‘भय बिनु होइ न प्रीति’
सेनासहित लंका जानेके लिये श्रीरघुनाथजी समुद्रके तटपर कुशा विछा महासागरके समक्ष हाथ जोड़ पूर्वाभिमुख हो वहाँ लेट गये। बिछे हुए कुशवाली भूमिपर सोकर नियमसे असावधान न होते वहाँ तीन रातें व्यतीत हो गयीं।
इस प्रकार उस समय वहाँ तीन इस प्रकार उस समय वहाँ तीन रात लेटे रहकर नौतिके ज्ञाता, धर्मवत्सल श्रीरामचन्द्रजी सरिताओंके स्वामी समुद्रकी उपासना करते रहे; परंतु नियमपूर्वक रहते हुए श्रीरामके द्वारा यथोचित पूजा और सत्कार पाकर भी उस मन्दमति महासागरने उन्हें अपने आधिदैविक रूपका दर्शन नहीं कराया-वह उनके समक्ष प्रकट नहीं हुआ। तब अरुणनेत्रप्रान्तवाले भगवान् श्रीराम समुद्रपर कुपित हो उठे और लक्ष्मणसे इस प्रकार बोले ‘समुद्रको अपने ऊपर बड़ा अहंकार है, जिससे वह स्वयं मेरे सामने प्रकट नहीं हो रहा है। शान्ति, क्षमा, सरलता और मधुर भाषण – ये जो सत्पुरुषोंके गुण हैं, इनका गुणहीनोंके प्रति प्रयोग करनेपर यही परिणाम होता है कि वे उस गुणवान् पुरुषको भी असमर्थ समझ लेते हैं। अतः आज महान् युद्ध ठानकर शंखों और सीपियोंके समुदाय तथा मत्स्यों और मगरोंसहित समुद्रको मैं अभी सुखाये देता हूँ।
मगरोंका निवासभूत यह समुद्र मुझे क्षमासे युक्त देख असमर्थ समझने लगा। ऐसे मूर्खोके प्रति की गयी। क्षमाको धिक्कार है। सुमित्रानन्दन। सामनीतिका आश्रय लेनेसे यह समुद्र मेरे सामने अपना रूप नहीं प्रकट कर रहा है, इसलिये धनुष तथा विषधर सपक समान भयंकर बाण ले आओ। मैं समुद्रको सुखा डालूंगा; फिर वानरलोग पैदल ही लंकापुरीको चलें।’
यों कहकर दुर्धर्ष वीर भगवान् श्रीरामने हाथमें धनुष ले लिया। वे क्रोधसे आँखें फाड़-फाड़कर देखने लगे और प्रलयाग्निके समान प्रज्वलित हो उठे। उन्होंने अपने भयंकर धनुषको धीरेसे दबाकर उसपर प्रत्यंचा चढ़ा दी और उसकी टंकारसे सारे जगत्को कम्पित करते हुए बड़े भयंकर बाण छोड़े, मानो इन्द्रने बहुत-से वज्रोंका प्रहार किया हो। तेजसे प्रज्वलित होते हुए वे महान् वेगशाली श्रेष्ठ बाण समुद्रके जलमें घुस गये। वहाँ रहनेवाले सर्प भयसे थर्रा उठे। मत्स्यों और मगरोंसहित महासागरके जलका महान् वेग सहसा अत्यन्त भयंकर हो गया। वहाँ तूफानका कोलाहल छा गया।
