आर्ष-साहित्यकी बोधकथाएँ
ऋग्वेदकी मार्मिक बोधकथाएँ
[ऋग्वेद विश्वसाहित्यका सबसे श्रेष्ठ तथा प्राचीनतम ग्रन्थ है। यह भारतीय सनातन संस्कृति तथा परम्पराका मूलस्रोत है। वेदचतुष्टयीमें ऋग्वेदका मुख्य स्थान है। यद्यपि यजुर्वेद, सामवेद तथा अथर्ववेदमें भी ऋचाओंका गान हुआ है, तथापि ऋग्वेद मुख्यतः स्तुतिपरक है। ऋग्वेदमें स्तुतिपरक ऋचाओंके साथ ही ऋषियोंकी आर्षवाणीमें अनेक बोधपरक कथाओंका भी सूत्ररूपमें समावेश हुआ है, जिनसे लोकव्यवहारके ज्ञानके साथ ही पारमार्थिक उन्नतिका पथ भी प्रशस्त होता है।
कालान्तरमें आचार्य श्री ‘द्या’ द्विवेदने ऋग्वेदमें सूत्ररूपमें वर्णित नीतिकथाओंका संग्रहकर ‘नीतिमंजरी’ नामक एक विलक्षण ग्रन्थरत्नका प्रणयन किया। जिसमें प्रतिपादित बोधकथाएँ अत्यन्त प्रेरणाप्रद हैं तथा जीवनको सन्मार्गपर चलनेके लिये प्रेरित करती हैं और कर्तव्याकर्तव्यका निर्देश भी करती हैं। उन्हीं बोधपरक नीति-कथाओं में से कुछ कथाओंको यहाँ प्रस्तुत किया जा रहा है-सम्पादक
(1) निन्दा असत्कर्मोंका मूल है
स्वल्प भी निन्दा करना महान् पतनका कारण बनता है, यदि कहीं निन्दाका स्वभाव बन गया और परनिन्दामें रस आने लगे, आनन्द आने लगे तो समझना चाहिये कि इहलोक तो बिगड़ ही गया, परलोक भी बिगाड़ लिया। इसीलिये निन्दा कर्म अत्यन्त ही निकृष्ट कर्म है, दूसरेकी निन्दा करना मृत्युको वरण करनेके समान है। निन्दा करनेवालेके स्वभावमें अन्य सभी दोष स्वतः आ जाते हैं और वह चोरी, हिंसा, अनीति आदि सभी दुष्कर्मोंमें प्रवृत्त हो जाता है। ऋग्वेदने हमें निर्देश दिया है कि कभी भी किसीकी स्वल्प भी निन्दा न करे। ऋग्वेदमें इसी नीतिवचनको ‘वल’ नामक एक असुरके माध्यमसे समझाया है
त्वं वलस्य गोमतोऽपावरद्रिवो बिलम् ।
त्वां देवा अबिभ्युषस्तुज्यमानासआविषुः ॥
(ऋग्वेद 1।11।5)
मन्त्रमें बताया गया है कि प्राचीनकालमें ‘वल’ नामक एक महान् प्रतापी असुर था। अपने आसुरी स्वभावके कारण वह सदा दूसरोंकी निन्दा किया करता था। दूसरोंके गुणोंमें भी दोष-बुद्धि रखता था। छिद्रान्वेषणकी प्रवृत्तिने उसे असुरोंमें भी अधम बना दिया। ऐसे आसुर
स्वभाववाले लोग औरोंकी तो बात ही क्या, भगवान् तथा सन्तपुरुषोंमें भी असूयाका भाव रखते हैं। यही हाल बलासुरका हो गया। असूयादोषने उसे चौर्यादि निन्द्य कर्मोंमें प्रवृत्त कर दिया। वह देवताओं तथा दैवी सम्पदासे ईर्ष्या- डाह रखने लगा। इन्द्रादि देवों तथा | देवलोककी गो-सम्पत्ति और वैभवको देखकर वह बड़ा ही दुखी रहता। देवलोककी सम्पदाको प्राप्तकर वह देवोंको नीचा दिखाना चाहता था। प्रत्यक्ष युद्धका साहस तो उसमें था नहीं; क्योंकि निन्दाके स्वभाववाले व्यक्तिमें आत्मविश्वासका सदा अभाव रहता है, वह