दशार्ण देशमें एक राजा रहता था वज्रबाहु वज्रबाहुकी पत्नी सुमति अपने नवजात शिशुके साथ किसी असाध्य रोगसे ग्रस्त हो गयी। यह देख दुष्ट बुद्धि राजाने उसे वनमें त्याग दिया। अनेकों प्रकारके कष्ट भोगती हुई वह आगे बढ़ी। बहुत दूर जानेपर उसे एक नगर मिला। उस नगरका रक्षक पद्माकर नामका एक महाजन था। उसकी दासीने रानीपर दया की और उसे अपने स्वामीके यहाँ आश्रय दिलाया। पद्माकर रानीको माताके समान आदरकी दृष्टिसे देखता था। उसने उन दोनों माँ-बेटेकी चिकित्साकेलिये बड़े-बड़े वैद्य नियुक्त किये; तथापि रानीका पुत्र नहीं बच सका, मर ही गया। पुत्रके मरनेपर रानी मूच्छित हो गयी और बेहोश होकर पृथ्वीपर गिर पड़ी। इसी समय ऋषभ नामके प्रसिद्ध शिवयोगी वहाँ आ पहुँचे। उन्होंने उसे विलाप करते देख कहा- ‘बेटी ! तुम इतना क्यों रो रही हो? फेनके समान इस शरीरकी मृत्यु होनेपर विद्वान् पुरुष शोक नहीं करते। कल्पान्तजीवी देवताओंकी भी आयुमें उलट-फेर होता है। कोई कालको इस शरीरकी उत्पत्तिमें कारण बताते हैं, कोईकर्मको और कोई गुणोंको। वस्तुतः काल, कर्म और गुण- इन तीनोंसे ही शरीरका आधान हुआ है। जीव अव्यक्तसे उत्पन्न होता है, अव्यक्तमें ही लीन होता है। केवल मध्यमें बुलबुलेको भाँति व्यक्त-सा प्रतीत होता है पूर्वकर्मानुसार ही जीवको शरीरको प्राप्ति होती है। कर्मोंके अनुरूप ही उसे सुख-दुःखकी भी प्राप्ति होती है। कर्मोंका उल्लङ्घन करना असम्भव है। कालका भी अतिक्रमण करना किसीके लिये सम्भव नहीं। जगत्के समस्त पदार्थ मायामय तथा अनित्य हैं। इसलिये तुम्हें शोक नहीं करना चाहिये। जैसे स्वप्नके पदार्थ, इन्द्रजाल, गन्धर्व-नगर, शरद् ऋतुके बादल अत्यन्त क्षणिक होते. हैं, उसी प्रकार यह मनुष्यशरीर भी है। अवतक तुम्हारे अरबों जन्म बीत चुके हैं। अब तुम्हीं बताओ, तुम किसकी किसकी पुत्री, किसकी किसकी माता और किसकी किसकी पत्नी हो ? मृत्यु सर्वथा अनिवार्य है। कोई भी व्यक्ति अपनी तपस्या, विद्या, बुद्धि, मन्त्र, ओषधि तथा रसायनसे इसका उल्लङ्घन नहीं कर सकता। आज एक जीवकी मृत्यु होती है तो कल दूसरेकी इस जन्म मरणके चक्करसे बचनेके लिये उमापति भगवान् महादेव ही एकमात्र शरण हैं। जब मन सब प्रकारको आसक्तियोंसे अलग होकर भगवान् शंकरके ध्यानमें मग्न हो जाता है, तब फिर इस संसारमें जन्म नहीं होता। भद्रे! यह मन शिवके ध्यानके लिये हैं। इसे शोक मोहमें मत डुबाओ।’
शिवयोगीके तत्त्वभरे करुणापूर्ण उपदेशोंको सुनकर रानीने कहा- ‘भगवन्! जिसका एकमात्र पुत्र मर गया हो, जिसे प्रिय बन्धुओंने त्याग दिया हो और जो महान् रोगसे अत्यन्त पीड़ित हो, ऐसी मुझ अभागिनके लिये। मृत्युके अतिरिक्त और कौन गति है? इसलिये मैं इस शिशुके साथ ही प्राण त्याग देना चाहती हूँ। मृत्युके समय जो आपका दर्शन हो गया, मैं इतनेसे ही कृतार्थ हो गयी।”