सागरकी उत्ताल तरंग-मालाएँ झूमने और चक्कर काटने लगीं। वहाँ निवास करनेवाले नाग और राक्षस घबरा गये। बड़े-बड़े ग्राह ऊपरको उछलने लगे तथा वरुणके निवासभूत उस समुद्रमें सब ओर भारी कोलाहल मच गया। तदनन्तर श्रीरघुनाथजी रोषसे लम्बी साँस लेते हुए अपने भयंकर वेगशाली अनुपम धनुषको पुनः खींचने लगे। यह देखकर सुमित्राकुमार लक्ष्मण उछलकर उनके पास जा पहुँचे और ‘बस, बस, अब नहीं, अब ‘नहीं’ ऐसा कहते हुए उन्होंने उनका धनुष पकड़ लिया। फिर वे बोले-‘भैया! आप वीर शिरोमणि हैं। इस समुद्रको नष्ट किये बिना भी आपका कार्य सम्पन्न हो जायगा। आप जैसे महापुरुष क्रोधके अधीन नहीं होते हैं। अब आप सुदीर्घकालतक उपयोगमें लाये जानेवाले किसी अच्छे उपायपर दृष्टि डालें- कोई दूसरी उत्तम युक्ति सोचें।’
इसी समय अन्तरिक्षमें अव्यक्तरूपसे स्थित महर्षियों और देवर्षियोंने भी ‘हाय ! यह तो बड़े कष्टकी बात है’ ऐसा कहते हुए ‘अब नहीं, अब नहीं’ कहकर बड़े जोरसे कोलाहल किया।
तब रघुकुलतिलक श्रीरामने समुद्रसे कठोर शब्दों में कहा – ‘महासागर! आज मैं पातालसहित तुझे सुखा डालूंगा। सागर! मेरे बाणोंसे तुम्हारी सारी जलराशि दग्ध हो जायगी, तू सूख जायगा और तेरे भीतर रहनेवाले सब जीव नष्ट हो जायँगे और उस दशामें तेरे यहाँ जलके स्थानमें विशाल बालुकाराशि पैदा हो जायगी। समुद्र ! मेरे धनुषद्वारा की गयी बाण वर्षासे जब तेरी ऐसी दशा हो जायगी, तब वानरलोग पैदल ही चलकर तेरे उस पार पहुँच जायेंगे।
दानवोंके निवासस्थान! तू केवल चारों ओरसे बहकर आयी हुई जलराशिका संग्रह करता है। तुझे मेरे बल और पराक्रमका पता नहीं है, किंतु याद रख, इस उपेक्षाके कारण तुझे मुझसे भारी संताप प्राप्त होगा।’ यों कहकर महाबली श्रीरामने एक ब्रह्मदण्डके समान भयंकर बाणको ब्रह्मास्त्रसे अभिमन्त्रित करके अपने श्रेष्ठ धनुषपर चढ़ाकर खींचा। श्रीरघुनाथजीके द्वारा सहसा उस धनुषके खींचे जाते ही पृथ्वी और आकाश मानो फटने लगे और पर्वत डगमगा उठे। उस समय आकाशमें महान् वेगशाली विशाल वज्र भारी गड़गड़ाहटके साथ टकराकर वैद्युत अग्निकी वर्षा करने लगे। जो प्राणी दिखायी दे रहे थे और जो नहीं दिखायी देते थे, वे सब बिजलीकी कड़क के समान भयंकर शब्द करने लगे।
उनमेंसे कितने ही अभिभूत होकर धराशायी हो गये। कितने ही भयभीत और उद्विग्न हो उठे। कोई व्यथासे व्याकुल हो गये और कितने ही भयके मारे जडवत् हो गये। समुद्र अपने भीतर रहनेवाले प्राणियों, तरंगों, सर्पों और राक्षसोंसहित सहसा भयानक वेगसे युक्त हो गया और प्रलयकालके बिना ही तीव्रगतिसे अपनी मर्यादा लाँघकर एक-एक योजन आगे बढ़ गया।
इस प्रकार नदों और नदियोंके स्वामी उस उद्धत समुद्रके मर्यादा लाँघकर बढ़ जानेपर भी शत्रुसूदन श्रीरामचन्द्रजी अपने स्थानसे पीछे नहीं हटे। तब समुद्रके बीचसे सागर स्वयं मूर्तिमान् होकर प्रकट हुआ, चंचल तरंगें उसे घेरे हुए थीं। मेघमाला और वायुसे वह व्याप्त था तथा गंगा और सिन्धु आदि नदियाँ उसे सब ओरसे घेरकर खड़ी थीं।
