तीसरी कथा – बछड़ों (गोवत्सों ) – की सीख
एक दिनकी बात है, जब भगवान् श्रीराम सीताजीके साथ चित्रशाला में विराजमान थे, तब एकान्त स्थान जानकर माता कौसल्या वहाँ पहुँचीं और श्रीरामको विष्णुभगवान् समझकर उन्हें प्रणाम किया और कहने लगीं। हे महाबाहो ! कृपाकर मुझे ऐसा कोई उपदेश प्रदान करो, जिससे मुझे ज्ञानकी प्राप्ति हो जाय। माताकी बात सुनकर श्रीराम बोले- माता! आप कल प्रातः गोशालामें जाकर कुछ देर वहाँ स्थित होकर बछड़ोंकी ध्वनि सुनिये और फिर उसपर अच्छी तरह विचारकर वापस मेरे पास आइये, तब मैं आपको उपदेश प्रदान करूँगा
श्वः प्रभाते समुत्थाय गत्वा गोष्ठं कियत्क्षणम् ॥ श्रुत्वा गोवत्सवाक्यानि सम्यक् तानि विचिन्तय । ममान्तिकं ततो याहि त्वमम्ब वचनान्मम ॥
रामकी उस बातको सुनकर माता कौसल्याको बड़ा कुतूहल हुआ, उपदेश देनेकी जगह राम मुझे गोशाला में बछड़ोंके पास भेज रहे हैं, तथापि कल क्या होगा ? इसी बात को सोचते-सोचते कौसल्याजीने वह रात बड़ी व्यग्रतासे बितायी। अरुणोदयकालमें शीघ्र ही स्नानादिसे निवृत्त होकर वे गोशालामें बछड़ोंके समीप जा पहुँचीं। बछड़े ‘अहं मा अहं मा’ की ध्वनि बराबर करते जा रहे थे
गोष्टं गत्वा क्षणं स्थित्वा धेनुवत्सवचांसि सा ।
अहं मा त्विति शुश्राव सुश्रान्ता वै मुहुर्मुहुः ॥
कौसल्याजी उस ध्वनिको ध्यानसे सुनने लगीं, फिर उन्होंने ‘अहं मा अहं मा’ की उस ध्वनिको सुनकर मनमें विचार किया कि रामने मुझसे इसपर विचार करनेके लिये कहा है, अवश्य ही इसमें कोई रहस्य भरा है। आखिर इस ध्वनिमें क्या रहस्य भरा है-ऐसा बार बार वे अपने मनमें चिन्तन करने लगीं। थोड़ी देर में उन्हें उस ध्वनिका रहस्य समझमें आ गया और वे बहुत प्रसन्न हो उठीं और शीघ्र ही रामके पास पहुँचकर कहने लगीं- हे रमानाथ ! हे विष्णो! हे राम! तुम्हारे कथनानुसार मैंने बछड़ोंकी बोली सुनी, उससे मेरा अज्ञान नष्ट हो गया। अब और मुझे कोई उपदेश सुननेकी इच्छा नहीं है। माताकी ऐसी बात सुनकर श्रीरामने कहा-‘माता! बछड़ोंके शब्दसे आपको कैसे ज्ञान हुआ, मुझे बतलायें? तब कौसल्याजी बोलीं- बछड़ोंके ‘अहं मा अहं मा’ शब्द सुनकर मुझे जिज्ञासा हुई कि आखिर ये बछड़े अपनी ध्वनिसे मुझे किस बातका बोध करा रहे हैं ‘इमानि किं बोधयन्ति मां वत्साश्च मुहुर्मुहुः’ (2।132) – ऐसा मैंने जब क्षणभर विचार किया, तब मुझे ज्ञात हुआ कि ये बछड़े ‘अहं मा अहं मा’ कहकर हम संसारी जनोंको यही उपदेश दे रहे हैं कि अरे (7) संसारमें रचे-पचे लोगो ! ‘अहं मा’ अर्थात् ‘मैं हूँ- ऐसा अहंकार मत करो।’ हे राघव ! ये बछड़े सदा लोगोंको यही पुनीत उपदेश देते रहते हैं, फिर भी लोग नहीं समझ पाते। मैंने जबसे यह समझ लिया कि यह ‘मैं’ शब्द देहसे सम्बन्ध रखता है-आत्मासे नहीं, तबसे मैंने इसका परित्याग कर दिया है, ऐसा करनेसे मेरी देह