हमेशा सशंकित तथा भयभीत रहता है। उसने देखा कि देवताओंकी मुख्य सम्पत्ति गौएँ हो हैं और गौओंमें ही देवत्व प्रतिष्ठित है, गौएँ नहीं रहेंगी तो देवोंकी सत्ता भी नहीं रहेगी, ऐसा विचारकर उसने गौओंको चुरा लेनेका निश्चय किया और फिर उसने एक दिन देवलोककी सभी गौओंका अपहरण कर लिया और एक पर्वतकी गुफामें उन्हें छिपा लिया। जब इन्द्रको वलासुरका ऐसा कुकृत्य ज्ञात हुआ तो उन्होंने देवगुरु बृहस्पतिजीसे परामर्श किया और फिर वे देवसेनाको लेकर उस स्थानपर गये, जहाँ गौएँ छिपायी हुई थीं। उनके आदेशपर देवसेनाने समस्त गौओंको गुफासे बाहर निकाल लिया और बादमें इन्द्रने वज्रसे उस चलासुरका वध कर दिया।
इस प्रकार निन्दावादमें रत बलासुर चौर्य आदि कर्मोंमें प्रवृत्त हो गया था और इसी कारण वह मारा गया। तात्पर्य यह है कि सभी असत्कर्मोंके मूलमें परनिन्दा, असूया – गुणोंमें दोषबुद्धि यह मुख्य हेतु है, अतः कल्याणकामी बुद्धिमान् व्यक्तिको चाहिये कि वह निन्दावादसे सदा दूर रहे और अच्छे कमोंमें ही प्रवृत्त रहे। असूयादोषको ही भगवान्ने उद्वेगकर वचन कहा है (गीता 17। 15) और वाणीके इस संयमको वाङ्मय तप कहा है।
नीतिमंजरीकारने ऋग्वेदकी इस नीतिकथाका इसप्रकार उल्लेख किया है
निन्दावादरतो न स्यात् परेषां नैव तस्करः
निन्दावादाद्धि गोहर्ता शक्रेणाभिहतो वलः ॥
(नीतिमंजरी 1।7)
आर्ष-साहित्यकी बोधकथाएँ
ऋग्वेदकी मार्मिक बोधकथाएँ
[ऋग्वेद विश्वसाहित्यका सबसे श्रेष्ठ तथा प्राचीनतम ग्रन्थ है। यह भारतीय सनातन संस्कृति तथा परम्पराका मूलस्रोत है। वेदचतुष्टयीमें ऋग्वेदका मुख्य स्थान है। यद्यपि यजुर्वेद, सामवेद तथा अथर्ववेदमें भी ऋचाओंका गान हुआ है, तथापि ऋग्वेद मुख्यतः स्तुतिपरक है। ऋग्वेदमें स्तुतिपरक ऋचाओंके साथ ही ऋषियोंकी आर्षवाणीमें अनेक बोधपरक कथाओंका भी सूत्ररूपमें समावेश हुआ है, जिनसे लोकव्यवहारके ज्ञानके साथ ही पारमार्थिक उन्नतिका पथ भी प्रशस्त होता है।
कालान्तरमें आचार्य श्री ‘द्या’ द्विवेदने ऋग्वेदमें सूत्ररूपमें वर्णित नीतिकथाओंका संग्रहकर ‘नीतिमंजरी’ नामक एक विलक्षण ग्रन्थरत्नका प्रणयन किया। जिसमें प्रतिपादित बोधकथाएँ अत्यन्त प्रेरणाप्रद हैं तथा जीवनको सन्मार्गपर चलनेके लिये प्रेरित करती हैं और कर्तव्याकर्तव्यका निर्देश भी करती हैं। उन्हीं बोधपरक नीति-कथाओं में से कुछ कथाओंको यहाँ प्रस्तुत किया जा रहा है-सम्पादक
(1) निन्दा असत्कर्मोंका मूल है
