसी उसे एक रहस्य मानते । वे आपसमें कहते थे कि माया न तो कोई काम-धाम करती है, न भीख माँगती है और न ही किसीसे उधार माँगती है, फिर भी वह जिन्दा है। यह जाननेके लिये कि वृद्धाका रहस्य क्या है, उसके कुछ जिज्ञासु पड़ोसियोंने वृद्धाकी कुटिया में झाँककर देखा। वहाँ जो चमत्कार देखा, उससे वे अचम्भे में आ गये। उन्होंने देखा कि माया तो ध्यानमें आँखें बन्द किये हुए है और उधर भगवान् श्रीकृष्ण आसनपर बैठे हुए हैं। इधर भगवान् भी स्थिति समझ रहे थे, वे उन पड़ोसियोंसे कुछ बोले भी थे। इसपर भी पड़ोसियोंकी जिज्ञासा अभी शान्त नहीं हुई थी। उन्होंने उस वृद्धाके साथ एक कुटिल चाल चलनेकी कोशिश की। जब माया अपनी बगियामें तुलसीके पौधोंमें पानी डाल रही थी, उस समय इन लोगोंने उसके बर्तन चुरा लिये, बर्तनोंको तोड़ डाला तथा भगवान्‌की चौकीको यमुनाजीमें फेंक दिया।
दोपहर बाद, माया अपनी नित्यपूजा करनेके लिये आयी। पर यह क्या मायाने देखा कि न बर्तन हैं, न भोजन है, और इन सबके अतिरिक्त वेदी खाली पड़ी है. चौकी भी नहीं है। वह जोरसे भगवान्‌को पुकारकर कहने लगी- ‘प्रभो! कृष्ण! मेरे स्वामी! आप मुझे भोजनसे वंचित कर सकते हैं, किंतु मेरी कुटियामें आपका जो स्थान है, उससे वंचित न करिये।’ जब कोई असहाय व्यक्ति भगवान्का स्मरण करता है, तब स्वर्गके देवता चुप नहीं रहते। इसी समय मायाने अपने घरके बाहर कुछ खड़खड़ाहटकी आवाज सुनी। वह धीरेसे बाहर आयी। उसने देखा कि बाहर पड़ोसियोंकी भीड़ एकत्रित है, वे एक चमत्कार देख रहे हैं। कुटीके बाहर हजारों बर्तन रखे हुए हैं, बर्तनोंमें खानेकी वस्तुएँ भरी पड़ी हैं। मायाने पलकें बन्दकर आँसू रोके, पर कोई बर्तन स्पर्श नहीं किया। उसके साथ जिन लोगोंने बुरा किया, उनके प्रति उसके मनमें कोई क्रोध नहीं था, बदलेकी भावना नहीं थी। उसने श्रीकृष्णको पुकारते हुए कहा- ‘कृष्ण, मैंने आपसे भोजन नहीं माँगा था। यह निर्बल शरीर भोजनपर जीवित नहीं है। यह तो आपकी कृपापर जीवित है। आप मेरे जीवनमें पुनः आ जाइये।’ माया जोर-जोर से भगवान्‌को पुकार लगाती रही. साथमें निष्ठुर पड़ोसी, जो अब पश्चात्तापकी मुद्रामें थे, वे भी भगवान्‌को पुकार लगाते रहे। थोड़ी देरमें वे देखते क्या हैं कि मायाके हृदयमें भगवान् मुसकराते हुए विराजमान हैं। पड़ोसी भगवान् के सामने नतमस्तक हो गये। वे पश्चात्ताप करते हुए वृद्धासे क्षमा माँगने लगे। वे बोले-‘माँ! हम लोगोंने आपके साथ जो दुर्व्यवहार किया है. उसके लिये आप हमें क्षमा करें। आप ही भगवान्‌की वेदी हैं। आपमें ही भगवान् विराजमान हैं।’
मायाने झुककर देखा तो उसे मुसकराते हुए भगवान् श्रीकृष्ण उसकी छातीके मध्यमें दिखायी पड़े। उसने भीड़की ओर मुड़कर देखा और बोली- ‘आप लोग हमारे गुरु हैं। मुझे आप लोगोंके प्रति आभार व्यक्त करना चाहिये। आप लोगोंके कारण आज मैं अपने अज्ञानसे मुक्त हुई। आजतक मैं प्रभुको अपनेसे बाहर समझती रही और उन्हें बाहर ही ढूँढ़ती रही। अब मैं अपने अन्दर ही उन्हें पा रही हूँ।’ उधर भगवान् श्रीकृष्णने भी भीडको सम्बोधित करते हुए कहा- ‘जिन लोगोंके मनमें ईश्वरके प्रति विश्वास नहीं, उन्हें अब यह जान लेना चाहिये कि मेरे किसी भी भक्तको कोई दण्ड नहीं दिया जा सकता। ऊपरसे देखनेमें ऐसा लगता है कि हमारे भक्त कष्टमें हैं, परंतु जितना वे कष्ट उठाते हैं, उतना ही वे हमारे निकट आते हैं। मैं अन्नदाता हूँ, पालनकर्ता हूँ। तुम्हें यह जान लेना चाहिये कि जिस तरह मेरी इस आराधिका मायाने मुझे बाँध रखा था, उसी प्रकार तुम भी हमें अपनी भक्तिसे बाँध सकते हो। जहाँ ईश्वरमें भक्ति होती है, वहाँ अन्य सब वस्तुएँ अपने-आप सुलभ हो जाती हैं।’
हम भी अपने अन्दर परमेश्वरको ढूँढ़नेका प्रयास करें, हमारा जीवन परमेश्वरकी भक्तिसे ओतप्रोत रहे, यही हमारी परमेश्वरसे प्रार्थना है।

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