मुनिवाहन – तिरुप्पनाळवार जातिके अन्त्यज माने जाते थे। धानके खेतमें पड़े हुए एक अन्त्यजको मिल गये थे। उसने इनका अत्यन्त प्यारसे लालन-पालन किया था। धर्मपिता गान-विद्यामें निपुण थे, इसलिये इन्होंने भी संगीतका अच्छा अभ्यास कर लिया था। वीणा ये अत्यन्त तन्मयतासे बजाते थे, किंतु भगवान्के मधुर नामके अतिरिक्त थे और कुछ नहीं गाते। भगवान्का नाम सुनते ही ये भावविह्वल हो जाया करते। श्रीरङ्गनाथ दर्शनकी इनको तीव्र उत्कण्ठा थी, किंतु अन्त्यज होनेके कारण ये मन्दिरमें जाकर मन्दिरकी मर्यादा नष्ट करना नहीं चाहते थे। ये तो अहर्निश भगवान के नामका जप और उनके स्वरूपके ध्यानमें तन्मय रहते । अवश्य ही ध्यान भङ्ग होनेके बाद ये उनके दर्शनके लिये आकुल हो जाते। प्रेमके कारण उनके नेत्रोंसे अश्रु- सरिता प्रवाहित होने लगती। हिचकियाँबँध जाती।
ये निशुलापुरी नामक अछूतोंकी बस्ती छोड़कर श्रीरङ्गक्षेत्रमें चले आये और कावेरीके दक्षिण तटपर एक छोटी-सी झोंपड़ी बनाकर रहने लगे। रात-दिन भगवान्के नाम-गुणोंका कीर्तन और उनका स्मरण करने लगे। उत्सवोंके अवसरपर जब भगवान् श्रीरङ्गनाथकी सवारी निकलती तब दूरसे उनके दर्शन करके ये उन्मत्त-से हो जाते। इनका मन-मयूर नृत्य करने लगता। ये बड़े सबेरे भगवान् श्रीरङ्गनाथका मार्ग स्वच्छ कर आया करते, जिससे भक्तजनोंको दर्शन करने जाते समय किसी प्रकारका कष्ट न हो।
इन्हें न कोई बुलाता और न ये कहीं जा सकते थे। इस प्रकार भजनके लिये इन्हें पर्याप्त सुविधा मिल गयी थी। एक दिन इन्होंने देखा झोंपड़ीमें एक महात्मा आये हैं। ये महात्माके चरणोंपर गिर पड़े। इनकेआश्चर्यकी सीमा नहीं थी। वे सोचने लगे, क्या मैं स्वप्न तो नहीं देख रहा हूँ। महात्माने बताया- ‘भैया, मैं भगवान् श्रीरङ्गनाथका तुच्छ सेवक हूँ। आपको कंधेपर चढ़ाकर मन्दिरमें ले चलनेके लिये भगवान्ने मुझे आज्ञा दी है, इसलिये आप मेरे कंधेपर आ जायँ और अपना चरण-स्पर्श कराकर मुझे कृतार्थ करें।’
मुनिवाहन बड़े संकोचमें पड़े, पर उनकी एक नहीं चली। वे भगवान्के आदेशानुसार उच्च कुलके ब्राह्मणके कंधे पर चढ़कर चले। उनका हृदय भर आया था। भगवान्की कृपा और उनका अद्भुत प्यार देखकर वेकरुण क्रन्दन कर रहे थे। अश्रु रुक नहीं रहे थे। वे मन्दिरमें पहुँचे। भगवान्का दर्शन करके कृतार्थ हो गये। उन्होंने रोते-रोते कहा- ‘प्रभो! आपने मुझे कृतार्थ कर दिया। मेरे कर्मके बन्धन समाप्त कर दिये। मैं किस प्रकार आपके गुण गाऊँ, दयामय!’ इस प्रकार स्तुति करते-करते उनकी वाणी रुक गयी। उनका शरीर चमकने लगा। लोगोंने देखा उनके मस्तकपर भगवान्का चरण रखा हुआ है और चारों ओर दिव्य प्रकाश छाया हुआ है। देखते-देखते मुनिवाहन उस दिव्य प्रकाशमें लीन हो गये। -शि0 दु0
