शिवकी कृपाके बिना काशीवास सम्भव नहीं
दक्षिण समुद्रके तटपर सेतुबन्धतीर्थके समीप कोई धनंजय नामवाला वैश्य रहता था। वह अपनी माताका बड़ा भक्त था। पुण्यके मार्गसे ही वह धन पैदा करता और उससे पाचकोंको सन्तुष्ट करता था। धनंजय यशोदानन्दन श्रीकृष्णका उपासक था। वह समस्त सद्गुणोंका भण्डार था. तो भी गुणियोंकी मण्डलीमें अपने गुणी स्वरूपको छिपाये रखनेकी चेष्टा करता था। यद्यपि व्यापारसे ही उसकी जीविका चलती थी, तो भी वह सत्यप्रिय था । ब्राह्मण आदि उसके गुणोंका बखान करते थे। इस प्रकार उत्तम वृत्ति और बर्तावसे रहते हुए उस वैश्यकी माता, जो वृद्धावस्थासे अत्यन्त आतुर तथा रोगग्रस्त हो रही थी, मृत्युको प्राप्त हो गयी।
पूर्वकालमें जब वह युवती थी तो उसने अपने पतिको धोखा देकर परपुरुषसमागम किया था। वह अपने पति और सनातन धर्मका परित्याग करके दुराचारका आश्रय ले स्वेच्छाचारिणी हो गयी थी। इसलिये मृत्युके बाद वह नरकमें गयी। उसका पुत्र धनंजय पूर्वजन्मको तपस्याका उदय होनेसे किसी शिवयोगीका साथ पाकर धर्माचरणमें तत्पर हुआ। वह माताका भक्त तो था ही, इसलिये उसने माताकी हड्डियाँ लेकर उन्हें पंचगव्य और पंचामृतसे स्नान कराया और यक्षकर्दम नामक गन्धका लेप करके फूलोंसे उनका पूजन किया। तत्पश्चात् उन्हें वस्त्रसे लपेटकर ऊपरसे रेशमी वस्त्र लपेटा। फिर चिकने सूती वस्त्रसे आवृत करके मजीठ (गेरुवा) के रंगमें रँगे हुए गेरुवे वस्त्रद्वारा उस पोटलीको आच्छादित किया। तदनन्तर नेपाली कम्बलसे ढककर उसपर शुद्ध मिट्टीका लेप कर दिया। तत्पश्चात् उसे ताँबेके सम्पुटमें रखकर वह गंगाजीके मार्गपर प्रस्थित हुआ। धनंजय पवित्रतापूर्वक रहता और वेदी या पवित्र भूमिपर सोता था। इस प्रकार उस गठरीको लाता हुआ वह रास्तेमें ज्वरसे ग्रस्त हो गया। तब उसने उचित मजदूरी देकर कोई कहार निश्चित किया और किसी तरह काशीपुरीमें आ पहुँचा। वहाँ वह कहारको रक्षाके लिये बिठाकर कुछ खाने-पीनेको वस्तु लेनेको बाजारमें गया। कहार अवसर पाकर उस भारमेंसे ताँबेका सम्पुट लेकर अपने घरकी ओर चल दिया। धनंजयने विश्रामस्थानपर लौटकर देखा तो सब सामग्रियोंमें वह ताँबेका सम्पुट नहीं दिखायी दिया। तब वह ‘हाय हाय’ करता हुआ उसे ढूँढ़नेको चला । और धीरे-धीरे उस कहारके घर जा पहुँचा। इधर वह कहार भी किसी वनमें पहुँचकर जब ताँबेके सम्पुटमें देखता है, तब उसे हड्डियाँ दिखायी देती हैं। यह देख उन्हें वहीं छोड़कर वह उदासभावसे घरको लौट गया। इसके बाद धनंजय उस कहारके घर पहुँचा और उसकी स्त्रीसे पूछने लगा- ‘सच बताओ, तुम्हारा पति कहाँ गया है? उसने मेरी माताकी हड्डियाँ ले ली हैं, उन्हें दिला दो । हड्डियोंको शीघ्र दिखाओ, मैं तुम्हें अधिक धन दूँगा।’ तब उसकी स्त्रीने पतिसे सब बातें कहीं। कहार लज्जासे मस्तक झुकाये सब वृत्तान्त बताकर धनंजयको अपने साथ वनमें ले गया। परंतु दैवयोगसे वह उस स्थानको भूल गया और दिशा भूल जानेके कारण वनमें इधर-उधर भटकने लगा। एक
वनसे दूसरे वनमें घूमते-घूमते वह थक गया और धनंजयको वहीं छोड़कर अपने घर लौट गया। दो तीन दिन वहाँ घूम-घामकर धनंजय भी काशीपुरीमें लौट आया। उसका मुख बहुत उदास हो गया था । धनंजय गयातीर्थ और प्रयागतीर्थका सेवन करके पुनः अपने देशको लौट गया। इस प्रकार भगवान् विश्वनाथकी आज्ञाके बिना उस स्त्रीकी हड्डियाँ काशीमें प्रवेश पाकर भी तत्काल बाहर हो गयीं। इसी प्रकार किसी पुण्यसे काशीमें पहुँचकर भी पापी मनुष्य उस क्षेत्रका फल नहीं पाता। वह तत्काल वहाँसे बाहर हो जाता है। अतः भगवान् विश्वनाथकी आज्ञा ही काशीमें रहनेका कारण होती है। [ स्कन्दपुराण ]