बुद्धि नष्ट हो गयी है। जब देहबुद्धि ही नष्ट हो गयी तो फिर बचा ही क्या? हे रघूत्तम ! भोगोंकी आश्रयरूपिणी यह देह रहे या न रहे, अब इसका कोई प्रयोजन नहीं है। हे प्रभो! वास्तवमें मैं तो आपका एक अंश हूँ। ‘माता’ शब्द तो केवल उपाधिमात्र है। मैं आपसे अलग होकर रह नहीं सकती, मैं ही ब्रह्म हूँ – ‘ त्वत्तोऽहं न कदा भिन्ना ब्रह्मैवास्म्यहमेव वै ॥’ (2।143)
माताकी बात सुनकर रामजी हँसने लगे और बोले माता ! आपने बछड़ोंकी सीखको ठीकसे समझा है। आप आज मुक्त हो गयीं। अब आप अपने भवनमें जायँ और इस बुद्धिको दृढ़ बनाये रखें। माता ! आपने जब उपदेश | देनेके लिये कहा था, तब मैंने साक्षात् उपदेश न देकर दूसरोंसे दिलवाया, उसमें प्रथम रहस्य तो यह है कि उपदेश देनेवाला गुरु होता है और मैं आपका पुत्र हूँ, ऐसी दशामें मैं किस तरह आपको उपदेश देता। दूसरी बात यह है कि शास्त्र कहता है कि स्त्रीका गुरु एकमात्र उसका पति ही होता है, अतः उन्हें चाहिये कि वे पतिके अलावा किसी औरको गुरु न बनायें। इसीलिये मैंने आपको साक्षात् उपदेश नहीं दिया। * श्रीरामकी बात सुनकर कौसल्याको बड़ा ही आनन्द हुआ। अब वे ब्रह्मचिन्तन करती हुई अपने भवनमें सुखपूर्वक रहने लगीं।
तीसरी कथा – बछड़ों (गोवत्सों ) – की सीख
एक दिनकी बात है, जब भगवान् श्रीराम सीताजीके साथ चित्रशाला में विराजमान थे, तब एकान्त स्थान जानकर माता कौसल्या वहाँ पहुँचीं और श्रीरामको विष्णुभगवान् समझकर उन्हें प्रणाम किया और कहने लगीं। हे महाबाहो ! कृपाकर मुझे ऐसा कोई उपदेश प्रदान करो, जिससे मुझे ज्ञानकी प्राप्ति हो जाय। माताकी बात सुनकर श्रीराम बोले- माता! आप कल प्रातः गोशालामें जाकर कुछ देर वहाँ स्थित होकर बछड़ोंकी ध्वनि सुनिये और फिर उसपर अच्छी तरह विचारकर वापस मेरे पास आइये, तब मैं आपको उपदेश प्रदान करूँगा
श्वः प्रभाते समुत्थाय गत्वा गोष्ठं कियत्क्षणम् ॥ श्रुत्वा गोवत्सवाक्यानि सम्यक् तानि विचिन्तय । ममान्तिकं ततो याहि त्वमम्ब वचनान्मम ॥
रामकी उस बातको सुनकर माता कौसल्याको बड़ा कुतूहल हुआ, उपदेश देनेकी जगह राम मुझे गोशाला में बछड़ोंके पास भेज रहे हैं, तथापि कल क्या होगा ? इसी बात को सोचते-सोचते कौसल्याजीने वह रात बड़ी व्यग्रतासे बितायी। अरुणोदयकालमें शीघ्र ही स्नानादिसे निवृत्त होकर वे गोशालामें बछड़ोंके समीप जा पहुँचीं। बछड़े ‘अहं मा अहं मा’ की ध्वनि बराबर करते जा रहे थे
गोष्टं गत्वा क्षणं स्थित्वा धेनुवत्सवचांसि सा ।
अहं मा त्विति शुश्राव सुश्रान्ता वै मुहुर्मुहुः ॥