उसके भीतर बड़े-बड़े ग्राह उद्भ्रान्त हो रहे थे, नाग और राक्षस घबराये हुए थे। देवताओंके समान सुन्दर रूप धारण करके आयी हुई विभिन्न रूपवाली नदियोंके साथ शक्तिशाली नदीपति समुद्रने निकट आकर पहले धनुर्धर श्रीरघुनाथजीको सम्बोधित किया और फिर
हाथ जोड़कर कहा—’सौम्य रघुनन्दन ! पृथ्वी, वायु आकाश, जल और तेज-ये सर्वदा अपने स्वभावमें स्थित रहते हैं। अपने सनातन मार्गको कभी नहीं छोड़ते- सदा उसीके आश्रित रहते हैं। मेरा भी यह स्वभाव ही हैं, जो मैं अगाध और अथाह हूँ-कोई मेरे पार नहीं जा सकता। यदि मेरी थाह मिल जाय तो यह विकार – मेरे स्वभावका व्यतिक्रम ही होगा। इसलिये मैं आपसे पार होनेका उपाय बताता हूँ ।
राजकुमार ! मैं मगर और नाक आदिसे भरे हुए अपने जलको किसी कामनासे, लोभसे अथवा भयसे किसी तरह स्तम्भित नहीं होने दूँगा। श्रीराम! मैं ऐसा उपाय बताऊँगा, जिससे आप मेरे पार चले जायँगे, ग्राह वानरोंको कष्ट नहीं देंगे, सारी सेना पार उतर जायगी और मुझे भी खेद नहीं होगा। मैं आसानीसे सब कुछ सह लूँगा। वानरोंके पार जानेके लिये जिस प्रकार पुल बन जाय, वैसा प्रयत्न मैं करूँगा।’
तब श्रीरामचन्द्रजीने उससे कहा-‘वरुणालय मेरी बात सुनो। मेरा यह विशाल बाण अमोघ है। बताओ, इसे किस स्थानपर छोड़ा जाय ? श्रीरामचन्द्रजीका यह वचन सुनकर और उस महान् बाणको देखकर महातेजस्वी महासागरने रघुनाथजीसे कहा-‘प्रभो! मेरे उत्तरकी ओर द्रुमकुल्य नामसे विख्यात एक बड़ा ही पवित्र देश है। वहाँ आभीर आदि जातियोंके बहुत-से मनुष्य निवास करते हैं, जिनके रूप और कर्म बड़े ही भयानक हैं। वे सब-के-सब पापी और लुटेरे हैं। वे लोग मेरा जल पीते हैं। उन पापाचारियोंका स्पर्श मुझे प्राप्त होता रहता है, इस पापको मैं नहीं सह सकता। श्रीराम! आप अपने इस उत्तम बाणको वहीं सफल कीजिये।’
महामना समुद्रका यह वचन सुनकर सागरके दिखाये अनुसार उसी देशमें श्रीरामचन्द्रजीने वह अत्यन्त प्रचलित बाण छोड़ दिया। वह वज्र और अशनिके समान तेजस्वी वाण जिस स्थानपर गिरा था, वह स्थान उस बाणके कारण ही पृथ्वीमें दुर्गम मरुभूमिके नामसे प्रसिद्ध हुआ।
उस समय वहाँ भूमिके विदीर्ण होनेका भयंकर शब्द सुनायी पड़ा। उस बाणको गिराकर वहाँके भूतलको कुक्षिमें (तालाब- पोखरे आदिमें) वर्तमान जलको श्रीरामने सुखा दिया। तबसे वह स्थान तीनों लोकोंमें मरुकान्तारके नामसे ही विख्यात हो गया। जो पहले समुद्रका कुक्षिप्रदेश था।
