एक किसानके बगीचेमें अंगूरका पेड़ था। उसमें प्रत्येक वर्ष बड़े मीठे-मीठे अंगूर फलते थे। किसान बड़ा परिश्रमी, संतोषी और सत्यवादी था। उसने सोचा कि बगीचा तो मेरे श्रमकी देन है, पर भूमि मेरे जमींदारकी है; इन फलोंमें उसे भी कुछ-न-कुछ भाग मिलना चाहिये; नहीं तो, मैं ईश्वरके सामने मुख दिखाने योग्य नहीं रहूँगा। ऐसा सोचकर उसने प्रतिवर्ष भूमिपतिके
घर कुछ मीठे-मीठे अंगूर भेजना आरम्भ किया। जमींदारने सोचा कि अंगूरका पेड़ मेरी जमीनमें है इसलिये उसपर मेरा पूरा-पूरा अधिकार है। मैं उसे अपने बगीचेमें लगा सकता हूँ। लोभके अन्धकारमें उसे सत्कर्तव्यका ज्ञान नहीं रह गया। उसने अपने नौकरोंको आदेश दिया कि पेड़ उखाड़कर मेरे बगीचेमें लगा दो ।
नौकरोंने मालिककी आज्ञाका पालन किया। बेचारा किसान असहाय था, वह सिवा पछतानेके और कर ही क्या सकता था ! पेड़ जमींदारके बगीचेमें लगा दिया गया, पर फल देनेकी बात तो दूर रही, कुछ ही दिनों में वह सूखकर दूँठ हो गया और लोभके कीड़ेने उसकी उपादेयताको जड़से उखाड़ दिया।
A farmer had a grape tree in his garden. Big sweet grapes used to grow in it every year. The farmer was very hardworking, satisfied and truthful. He thought that the garden is the gift of my labor, but the land belongs to my landlord; He should also get some share in these fruits; Otherwise, I will not be able to show my face before God. Thinking like this, every year he
Started sending some sweet grapes home. The landlord thought that the grape tree is in my land, so I have full rights over it. I can plant it in my garden. In the darkness of greed, he did not have the knowledge of good duty. He ordered his servants to uproot the tree and plant it in my garden.
The servants obeyed the orders of the master. The poor farmer was helpless, what else could he do except repent! The tree was planted in the landlord’s garden, but the question of giving fruit was far away, within a few days it dried up and the worm of greed uprooted its usefulness.