पश्चात्तापका परिणाम

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अप्युन्नतपदारूढपूज्यान् नैवापमानयेत्।

इक्ष्वाकूणां ननाशाग्नेस्तेजो वृशावमानतः ॥

(नीतिमञ्जरी 78)

इक्ष्वाकु वंशके महीप त्रिवृष्णके पुत्र त्र्यरुणकी अपने पुरोहितके पुत्र वृशजानसे बहुत पटती थी। दोनों एक दूसरेके बिना नहीं रह सकते थे। महाराज त्र्यरुण की वीरता और वृशजानके पाण्डित्यसे राजकीय समृद्धि नित्य बढ़ रही थी । महाराजने दिग्विजय यात्रा की; उन्होंने वृशजानसे सारथि पद स्वीकार करनेका आग्रह – किया। वृशजान रथ हाँकनेमें बड़े निपुण थे; उन्होंने अपने मित्रकी प्रसन्नताके लिये सारथि होना स्वीकार कर लिया।राजधानीमें प्रसन्नताकी लहर दौड़ पड़ी। दिग्विजय यात्रा समाप्तकर त्र्यरुण लौटनेवाले थे। रथ बड़ी तेजी से आगे बढ़ रहा था, राजधानी थोड़ी ही दूर रह गयी थी कि सहसा रथ राजपथपर रुक ही गया।

‘अनर्थ हो गया, महाराज! हमारी दिग्विजय यात्रा कलङ्कित हो गयी, रथके पहियेके नीचे एक ब्राह्मणकुमार दबकर स्वर्ग चला गया।’ वृशजानने गम्भीर साँस ली। ‘इस कलङ्ककी जड़ आप हैं, पुरोहित। आपने
रथका वेग बढ़ाकर घोर पाप कर डाला।’ महाराज थर थर काँपने लगे।
“दिग्विजयका श्रेय आपने लिया तो यह ब्रह्महत्याभी आपके ही सिरपर मढ़ी जायगी।’ पुरोहित वृशजानके शब्दोंसे महाराज तिलमिला उठे। दोनोंमें अनबन हो गयी। त्र्यरुणने उनके कथनकी अवज्ञा की ।

वृशजानने अथर्वाङ्गिरस मन्त्रके उच्चारणसे ब्राह्मण कुमारको जीवन दान दिया। उसके जीवित हो जानेपर | महाराजने उन्हें रोकनेकी बड़ी चेष्टा की; पर वृशजान अपमानित होनेसे राज्य छोड़कर दूसरी जगह चले गये।

पुरोहित वृशजानके चले जानेपर महाराज त्र्यरुण पश्चात्तापकी आगमें जलने लगे। मैंने मदोन्मत्त होकर अपने अभिन्न मित्रका अपमान कर डाला – यह सोच सोचकर वे बहुत व्यथित हुए। राजप्रासाद, राजधानी और सम्पूर्ण राज्यमें अग्नि देवताकी अकृपा हो गयी। यज्ञ आदि सत्कर्म समाप्त हो गये। महाराजने प्रजा समेत पुरोहितके चरणोंमें जाकर क्षमा माँगी, अपना अपराध स्वीकार किया। वृशजान राजधानीमें वापस आ गये। चारों ओर ‘स्वाहा स्वाहा’ का ही राज्य स्थापित हो गया। अग्रि देवताका तेज प्रज्वलित हो उठा। ‘मेरी समझमें आ गया मित्र! राज्यमें अग्नि-तेज घटनेका कारण।’ वृशजानने यज्ञ-कुण्डमें घीकी आहुति | देते हुए त्र्यरुणकी उत्सुकता बढ़ायी। महाराज आश्चर्य चकित थे।

‘यह है।’ वृशजानने त्र्यरुणकी रानी-पिशाचीको कपिश-गद्देके आसनपर बैठनेका आदेश दिया; वेदमन्त्रसेअग्निका आवाहन करते ही पिशाची स्वाहा हो गयी।

‘यह ब्रह्महत्या थी महाराज ! रानीके वेषमें राजप्रासादमें प्रवेशकर इसने राज्यश्रीका अपहरण कर लिया था।’ वृशजानने रहस्यका उद्घाटन किया। यज्ञ-कुण्डकीहोम-ज्वालासे चारों ओर प्रकाश छा गया। त्र्यरुणने वृशजानका आलिङ्गन किया। प्रजाने दोनोंकी जय मनायी । चारों ओर आनन्द बरसने लगा ।

(बृहद्देवता अ0 5। 14–23)