उस कुक्षिस्थानके दग्ध हो जानेपर सरिताओंके स्वामी सागरने सम्पूर्ण शास्त्रोंके ज्ञाता श्रीरघुनाथजीसे कहा- ‘सौम्य ! आपकी सेनामें जो यह नल नामक कान्तिमान् वानर है, साक्षात् विश्वकर्माका पुत्र है। इसे इसके पिताने यह वर दिया है कि ‘तुम मेरे ही समान समस्त शिल्पकलामें निपुण होओगे।’ प्रभो! आप भी तो इस विश्वके स्रष्टा विश्वकर्मा हैं। इस नलके हृदयमें आपके प्रति बड़ा प्रेम है।
यह महान् उत्साही वानर अपने पिताके समान ही शिल्पकर्ममें समर्थ है, अतः यह मेरे ऊपर पुलका निर्माण करे। मैं उस पुलको धारण करूंगा।’
यों कहकर समुद्र अदृश्य हो गया। तब वानर श्रेष्ठ नल उठकर महाबली भगवान् श्रीरामसे बोला ‘प्रभो! मैं पिताकी दी हुई शक्तिको पाकर इस विस्तृत समुद्रपर सेतुका निर्माण करूंगा। महासागरने ठीक कहा है।
संसारमें पुरुषके लिये अकृतज्ञोंके प्रति दण्डनीतिका प्रयोग ही सबसे बड़ा अर्थसाधक है, ऐसा मेरा विश्वास है। वैसे लोगोंके प्रति क्षमा, सान्त्वना और दाननीतिके प्रयोगको धिक्कार है। इस भयानक समुद्रको राजा सगर के पुत्रोंने ही बढ़ाया है। फिर भी इसने कृतज्ञतासे नहीं, दण्डके भयसे ही सेतुकर्म देखनेकी इच्छा मनमें लाकर श्रीरघुनाथजीको अपनी थाह दी है।’
[ वाल्मीकीय रामायण ]
‘भय बिनु होइ न प्रीति’
सेनासहित लंका जानेके लिये श्रीरघुनाथजी समुद्रके तटपर कुशा विछा महासागरके समक्ष हाथ जोड़ पूर्वाभिमुख हो वहाँ लेट गये। बिछे हुए कुशवाली भूमिपर सोकर नियमसे असावधान न होते वहाँ तीन रातें व्यतीत हो गयीं।
इस प्रकार उस समय वहाँ तीन इस प्रकार उस समय वहाँ तीन रात लेटे रहकर नौतिके ज्ञाता, धर्मवत्सल श्रीरामचन्द्रजी सरिताओंके स्वामी समुद्रकी उपासना करते रहे; परंतु नियमपूर्वक रहते हुए श्रीरामके द्वारा यथोचित पूजा और सत्कार पाकर भी उस मन्दमति महासागरने उन्हें अपने आधिदैविक रूपका दर्शन नहीं कराया-वह उनके समक्ष प्रकट नहीं हुआ। तब अरुणनेत्रप्रान्तवाले भगवान् श्रीराम समुद्रपर कुपित हो उठे और लक्ष्मणसे इस प्रकार बोले ‘समुद्रको अपने ऊपर बड़ा अहंकार है, जिससे वह स्वयं मेरे सामने प्रकट नहीं हो रहा है। शान्ति, क्षमा, सरलता और मधुर भाषण – ये जो सत्पुरुषोंके गुण हैं, इनका गुणहीनोंके प्रति प्रयोग करनेपर यही परिणाम होता है कि वे उस गुणवान् पुरुषको भी असमर्थ समझ लेते हैं। अतः आज महान् युद्ध ठानकर शंखों और सीपियोंके समुदाय तथा मत्स्यों और मगरोंसहित समुद्रको मैं अभी सुखाये देता हूँ।
