ढूँड़ी भूसीकी कथा
[ लालचका दण्ड ]
एक गाँवमें एक गरीब ब्राह्मण-दम्पती रहते थे। वे भिक्षा माँग करके किसी तरहसे जीवन-यापन करते थे। एक दिन पण्डिताइनने कहा- ‘जाइये, कहींसे कुछ कमाकर लाइये।’ पण्डितने कहा-‘ठीक तो है, लेकिन परदेश जानेमें रास्तेके लिये क्या ले जायेंगे ?’ पण्डिताइनने ट्रेंडी और भूसी (अनाजके छिलकेके टुकड़े) का सत्तू बनाकर दो पोटलियोंमें बाँधकर दे दिया। पण्डितजी परदेश कमानेके लिये निकल पड़े। जाते-जाते दोपहरका समय हो गया। पण्डितजी एक कुआँ देखकर रुक गये, वहीं नहाया- धोया और पूजा-पाठ किया। उन्होंने खानेके लिये सत्तू निकाला और कहा-‘दूँड़ी खाऊँ या भूसी खाऊँ।’ यही कुछ देरतक वे कहते रहे।
उस कुएँ में ढूँड़ी और भूसी नामके दो भूत रहते थे। पण्डितजीकी बात सुनकर दोनों बहुत हैरान हो गये। वे डरते हुए उनके पास आकर खड़े हुए और हाथ जोड़कर पण्डितजीसे निवेदन करने लगे कि ‘महाराज ! हमको क्यों खाओगे ? हम आपको एक बटुली (भोजन बनानेका पात्र) दे देंगे। आपको जो खानेका मन होगा, उससे माँग लेंगे, वह आपको दे देगी।’ पण्डितजी ऐसी बटुली पाकर बहुत प्रसन्न हुए। शामको घरपर आ गये । उनको घर आया देख पण्डिताइनका पारा सातवें आसमानपर हो गया। किसी तरहसे सत्तूकी व्यवस्था करके भेजा था, फिर लौटकर घर चले आये। इसी तरहसे कमाया जाता है। कौन-सा सुख रखा है यहाँ, जो चले आये ? पण्डिताइन बिगड़ पड़ी। पण्डितजीने पण्डिताइनको शान्त करते हुए कहा- ‘गुस्सा मत होइये, हम कमाकर आये हैं। ‘इतनी जल्दी क्या कमा लाये ?’ पण्डिताइन उसी गुस्सेमें बोली। पण्डितने कहा- ‘शामको बताऊँगा।’
जब सूर्य डूब गया, अँधेरेने पृथ्वीपर अपना साम्राज्य स्थापित कर लिया, तो पण्डिताइनने कहा ‘आज तो उपवास ही करना पड़ेगा, घरमें कुछ भी नहीं 4 है।’ ‘उपवास क्यों करना पड़ेगा, जो कहिये, वही आपको खिलाते हैं,’ पण्डितजीने कहा। ‘अरे पण्डित ! क्या पूड़ी-सब्जी खिला सकते हो ?’ पण्डिताइनने कहा तो पण्डितने पूरे आत्मविश्वाससे कहा- ‘हाँ-हाँ क्यों नहीं खिला सकता हूँ।’
यह कहकर पण्डितजी झोलेमेंसे बटुली निकालकर, बोले-‘टँड़ी-भूसीकी असल हो तो दो खुराक पूड़ी सब्जी और खीर तुरंत परोस दो।’ इतनेमें बटुलीसे दो थालियोंमें पूड़ी, सब्जी और खीर लगा दी गयी। दोनों लोग बहुत दिन बाद भरपेट भोजन पाये थे। इतना स्वादिष्ट भोजन उन्होंने अपने जीवनमें कभी नहीं किया था। अब उनके भोजनकी विपत्ति दूर हो गयी। वे पूजा-पाठ करते और जब खाना होता तो बटुलीसे माँगकर खाते।