स्वल्प भी निन्दा करना महान् पतनका कारण बनता है, यदि कहीं निन्दाका स्वभाव बन गया और परनिन्दामें रस आने लगे, आनन्द आने लगे तो समझना चाहिये कि इहलोक तो बिगड़ ही गया, परलोक भी बिगाड़ लिया। इसीलिये निन्दा कर्म अत्यन्त ही निकृष्ट कर्म है, दूसरेकी निन्दा करना मृत्युको वरण करनेके समान है। निन्दा करनेवालेके स्वभावमें अन्य सभी दोष स्वतः आ जाते हैं और वह चोरी, हिंसा, अनीति आदि सभी दुष्कर्मोंमें प्रवृत्त हो जाता है। ऋग्वेदने हमें निर्देश दिया है कि कभी भी किसीकी स्वल्प भी निन्दा न करे। ऋग्वेदमें इसी नीतिवचनको ‘वल’ नामक एक असुरके माध्यमसे समझाया है
त्वं वलस्य गोमतोऽपावरद्रिवो बिलम् ।
त्वां देवा अबिभ्युषस्तुज्यमानासआविषुः ॥
(ऋग्वेद 1।11।5)
मन्त्रमें बताया गया है कि प्राचीनकालमें ‘वल’ नामक एक महान् प्रतापी असुर था। अपने आसुरी स्वभावके कारण वह सदा दूसरोंकी निन्दा किया करता था। दूसरोंके गुणोंमें भी दोष-बुद्धि रखता था। छिद्रान्वेषणकी प्रवृत्तिने उसे असुरोंमें भी अधम बना दिया। ऐसे आसुर
स्वभाववाले लोग औरोंकी तो बात ही क्या, भगवान् तथा सन्तपुरुषोंमें भी असूयाका भाव रखते हैं। यही हाल बलासुरका हो गया। असूयादोषने उसे चौर्यादि निन्द्य कर्मोंमें प्रवृत्त कर दिया। वह देवताओं तथा दैवी सम्पदासे ईर्ष्या- डाह रखने लगा। इन्द्रादि देवों तथा | देवलोककी गो-सम्पत्ति और वैभवको देखकर वह बड़ा ही दुखी रहता। देवलोककी सम्पदाको प्राप्तकर वह देवोंको नीचा दिखाना चाहता था। प्रत्यक्ष युद्धका साहस तो उसमें था नहीं; क्योंकि निन्दाके स्वभाववाले व्यक्तिमें आत्मविश्वासका सदा अभाव रहता है, वह हमेशा सशंकित तथा भयभीत रहता है। उसने देखा कि देवताओंकी मुख्य सम्पत्ति गौएँ हो हैं और गौओंमें ही देवत्व प्रतिष्ठित है, गौएँ नहीं रहेंगी तो देवोंकी सत्ता भी नहीं रहेगी, ऐसा विचारकर उसने गौओंको चुरा लेनेका निश्चय किया और फिर उसने एक दिन देवलोककी सभी गौओंका अपहरण कर लिया और एक पर्वतकी गुफामें उन्हें छिपा लिया। जब इन्द्रको वलासुरका ऐसा कुकृत्य ज्ञात हुआ तो उन्होंने देवगुरु बृहस्पतिजीसे परामर्श किया और फिर वे देवसेनाको लेकर उस स्थानपर गये, जहाँ गौएँ छिपायी हुई थीं। उनके आदेशपर देवसेनाने समस्त गौओंको गुफासे बाहर निकाल लिया और बादमें इन्द्रने वज्रसे उस चलासुरका वध कर दिया।
इस प्रकार निन्दावादमें रत बलासुर चौर्य आदि कर्मोंमें प्रवृत्त हो गया था और इसी कारण वह मारा गया। तात्पर्य यह है कि सभी असत्कर्मोंके मूलमें परनिन्दा, असूया – गुणोंमें दोषबुद्धि यह मुख्य हेतु है, अतः कल्याणकामी बुद्धिमान् व्यक्तिको चाहिये कि वह निन्दावादसे सदा दूर रहे और अच्छे कमोंमें ही प्रवृत्त रहे। असूयादोषको ही भगवान्ने उद्वेगकर वचन कहा है (गीता 17। 15) और वाणीके इस संयमको वाङ्मय तप कहा है।
नीतिमंजरीकारने ऋग्वेदकी इस नीतिकथाका इसप्रकार उल्लेख किया है
निन्दावादरतो न स्यात् परेषां नैव तस्करः
निन्दावादाद्धि गोहर्ता शक्रेणाभिहतो वलः ॥
(नीतिमंजरी 1।7)