शिवकी कृपाके बिना काशीवास सम्भव नहीं
दक्षिण समुद्रके तटपर सेतुबन्धतीर्थके समीप कोई धनंजय नामवाला वैश्य रहता था। वह अपनी माताका बड़ा भक्त था। पुण्यके मार्गसे ही वह धन पैदा करता और उससे पाचकोंको सन्तुष्ट करता था। धनंजय यशोदानन्दन श्रीकृष्णका उपासक था। वह समस्त सद्गुणोंका भण्डार था. तो भी गुणियोंकी मण्डलीमें अपने गुणी स्वरूपको छिपाये रखनेकी चेष्टा करता था। यद्यपि व्यापारसे ही उसकी जीविका चलती थी, तो भी वह सत्यप्रिय था । ब्राह्मण आदि उसके गुणोंका बखान करते थे। इस प्रकार उत्तम वृत्ति और बर्तावसे रहते हुए उस वैश्यकी माता, जो वृद्धावस्थासे अत्यन्त आतुर तथा रोगग्रस्त हो रही थी, मृत्युको प्राप्त हो गयी।
पूर्वकालमें जब वह युवती थी तो उसने अपने पतिको धोखा देकर परपुरुषसमागम किया था। वह अपने पति और सनातन धर्मका परित्याग करके दुराचारका आश्रय ले स्वेच्छाचारिणी हो गयी थी। इसलिये मृत्युके बाद वह नरकमें गयी। उसका पुत्र धनंजय पूर्वजन्मको तपस्याका उदय होनेसे किसी शिवयोगीका साथ पाकर धर्माचरणमें तत्पर हुआ। वह माताका भक्त तो था ही, इसलिये उसने माताकी हड्डियाँ लेकर उन्हें पंचगव्य और पंचामृतसे स्नान कराया और यक्षकर्दम नामक गन्धका लेप करके फूलोंसे उनका पूजन किया। तत्पश्चात् उन्हें वस्त्रसे लपेटकर ऊपरसे रेशमी वस्त्र लपेटा। फिर चिकने सूती वस्त्रसे आवृत करके मजीठ (गेरुवा) के रंगमें रँगे हुए गेरुवे वस्त्रद्वारा उस पोटलीको आच्छादित किया। तदनन्तर नेपाली कम्बलसे ढककर उसपर शुद्ध मिट्टीका लेप कर दिया। तत्पश्चात् उसे ताँबेके सम्पुटमें रखकर वह गंगाजीके मार्गपर प्रस्थित हुआ। धनंजय पवित्रतापूर्वक रहता और वेदी या पवित्र भूमिपर सोता था। इस प्रकार उस गठरीको लाता हुआ वह रास्तेमें ज्वरसे ग्रस्त हो गया। तब उसने उचित मजदूरी देकर कोई कहार निश्चित किया और किसी तरह काशीपुरीमें आ पहुँचा। वहाँ वह कहारको रक्षाके लिये बिठाकर कुछ खाने-पीनेको वस्तु लेनेको बाजारमें गया। कहार अवसर पाकर उस भारमेंसे ताँबेका सम्पुट लेकर अपने घरकी ओर चल दिया। धनंजयने विश्रामस्थानपर लौटकर देखा तो सब सामग्रियोंमें वह ताँबेका सम्पुट नहीं दिखायी दिया। तब वह ‘हाय हाय’ करता हुआ उसे ढूँढ़नेको चला । और धीरे-धीरे उस कहारके घर जा पहुँचा। इधर वह कहार भी किसी वनमें पहुँचकर जब ताँबेके सम्पुटमें देखता है, तब उसे हड्डियाँ दिखायी देती हैं। यह देख उन्हें वहीं छोड़कर वह उदासभावसे घरको लौट गया। इसके बाद धनंजय उस कहारके घर पहुँचा और उसकी स्त्रीसे पूछने लगा- ‘सच बताओ, तुम्हारा पति कहाँ गया है? उसने मेरी माताकी हड्डियाँ ले ली हैं, उन्हें दिला दो । हड्डियोंको शीघ्र दिखाओ, मैं तुम्हें अधिक धन दूँगा।’ तब उसकी स्त्रीने पतिसे सब बातें कहीं। कहार लज्जासे मस्तक झुकाये सब वृत्तान्त बताकर धनंजयको अपने साथ वनमें ले गया। परंतु दैवयोगसे वह उस स्थानको भूल गया और दिशा भूल जानेके कारण वनमें इधर-उधर भटकने लगा। एक
वनसे दूसरे वनमें घूमते-घूमते वह थक गया और धनंजयको वहीं छोड़कर अपने घर लौट गया। दो तीन दिन वहाँ घूम-घामकर धनंजय भी काशीपुरीमें लौट आया। उसका मुख बहुत उदास हो गया था । धनंजय गयातीर्थ और प्रयागतीर्थका सेवन करके पुनः अपने देशको लौट गया। इस प्रकार भगवान् विश्वनाथकी आज्ञाके बिना उस स्त्रीकी हड्डियाँ काशीमें प्रवेश पाकर भी तत्काल बाहर हो गयीं। इसी प्रकार किसी पुण्यसे काशीमें पहुँचकर भी पापी मनुष्य उस क्षेत्रका फल नहीं पाता। वह तत्काल वहाँसे बाहर हो जाता है। अतः भगवान् विश्वनाथकी आज्ञा ही काशीमें रहनेका कारण होती है। [ स्कन्दपुराण ]