एक दिन पण्डित पण्डिताइनने बिरादरी-भोजके लिये विचार बनाया। बिरादरीको निमन्त्रण देकर सबको बैठाने आदिका इन्तजाम तो किया, परंतु भोजनकी व्यवस्था कुछ दिखायी नहीं पड़ रही थी और वे दोनों भी चिन्तारहित थे। जब भोजनका समय हुआ तो लोग खानेके लिये उठे। बटुलोकी करामातसे सभी लोगोंको अच्छा स्वादिष्ट भोजन कराया गया। लोग जो माँगते, वही उनके सामने पहुँच जाता। भोजनके बाद बिरादरी के लोग पंडितजीका बखान करते तथा अपनी कल्पनाओंमें डूबते-उतराते चले जा रहे थे। वे बात भी करते जा रहे थे कि इतना अच्छा भोज कभी किसीने नहीं किया। उनकी उस मड़ईमें अनेक प्रकारके मेवा-पकवान भर गये थे। नातेदार-रिश्तेदार कई दिनतक रुके रहे। अन्तमें पण्डित पण्डिताइनने सबको खूब खिला-पिलाकर विदा किया।
उस देशके राजा शामको टहलनेके लिये निकले थे। उन्होंने निमन्त्रणमें आये लोगोंसे पण्डितजीके द्वारा दिये गये भोजके बखानको अपने कानोंसे सुना। राजाके मनमें लालच आ गया। सुबह होते ही राजाने पण्डितजीके घरमें तलाशी लेनेके लिये सैनिकोंको भेज दिया तलाशीमें सैनिकोंको एक बटुलीके अलावा कुछ नहीं मिला। राजाका आदेश हुआ कि जाओ, उस बटुलीको ही लेकर चले आओ। सैनिक आये और बटुलीको लेकर चले गये।
‘एक गरीबका पेट भरना राजासे नहीं देखा गया। राजा उस बटुलीसे क्या कमा लेंगे ?’ ऐसी चर्चा नगरवासियोंमें होने लगी।
इधर पण्डित – पण्डिताइनके सामने अँधेरा छा गया। बटुलीके चले जानेसे फिर उनके उपवासके दिन आ गये। एक दिन पण्डित फिर टँड़ी-भूसीके पास गये। स्नान करके पूजा-पाठ करने बाद कहने लगे कि- ‘टँड़ी खाऊँ कि भूसी खाऊँ, टँड़ी खाऊँ कि भूसी खाऊँ।’ इस प्रकार कहनेपर दूँड़ी-भूसी पुनः हाथ जोड़कर उपस्थित हुए। बोले-‘हमको क्यों खाओगे ब्राह्मण महाराज, अब क्या चाहिये ?’
पण्डितजीने पूरी बात बता दी। उन्होंने पण्डितजीको एक मुँगरा (मिट्टी आदि कूटनेके लिये लकड़ीसे बनाया गया उपकरण) दिया और कहा- ‘घर जाइये और मुँगरासे कह दीजिये कि दूँड़ी-भूसीके असल मुँगरा हो तो जाकर बटुली ले आओ।’
पण्डितजी घर पहुँचे। उन्होंने मुँगरासे कहा कि ‘हूँड़ी भूसीके असल मुँगरा हो तो जाकर बटुली ले आओ।’ मुँगरा चल पड़ा। जो नौकर बटुली ले गया था, उसे लगा मारने, जो बचाने जाता, उसे भी मुँगरा मारने लगता। यह खबर राजाके पासतक गयी। राजा भी वहाँ गये, लालचके दण्डस्वरूप उन्हें भी दो-चार मुँगरा पड़ा, उन्होंने तुरंत बटुली देनेका आदेश दे दिया। मुँगराने बटुली लाकर पण्डितजीके सामने रख दी। अब पण्डितजीके पास बटुली और मुँगरा- ये दो शक्तिशाली उपकरण हो गये। वे सुखपूर्वक रहने लगे।
यह लोककथा इस बातका बोध कराती है कि पराये धनपर कुदृष्टि नहीं डालनी चाहिये, अन्यथा राजाकी भाँति व्यक्ति दण्डका भागी होता है।[ श्रीपवनकुमारसिंहजी ]