अप्युन्नतपदारूढपूज्यान् नैवापमानयेत्।
इक्ष्वाकूणां ननाशाग्नेस्तेजो वृशावमानतः ॥
(नीतिमञ्जरी 78)
इक्ष्वाकु वंशके महीप त्रिवृष्णके पुत्र त्र्यरुणकी अपने पुरोहितके पुत्र वृशजानसे बहुत पटती थी। दोनों एक दूसरेके बिना नहीं रह सकते थे। महाराज त्र्यरुण की वीरता और वृशजानके पाण्डित्यसे राजकीय समृद्धि नित्य बढ़ रही थी । महाराजने दिग्विजय यात्रा की; उन्होंने वृशजानसे सारथि पद स्वीकार करनेका आग्रह – किया। वृशजान रथ हाँकनेमें बड़े निपुण थे; उन्होंने अपने मित्रकी प्रसन्नताके लिये सारथि होना स्वीकार कर लिया।राजधानीमें प्रसन्नताकी लहर दौड़ पड़ी। दिग्विजय यात्रा समाप्तकर त्र्यरुण लौटनेवाले थे। रथ बड़ी तेजी से आगे बढ़ रहा था, राजधानी थोड़ी ही दूर रह गयी थी कि सहसा रथ राजपथपर रुक ही गया।
‘अनर्थ हो गया, महाराज! हमारी दिग्विजय यात्रा कलङ्कित हो गयी, रथके पहियेके नीचे एक ब्राह्मणकुमार दबकर स्वर्ग चला गया।’ वृशजानने गम्भीर साँस ली। ‘इस कलङ्ककी जड़ आप हैं, पुरोहित। आपने
रथका वेग बढ़ाकर घोर पाप कर डाला।’ महाराज थर थर काँपने लगे।
“दिग्विजयका श्रेय आपने लिया तो यह ब्रह्महत्याभी आपके ही सिरपर मढ़ी जायगी।’ पुरोहित वृशजानके शब्दोंसे महाराज तिलमिला उठे। दोनोंमें अनबन हो गयी। त्र्यरुणने उनके कथनकी अवज्ञा की ।
वृशजानने अथर्वाङ्गिरस मन्त्रके उच्चारणसे ब्राह्मण कुमारको जीवन दान दिया। उसके जीवित हो जानेपर | महाराजने उन्हें रोकनेकी बड़ी चेष्टा की; पर वृशजान अपमानित होनेसे राज्य छोड़कर दूसरी जगह चले गये।
पुरोहित वृशजानके चले जानेपर महाराज त्र्यरुण पश्चात्तापकी आगमें जलने लगे। मैंने मदोन्मत्त होकर अपने अभिन्न मित्रका अपमान कर डाला – यह सोच सोचकर वे बहुत व्यथित हुए। राजप्रासाद, राजधानी और सम्पूर्ण राज्यमें अग्नि देवताकी अकृपा हो गयी। यज्ञ आदि सत्कर्म समाप्त हो गये। महाराजने प्रजा समेत पुरोहितके चरणोंमें जाकर क्षमा माँगी, अपना अपराध स्वीकार किया। वृशजान राजधानीमें वापस आ गये। चारों ओर ‘स्वाहा स्वाहा’ का ही राज्य स्थापित हो गया। अग्रि देवताका तेज प्रज्वलित हो उठा। ‘मेरी समझमें आ गया मित्र! राज्यमें अग्नि-तेज घटनेका कारण।’ वृशजानने यज्ञ-कुण्डमें घीकी आहुति | देते हुए त्र्यरुणकी उत्सुकता बढ़ायी। महाराज आश्चर्य चकित थे।
‘यह है।’ वृशजानने त्र्यरुणकी रानी-पिशाचीको कपिश-गद्देके आसनपर बैठनेका आदेश दिया; वेदमन्त्रसेअग्निका आवाहन करते ही पिशाची स्वाहा हो गयी।
‘यह ब्रह्महत्या थी महाराज ! रानीके वेषमें राजप्रासादमें प्रवेशकर इसने राज्यश्रीका अपहरण कर लिया था।’ वृशजानने रहस्यका उद्घाटन किया। यज्ञ-कुण्डकीहोम-ज्वालासे चारों ओर प्रकाश छा गया। त्र्यरुणने वृशजानका आलिङ्गन किया। प्रजाने दोनोंकी जय मनायी । चारों ओर आनन्द बरसने लगा ।
(बृहद्देवता अ0 5। 14-23)

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