मुनिवाहन – तिरुप्पनाळवार जातिके अन्त्यज माने जाते थे। धानके खेतमें पड़े हुए एक अन्त्यजको मिल गये थे। उसने इनका अत्यन्त प्यारसे लालन-पालन किया था। धर्मपिता गान-विद्यामें निपुण थे, इसलिये इन्होंने भी संगीतका अच्छा अभ्यास कर लिया था। वीणा ये अत्यन्त तन्मयतासे बजाते थे, किंतु भगवान्के मधुर नामके अतिरिक्त थे और कुछ नहीं गाते। भगवान्का नाम सुनते ही ये भावविह्वल हो जाया करते। श्रीरङ्गनाथ दर्शनकी इनको तीव्र उत्कण्ठा थी, किंतु अन्त्यज होनेके कारण ये मन्दिरमें जाकर मन्दिरकी मर्यादा नष्ट करना नहीं चाहते थे। ये तो अहर्निश भगवान के नामका जप और उनके स्वरूपके ध्यानमें तन्मय रहते । अवश्य ही ध्यान भङ्ग होनेके बाद ये उनके दर्शनके लिये आकुल हो जाते। प्रेमके कारण उनके नेत्रोंसे अश्रु- सरिता प्रवाहित होने लगती। हिचकियाँबँध जाती।
ये निशुलापुरी नामक अछूतोंकी बस्ती छोड़कर श्रीरङ्गक्षेत्रमें चले आये और कावेरीके दक्षिण तटपर एक छोटी-सी झोंपड़ी बनाकर रहने लगे। रात-दिन भगवान्के नाम-गुणोंका कीर्तन और उनका स्मरण करने लगे। उत्सवोंके अवसरपर जब भगवान् श्रीरङ्गनाथकी सवारी निकलती तब दूरसे उनके दर्शन करके ये उन्मत्त-से हो जाते। इनका मन-मयूर नृत्य करने लगता। ये बड़े सबेरे भगवान् श्रीरङ्गनाथका मार्ग स्वच्छ कर आया करते, जिससे भक्तजनोंको दर्शन करने जाते समय किसी प्रकारका कष्ट न हो।
इन्हें न कोई बुलाता और न ये कहीं जा सकते थे। इस प्रकार भजनके लिये इन्हें पर्याप्त सुविधा मिल गयी थी। एक दिन इन्होंने देखा झोंपड़ीमें एक महात्मा आये हैं। ये महात्माके चरणोंपर गिर पड़े। इनकेआश्चर्यकी सीमा नहीं थी। वे सोचने लगे, क्या मैं स्वप्न तो नहीं देख रहा हूँ। महात्माने बताया- ‘भैया, मैं भगवान् श्रीरङ्गनाथका तुच्छ सेवक हूँ। आपको कंधेपर चढ़ाकर मन्दिरमें ले चलनेके लिये भगवान्ने मुझे आज्ञा दी है, इसलिये आप मेरे कंधेपर आ जायँ और अपना चरण-स्पर्श कराकर मुझे कृतार्थ करें।’
मुनिवाहन बड़े संकोचमें पड़े, पर उनकी एक नहीं चली। वे भगवान्के आदेशानुसार उच्च कुलके ब्राह्मणके कंधे पर चढ़कर चले। उनका हृदय भर आया था। भगवान्की कृपा और उनका अद्भुत प्यार देखकर वेकरुण क्रन्दन कर रहे थे। अश्रु रुक नहीं रहे थे। वे मन्दिरमें पहुँचे। भगवान्का दर्शन करके कृतार्थ हो गये। उन्होंने रोते-रोते कहा- ‘प्रभो! आपने मुझे कृतार्थ कर दिया। मेरे कर्मके बन्धन समाप्त कर दिये। मैं किस प्रकार आपके गुण गाऊँ, दयामय!’ इस प्रकार स्तुति करते-करते उनकी वाणी रुक गयी। उनका शरीर चमकने लगा। लोगोंने देखा उनके मस्तकपर भगवान्का चरण रखा हुआ है और चारों ओर दिव्य प्रकाश छाया हुआ है। देखते-देखते मुनिवाहन उस दिव्य प्रकाशमें लीन हो गये। -शि0 दु0