ढूँड़ी भूसीकी कथा
[ लालचका दण्ड ]
एक गाँवमें एक गरीब ब्राह्मण-दम्पती रहते थे। वे भिक्षा माँग करके किसी तरहसे जीवन-यापन करते थे। एक दिन पण्डिताइनने कहा- ‘जाइये, कहींसे कुछ कमाकर लाइये।’ पण्डितने कहा-‘ठीक तो है, लेकिन परदेश जानेमें रास्तेके लिये क्या ले जायेंगे ?’ पण्डिताइनने ट्रेंडी और भूसी (अनाजके छिलकेके टुकड़े) का सत्तू बनाकर दो पोटलियोंमें बाँधकर दे दिया। पण्डितजी परदेश कमानेके लिये निकल पड़े। जाते-जाते दोपहरका समय हो गया। पण्डितजी एक कुआँ देखकर रुक गये, वहीं नहाया- धोया और पूजा-पाठ किया। उन्होंने खानेके लिये सत्तू निकाला और कहा-‘दूँड़ी खाऊँ या भूसी खाऊँ।’ यही कुछ देरतक वे कहते रहे।
उस कुएँ में ढूँड़ी और भूसी नामके दो भूत रहते थे। पण्डितजीकी बात सुनकर दोनों बहुत हैरान हो गये। वे डरते हुए उनके पास आकर खड़े हुए और हाथ जोड़कर पण्डितजीसे निवेदन करने लगे कि ‘महाराज ! हमको क्यों खाओगे ? हम आपको एक बटुली (भोजन बनानेका पात्र) दे देंगे। आपको जो खानेका मन होगा, उससे माँग लेंगे, वह आपको दे देगी।’ पण्डितजी ऐसी बटुली पाकर बहुत प्रसन्न हुए। शामको घरपर आ गये । उनको घर आया देख पण्डिताइनका पारा सातवें आसमानपर हो गया। किसी तरहसे सत्तूकी व्यवस्था करके भेजा था, फिर लौटकर घर चले आये। इसी तरहसे कमाया जाता है। कौन-सा सुख रखा है यहाँ, जो चले आये ? पण्डिताइन बिगड़ पड़ी। पण्डितजीने पण्डिताइनको शान्त करते हुए कहा- ‘गुस्सा मत होइये, हम कमाकर आये हैं। ‘इतनी जल्दी क्या कमा लाये ?’ पण्डिताइन उसी गुस्सेमें बोली। पण्डितने कहा- ‘शामको बताऊँगा।’
जब सूर्य डूब गया, अँधेरेने पृथ्वीपर अपना साम्राज्य स्थापित कर लिया, तो पण्डिताइनने कहा ‘आज तो उपवास ही करना पड़ेगा, घरमें कुछ भी नहीं 4 है।’ ‘उपवास क्यों करना पड़ेगा, जो कहिये, वही आपको खिलाते हैं,’ पण्डितजीने कहा। ‘अरे पण्डित ! क्या पूड़ी-सब्जी खिला सकते हो ?’ पण्डिताइनने कहा तो पण्डितने पूरे आत्मविश्वाससे कहा- ‘हाँ-हाँ क्यों नहीं खिला सकता हूँ।’
यह कहकर पण्डितजी झोलेमेंसे बटुली निकालकर, बोले-‘टँड़ी-भूसीकी असल हो तो दो खुराक पूड़ी सब्जी और खीर तुरंत परोस दो।’ इतनेमें बटुलीसे दो थालियोंमें पूड़ी, सब्जी और खीर लगा दी गयी। दोनों लोग बहुत दिन बाद भरपेट भोजन पाये थे। इतना स्वादिष्ट भोजन उन्होंने अपने जीवनमें कभी नहीं किया था। अब उनके भोजनकी विपत्ति दूर हो गयी। वे पूजा-पाठ करते और जब खाना होता तो बटुलीसे माँगकर खाते।
