नीच गुरु

buddha monastery sunset

एक सुन्दरी बालविधवाके घरपर उसका गुरु आया। विधवा देवीने श्रद्धा-भक्तिके साथ गुरुको भोजनादि कराया। तदनन्तर वह उसके सामने धर्मोपदेश पानेके लिये बैठ गयी। गुरुके मनमें उसके रूप-यौवनको देखकर पाप आ गया और उसने उसको अपने कपटजाल में फँसानेके लिये भाँति-भाँतिकी युक्तियोंसे आत्मनिवेदनका महत्त्व बतलाकर यह समझाना चाहा कि जब वह उसकी शिष्या है तो आत्मनिवेदन करके अपनी देहके द्वारा उसे गुरुकी सेवा करनी चाहिये। गुरु खूब पढ़ा-लिखा था, इससे उसने बहुत से तर्कोंके द्वारा शास्त्रोंके प्रमाण दे-देकर यह सिद्ध किया कि यदि ऐसा नहीं किया जायगा तो गुरु कृपा नहीं होगी और गुरु कृपा न होनेसे नरकोंकी प्राप्ति होगी।

विधवा देवी बड़ी बुद्धिमती, विचारशीला और अपने सतीधर्मकी रक्षामें तत्पर थी। वह गुरुके नीच अभिप्रायको समझ गयी। उसने बड़ी नम्रताके साथ कहा- ‘गुरुजी ! आपकी कृपासे मैं इतना तो जान गयी हूँ कि गुरुकी सेवा करना शिष्याका परम धर्म है, परंतु भाग्यहीनताके कारण मुझे सेवाका कोई अनुभवनहीं है। इसीसे मैं यथासाध्य गुरुके चरणकमलोंको हृदयमें विराजित करके अपने चक्षुकर्णादि इन्द्रियोंसे उनकी सेवा करती हूँ। आँखोंसे उनके स्वरूपके दर्शन, कानोंसे उनके उपदेशामृतका पान आदि करती हूँ। सिर्फ दो नीच इन्द्रियोंको, जिनसे मल-मूत्र बहा करता है, मैंने सेवामें नहीं लगाया; क्योंकि गुरुकी सेवामें उन्हीं चीजोंको लगाना चाहिये जो पवित्र हों। मल मूत्रके मैं मैं गुरुको कैसे बिठाऊँ। इसीसे उन गंदे अङ्गको कपड़ोंसे ढके रखती हूँ कि कहीं पवित्र गुरु सेवामें बाधा न आ जाय। इतनेपर भी यदि गुरु कृपा न हो तो क्या उपाय है। पर सच्चे गुरु ऐसा क्यों करने लगे? जो गुरु मल-मूत्रकी चाह करते हैं, जो गुरु भक्तिरूपी सुधा पाकर भी मूत्राशयकी ओर ललचायी आँखोंसे देखते हैं, जो गुरु शिष्याके चेहरेकी ओर दयादृष्टिसे न देखकर नरकके मुख्यद्वार-नरक बहानेवाली दुर्गन्धयुक्त नालियोंकी ओर ताकते हैं, ऐसे गुरुके प्रति आत्मनिवेदन न करके उसके मुँहपर तो कालिख ही पोतनी चाहिये और झाडुओंसे उसका सत्कार करना चाहिये।’ गुरुजी चुपचाप चल दिये !

A beautiful child widow’s teacher came to her house. The widow goddess offered food to the Guru with devotion. After that she sat in front of him to receive her sermon. Sin came in the mind of the Guru after seeing her beauty and youth and he wanted to make her understand by explaining the importance of self-request to trap her in his hypocrisy, that since she is his disciple, she should serve the Guru through her body by making self-request. Guru was very well educated, due to this, he proved this by giving proofs of scriptures through many arguments that if this is not done, Guru’s grace will not be there and if Guru’s grace is not there, one will go to hell.
Widow Devi was very intelligent, thoughtful and ready to protect her Satidharma. She understood the mean intention of the Guru. He said with great humility – ‘ Guruji! By your grace, I have come to know that serving the Guru is the ultimate religion of the disciple, but due to lack of luck, I have no experience of service. That’s why I keep the lotus feet of the Guru in my heart and serve him with my eyes and ears as much as possible. I see his form with my eyes, drink the nectar of his sermons with my ears. I did not engage only the two vile senses, through which excreta and urine flow; Because only those things which are pure should be used in the service of the Guru. How can I make the Guru sit in the feces and urine. That’s why I keep those dirty parts covered with clothes so that there may be no hindrance in the service of the holy Guru. Even after this, if Guru’s grace is not there then what is the solution. But why did true gurus start doing this? The Guru who longs for excrement and urine, who looks at the urinary bladder with greedy eyes even after receiving the blessings of Guru’s devotion, who does not look at the face of the Guru-disciple with kindness, looks at the main gate of hell-the foul-smelling drains that lead to hell; Only soot should be applied and it should be greeted with brooms.’ Guruji left quietly!

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