कौसल्याजी उस ध्वनिको ध्यानसे सुनने लगीं, फिर उन्होंने ‘अहं मा अहं मा’ की उस ध्वनिको सुनकर मनमें विचार किया कि रामने मुझसे इसपर विचार करनेके लिये कहा है, अवश्य ही इसमें कोई रहस्य भरा है। आखिर इस ध्वनिमें क्या रहस्य भरा है-ऐसा बार बार वे अपने मनमें चिन्तन करने लगीं। थोड़ी देर में उन्हें उस ध्वनिका रहस्य समझमें आ गया और वे बहुत प्रसन्न हो उठीं और शीघ्र ही रामके पास पहुँचकर कहने लगीं- हे रमानाथ ! हे विष्णो! हे राम! तुम्हारे कथनानुसार मैंने बछड़ोंकी बोली सुनी, उससे मेरा अज्ञान नष्ट हो गया। अब और मुझे कोई उपदेश सुननेकी इच्छा नहीं है। माताकी ऐसी बात सुनकर श्रीरामने कहा-‘माता! बछड़ोंके शब्दसे आपको कैसे ज्ञान हुआ, मुझे बतलायें? तब कौसल्याजी बोलीं- बछड़ोंके ‘अहं मा अहं मा’ शब्द सुनकर मुझे जिज्ञासा हुई कि आखिर ये बछड़े अपनी ध्वनिसे मुझे किस बातका बोध करा रहे हैं ‘इमानि किं बोधयन्ति मां वत्साश्च मुहुर्मुहुः’ (2।132) – ऐसा मैंने जब क्षणभर विचार किया, तब मुझे ज्ञात हुआ कि ये बछड़े ‘अहं मा अहं मा’ कहकर हम संसारी जनोंको यही उपदेश दे रहे हैं कि अरे (7) संसारमें रचे-पचे लोगो ! ‘अहं मा’ अर्थात् ‘मैं हूँ- ऐसा अहंकार मत करो।’ हे राघव ! ये बछड़े सदा लोगोंको यही पुनीत उपदेश देते रहते हैं, फिर भी लोग नहीं समझ पाते। मैंने जबसे यह समझ लिया कि यह ‘मैं’ शब्द देहसे सम्बन्ध रखता है-आत्मासे नहीं, तबसे मैंने इसका परित्याग कर दिया है, ऐसा करनेसे मेरी देह
बुद्धि नष्ट हो गयी है। जब देहबुद्धि ही नष्ट हो गयी तो फिर बचा ही क्या? हे रघूत्तम ! भोगोंकी आश्रयरूपिणी यह देह रहे या न रहे, अब इसका कोई प्रयोजन नहीं है। हे प्रभो! वास्तवमें मैं तो आपका एक अंश हूँ। ‘माता’ शब्द तो केवल उपाधिमात्र है। मैं आपसे अलग होकर रह नहीं सकती, मैं ही ब्रह्म हूँ – ‘ त्वत्तोऽहं न कदा भिन्ना ब्रह्मैवास्म्यहमेव वै ॥’ (2।143)
माताकी बात सुनकर रामजी हँसने लगे और बोले माता ! आपने बछड़ोंकी सीखको ठीकसे समझा है। आप आज मुक्त हो गयीं। अब आप अपने भवनमें जायँ और इस बुद्धिको दृढ़ बनाये रखें। माता ! आपने जब उपदेश | देनेके लिये कहा था, तब मैंने साक्षात् उपदेश न देकर दूसरोंसे दिलवाया, उसमें प्रथम रहस्य तो यह है कि उपदेश देनेवाला गुरु होता है और मैं आपका पुत्र हूँ, ऐसी दशामें मैं किस तरह आपको उपदेश देता। दूसरी बात यह है कि शास्त्र कहता है कि स्त्रीका गुरु एकमात्र उसका पति ही होता है, अतः उन्हें चाहिये कि वे पतिके अलावा किसी औरको गुरु न बनायें। इसीलिये मैंने आपको साक्षात् उपदेश नहीं दिया। * श्रीरामकी बात सुनकर कौसल्याको बड़ा ही आनन्द हुआ। अब वे ब्रह्मचिन्तन करती हुई अपने भवनमें सुखपूर्वक रहने लगीं।