मगरोंका निवासभूत यह समुद्र मुझे क्षमासे युक्त देख असमर्थ समझने लगा। ऐसे मूर्खोके प्रति की गयी। क्षमाको धिक्कार है। सुमित्रानन्दन। सामनीतिका आश्रय लेनेसे यह समुद्र मेरे सामने अपना रूप नहीं प्रकट कर रहा है, इसलिये धनुष तथा विषधर सपक समान भयंकर बाण ले आओ। मैं समुद्रको सुखा डालूंगा; फिर वानरलोग पैदल ही लंकापुरीको चलें।’
यों कहकर दुर्धर्ष वीर भगवान् श्रीरामने हाथमें धनुष ले लिया। वे क्रोधसे आँखें फाड़-फाड़कर देखने लगे और प्रलयाग्निके समान प्रज्वलित हो उठे। उन्होंने अपने भयंकर धनुषको धीरेसे दबाकर उसपर प्रत्यंचा चढ़ा दी और उसकी टंकारसे सारे जगत्को कम्पित करते हुए बड़े भयंकर बाण छोड़े, मानो इन्द्रने बहुत-से वज्रोंका प्रहार किया हो। तेजसे प्रज्वलित होते हुए वे महान् वेगशाली श्रेष्ठ बाण समुद्रके जलमें घुस गये। वहाँ रहनेवाले सर्प भयसे थर्रा उठे। मत्स्यों और मगरोंसहित महासागरके जलका महान् वेग सहसा अत्यन्त भयंकर हो गया। वहाँ तूफानका कोलाहल छा गया।
सागरकी उत्ताल तरंग-मालाएँ झूमने और चक्कर काटने लगीं। वहाँ निवास करनेवाले नाग और राक्षस घबरा गये। बड़े-बड़े ग्राह ऊपरको उछलने लगे तथा वरुणके निवासभूत उस समुद्रमें सब ओर भारी कोलाहल मच गया। तदनन्तर श्रीरघुनाथजी रोषसे लम्बी साँस लेते हुए अपने भयंकर वेगशाली अनुपम धनुषको पुनः खींचने लगे। यह देखकर सुमित्राकुमार लक्ष्मण उछलकर उनके पास जा पहुँचे और ‘बस, बस, अब नहीं, अब ‘नहीं’ ऐसा कहते हुए उन्होंने उनका धनुष पकड़ लिया। फिर वे बोले-‘भैया! आप वीर शिरोमणि हैं। इस समुद्रको नष्ट किये बिना भी आपका कार्य सम्पन्न हो जायगा। आप जैसे महापुरुष क्रोधके अधीन नहीं होते हैं। अब आप सुदीर्घकालतक उपयोगमें लाये जानेवाले किसी अच्छे उपायपर दृष्टि डालें- कोई दूसरी उत्तम युक्ति सोचें।’
इसी समय अन्तरिक्षमें अव्यक्तरूपसे स्थित महर्षियों और देवर्षियोंने भी ‘हाय ! यह तो बड़े कष्टकी बात है’ ऐसा कहते हुए ‘अब नहीं, अब नहीं’ कहकर बड़े जोरसे कोलाहल किया।
तब रघुकुलतिलक श्रीरामने समुद्रसे कठोर शब्दों में कहा – ‘महासागर! आज मैं पातालसहित तुझे सुखा डालूंगा। सागर! मेरे बाणोंसे तुम्हारी सारी जलराशि दग्ध हो जायगी, तू सूख जायगा और तेरे भीतर रहनेवाले सब जीव नष्ट हो जायँगे और उस दशामें तेरे यहाँ जलके स्थानमें विशाल बालुकाराशि पैदा हो जायगी। समुद्र ! मेरे धनुषद्वारा की गयी बाण वर्षासे जब तेरी ऐसी दशा हो जायगी, तब वानरलोग पैदल ही चलकर तेरे उस पार पहुँच जायेंगे।