एक दिन पण्डित पण्डिताइनने बिरादरी-भोजके लिये विचार बनाया। बिरादरीको निमन्त्रण देकर सबको बैठाने आदिका इन्तजाम तो किया, परंतु भोजनकी व्यवस्था कुछ दिखायी नहीं पड़ रही थी और वे दोनों भी चिन्तारहित थे। जब भोजनका समय हुआ तो लोग खानेके लिये उठे। बटुलोकी करामातसे सभी लोगोंको अच्छा स्वादिष्ट भोजन कराया गया। लोग जो माँगते, वही उनके सामने पहुँच जाता। भोजनके बाद बिरादरी के लोग पंडितजीका बखान करते तथा अपनी कल्पनाओंमें डूबते-उतराते चले जा रहे थे। वे बात भी करते जा रहे थे कि इतना अच्छा भोज कभी किसीने नहीं किया। उनकी उस मड़ईमें अनेक प्रकारके मेवा-पकवान भर गये थे। नातेदार-रिश्तेदार कई दिनतक रुके रहे। अन्तमें पण्डित पण्डिताइनने सबको खूब खिला-पिलाकर विदा किया।
उस देशके राजा शामको टहलनेके लिये निकले थे। उन्होंने निमन्त्रणमें आये लोगोंसे पण्डितजीके द्वारा दिये गये भोजके बखानको अपने कानोंसे सुना। राजाके मनमें लालच आ गया। सुबह होते ही राजाने पण्डितजीके घरमें तलाशी लेनेके लिये सैनिकोंको भेज दिया तलाशीमें सैनिकोंको एक बटुलीके अलावा कुछ नहीं मिला। राजाका आदेश हुआ कि जाओ, उस बटुलीको ही लेकर चले आओ। सैनिक आये और बटुलीको लेकर चले गये।
‘एक गरीबका पेट भरना राजासे नहीं देखा गया। राजा उस बटुलीसे क्या कमा लेंगे ?’ ऐसी चर्चा नगरवासियोंमें होने लगी।
इधर पण्डित – पण्डिताइनके सामने अँधेरा छा गया। बटुलीके चले जानेसे फिर उनके उपवासके दिन आ गये। एक दिन पण्डित फिर टँड़ी-भूसीके पास गये। स्नान करके पूजा-पाठ करने बाद कहने लगे कि- ‘टँड़ी खाऊँ कि भूसी खाऊँ, टँड़ी खाऊँ कि भूसी खाऊँ।’ इस प्रकार कहनेपर दूँड़ी-भूसी पुनः हाथ जोड़कर उपस्थित हुए। बोले-‘हमको क्यों खाओगे ब्राह्मण महाराज, अब क्या चाहिये ?’
पण्डितजीने पूरी बात बता दी। उन्होंने पण्डितजीको एक मुँगरा (मिट्टी आदि कूटनेके लिये लकड़ीसे बनाया गया उपकरण) दिया और कहा- ‘घर जाइये और मुँगरासे कह दीजिये कि दूँड़ी-भूसीके असल मुँगरा हो तो जाकर बटुली ले आओ।’
पण्डितजी घर पहुँचे। उन्होंने मुँगरासे कहा कि ‘हूँड़ी भूसीके असल मुँगरा हो तो जाकर बटुली ले आओ।’ मुँगरा चल पड़ा। जो नौकर बटुली ले गया था, उसे लगा मारने, जो बचाने जाता, उसे भी मुँगरा मारने लगता। यह खबर राजाके पासतक गयी। राजा भी वहाँ गये, लालचके दण्डस्वरूप उन्हें भी दो-चार मुँगरा पड़ा, उन्होंने तुरंत बटुली देनेका आदेश दे दिया। मुँगराने बटुली लाकर पण्डितजीके सामने रख दी। अब पण्डितजीके पास बटुली और मुँगरा- ये दो शक्तिशाली उपकरण हो गये। वे सुखपूर्वक रहने लगे।
यह लोककथा इस बातका बोध कराती है कि पराये धनपर कुदृष्टि नहीं डालनी चाहिये, अन्यथा राजाकी भाँति व्यक्ति दण्डका भागी होता है।[ श्रीपवनकुमारसिंहजी ]