दानवोंके निवासस्थान! तू केवल चारों ओरसे बहकर आयी हुई जलराशिका संग्रह करता है। तुझे मेरे बल और पराक्रमका पता नहीं है, किंतु याद रख, इस उपेक्षाके कारण तुझे मुझसे भारी संताप प्राप्त होगा।’ यों कहकर महाबली श्रीरामने एक ब्रह्मदण्डके समान भयंकर बाणको ब्रह्मास्त्रसे अभिमन्त्रित करके अपने श्रेष्ठ धनुषपर चढ़ाकर खींचा। श्रीरघुनाथजीके द्वारा सहसा उस धनुषके खींचे जाते ही पृथ्वी और आकाश मानो फटने लगे और पर्वत डगमगा उठे। उस समय आकाशमें महान् वेगशाली विशाल वज्र भारी गड़गड़ाहटके साथ टकराकर वैद्युत अग्निकी वर्षा करने लगे। जो प्राणी दिखायी दे रहे थे और जो नहीं दिखायी देते थे, वे सब बिजलीकी कड़क के समान भयंकर शब्द करने लगे।
उनमेंसे कितने ही अभिभूत होकर धराशायी हो गये। कितने ही भयभीत और उद्विग्न हो उठे। कोई व्यथासे व्याकुल हो गये और कितने ही भयके मारे जडवत् हो गये। समुद्र अपने भीतर रहनेवाले प्राणियों, तरंगों, सर्पों और राक्षसोंसहित सहसा भयानक वेगसे युक्त हो गया और प्रलयकालके बिना ही तीव्रगतिसे अपनी मर्यादा लाँघकर एक-एक योजन आगे बढ़ गया।
इस प्रकार नदों और नदियोंके स्वामी उस उद्धत समुद्रके मर्यादा लाँघकर बढ़ जानेपर भी शत्रुसूदन श्रीरामचन्द्रजी अपने स्थानसे पीछे नहीं हटे। तब समुद्रके बीचसे सागर स्वयं मूर्तिमान् होकर प्रकट हुआ, चंचल तरंगें उसे घेरे हुए थीं। मेघमाला और वायुसे वह व्याप्त था तथा गंगा और सिन्धु आदि नदियाँ उसे सब ओरसे घेरकर खड़ी थीं।
उसके भीतर बड़े-बड़े ग्राह उद्भ्रान्त हो रहे थे, नाग और राक्षस घबराये हुए थे। देवताओंके समान सुन्दर रूप धारण करके आयी हुई विभिन्न रूपवाली नदियोंके साथ शक्तिशाली नदीपति समुद्रने निकट आकर पहले धनुर्धर श्रीरघुनाथजीको सम्बोधित किया और फिर
हाथ जोड़कर कहा—’सौम्य रघुनन्दन ! पृथ्वी, वायु आकाश, जल और तेज-ये सर्वदा अपने स्वभावमें स्थित रहते हैं। अपने सनातन मार्गको कभी नहीं छोड़ते- सदा उसीके आश्रित रहते हैं। मेरा भी यह स्वभाव ही हैं, जो मैं अगाध और अथाह हूँ-कोई मेरे पार नहीं जा सकता। यदि मेरी थाह मिल जाय तो यह विकार – मेरे स्वभावका व्यतिक्रम ही होगा। इसलिये मैं आपसे पार होनेका उपाय बताता हूँ ।
राजकुमार ! मैं मगर और नाक आदिसे भरे हुए अपने जलको किसी कामनासे, लोभसे अथवा भयसे किसी तरह स्तम्भित नहीं होने दूँगा। श्रीराम! मैं ऐसा उपाय बताऊँगा, जिससे आप मेरे पार चले जायँगे, ग्राह वानरोंको कष्ट नहीं देंगे, सारी सेना पार उतर जायगी और मुझे भी खेद नहीं होगा। मैं आसानीसे सब कुछ सह लूँगा। वानरोंके पार जानेके लिये जिस प्रकार पुल बन जाय, वैसा प्रयत्न मैं करूँगा।’
तब श्रीरामचन्द्रजीने उससे कहा-‘वरुणालय मेरी बात सुनो। मेरा यह विशाल बाण अमोघ है। बताओ, इसे किस स्थानपर छोड़ा जाय ? श्रीरामचन्द्रजीका यह वचन सुनकर और उस महान् बाणको देखकर महातेजस्वी महासागरने रघुनाथजीसे कहा-‘प्रभो! मेरे उत्तरकी ओर द्रुमकुल्य नामसे विख्यात एक बड़ा ही पवित्र देश है। वहाँ आभीर आदि जातियोंके बहुत-से मनुष्य निवास करते हैं, जिनके रूप और कर्म बड़े ही भयानक हैं। वे सब-के-सब पापी और लुटेरे हैं। वे लोग मेरा जल पीते हैं। उन पापाचारियोंका स्पर्श मुझे प्राप्त होता रहता है, इस पापको मैं नहीं सह सकता। श्रीराम! आप अपने इस उत्तम बाणको वहीं सफल कीजिये।’
महामना समुद्रका यह वचन सुनकर सागरके दिखाये अनुसार उसी देशमें श्रीरामचन्द्रजीने वह अत्यन्त प्रचलित बाण छोड़ दिया। वह वज्र और अशनिके समान तेजस्वी वाण जिस स्थानपर गिरा था, वह स्थान उस बाणके कारण ही पृथ्वीमें दुर्गम मरुभूमिके नामसे प्रसिद्ध हुआ।
उस समय वहाँ भूमिके विदीर्ण होनेका भयंकर शब्द सुनायी पड़ा। उस बाणको गिराकर वहाँके भूतलको कुक्षिमें (तालाब- पोखरे आदिमें) वर्तमान जलको श्रीरामने सुखा दिया। तबसे वह स्थान तीनों लोकोंमें मरुकान्तारके नामसे ही विख्यात हो गया। जो पहले समुद्रका कुक्षिप्रदेश था।
उस कुक्षिस्थानके दग्ध हो जानेपर सरिताओंके स्वामी सागरने सम्पूर्ण शास्त्रोंके ज्ञाता श्रीरघुनाथजीसे कहा- ‘सौम्य ! आपकी सेनामें जो यह नल नामक कान्तिमान् वानर है, साक्षात् विश्वकर्माका पुत्र है। इसे इसके पिताने यह वर दिया है कि ‘तुम मेरे ही समान समस्त शिल्पकलामें निपुण होओगे।’ प्रभो! आप भी तो इस विश्वके स्रष्टा विश्वकर्मा हैं। इस नलके हृदयमें आपके प्रति बड़ा प्रेम है।
यह महान् उत्साही वानर अपने पिताके समान ही शिल्पकर्ममें समर्थ है, अतः यह मेरे ऊपर पुलका निर्माण करे। मैं उस पुलको धारण करूंगा।’
यों कहकर समुद्र अदृश्य हो गया। तब वानर श्रेष्ठ नल उठकर महाबली भगवान् श्रीरामसे बोला ‘प्रभो! मैं पिताकी दी हुई शक्तिको पाकर इस विस्तृत समुद्रपर सेतुका निर्माण करूंगा। महासागरने ठीक कहा है।
संसारमें पुरुषके लिये अकृतज्ञोंके प्रति दण्डनीतिका प्रयोग ही सबसे बड़ा अर्थसाधक है, ऐसा मेरा विश्वास है। वैसे लोगोंके प्रति क्षमा, सान्त्वना और दाननीतिके प्रयोगको धिक्कार है। इस भयानक समुद्रको राजा सगर के पुत्रोंने ही बढ़ाया है। फिर भी इसने कृतज्ञतासे नहीं, दण्डके भयसे ही सेतुकर्म देखनेकी इच्छा मनमें लाकर श्रीरघुनाथजीको अपनी थाह दी है।’
[ वाल्मीकीय रामायण ]