रानीकी बात सुनकर दयानिधान शिवयोगी शिव मन्त्रसे अभिमन्त्रित भस्म लेकर बालकके पास गये और उसके मुँहमें डाल दिया। विभूतिके पड़ते ही वह मरा हुआ बालक उठ बैठा। उन्होंने भस्मके प्रभावसे माँ बेटेके घावोंको भी दूर कर दिया। अब उन दोनों के शरीर दिव्य हो गये। ऋॠषभने रानीसे कहा- ‘बेटी!जबतक इस संसारमें जीवित रहोगी, वृद्धावस्था तुम्हारा स्पर्श नहीं करेगी। तुम दोनों दीर्घकालतक जीवित रहो। तुम्हारा यह पुत्र भद्रायु नामसे विख्यात होगा और अपना राज्य पुनः प्राप्त कर लेगा।”
यों कहकर ऋषभ चले गये। भद्रायु उसी वैश्य राजके घरमें बढ़ने लगा। वैश्यका भी एक पुत्र ‘सुनय’ था। दोनों कुमारोंमें बड़ा स्नेह हो गया। जब राजकुमारका सोलहवाँ वर्ष पूरा हुआ, तब वे ऋषभ योगी पुनः वहाँ आये। तबतक राजकुमार पर्याप्त पढ़-लिख चुका था। माताके साथ वह योगीके चरणोंपर गिर पड़ा। माताने अपने पुत्रके लिये कुछ उचित शिक्षाको प्रार्थना की। इसपर ऋषभ बोले- “वेद, स्मृति और पुराणोंमें जिसका उपदेश किया गया है, वही ‘सनातनधर्म’ है। सभीको चाहिये कि अपने-अपने वर्ण तथा आश्रमके शास्त्रोक्त धर्मोका पालन करें। तुम भी उत्तम आचारका ही पालन करो। देवताओंकी आज्ञाका कभी उल्लङ्घन न करो। गौ-ब्राह्मण देवता- गुरुके प्रति सदा भक्तिभाव रखो। खान, जप, होम, स्वाध्याय, पितृतर्पण, गोपूजा, देवपूजा और अतिथिपूजामें कभी भी आलस्यको समीप न आने दो। क्रोध, द्वेष, भय, शठता, चुगली, कुटिलता आदिका यत्नपूर्वक त्याग करो। अधिक भोजन, अधिक बातचीत, अधिक खोलकूद तथा दाविलासको सदके लिये छोड़ दो। अधिक विद्या, अधिक श्रद्धा, अधिक पुण्य, अधिक स्मरण, अधिक उत्साह, अधिक प्रसिद्धि और अधिक धैर्य जैसे भी प्राप्त हो, इसके लिये सदा प्रयत्न करो। अनुराग साधुओंमें करो। धूर्त, क्रोधी, पतित, नास्तिक और कुटिल मनुष्यको दूरसे ही त्याग क्रूर, छली, दो अपनी प्रशंसा न करो। पापरहित मनुष्योंपर संदेह न करो। माता, पिता और गुरुके कोपसे बचो। आयु यश, बल, पुण्य, शान्ति जिस उपायसे मिले, उसीका अनुष्ठान करो। देश, काल, शक्ति, कर्तव्य, अकर्तव्य आदिका भलीभाँति विचार करके यलपूर्वक कर्म करो। स्नान, जप, पूजा, हवन, श्राद्धादिमें उतावली न करो। वेदवेत्ता ब्राह्मण, शान्त संन्यासी, पुण्य वृक्ष, नदी, तीर्थ, सरोवर, धेनु, वृषभ, पतिव्रता स्त्री और अपने घरके देवताओंके पास जाते ही नमस्कार करो।’
यों कहकर शिवयोगीने भद्रायुको शिवकवच, एक शत्रु और खड्ग दिया। फिर भस्मको अभिमन्त्रितकरउसके शरीरमें लगाया, जिससे भद्रायमें बारह हजार हाथियोंका बल हो गया। तदनन्तर योगीने कहा- ‘ये खड्ग और शङ्ख दोनों ही दिव्य हैं, इन्हें देख-सुनकर ही तुम्हारे शत्रु नष्ट हो जायँगे।’
इधर वज्रबाहुको शत्रुओंने परास्त करके बाँध लिया, उसकी रानियोंका अपहरण कर लिया और दशार्ण देशका राज्य नष्ट-भ्रष्ट कर दिया। इसे सुनते हो भद्रायु सिंहकी भाँति गर्जना करने लगा। उसनेजाकर शत्रुओंपर आक्रमण किया और उन्हें नष्टकर अपने पिताको मुक्त कर लिया। निषधराजकी कन्या कीर्तिमालिनीसे उसका विवाह हुआ। वज्रबाहुको अपनी योग्य पत्नीसे मिलकर बड़ी लज्जा हुई। उन्होंने राज्य अपने पुत्रको सौंप दिया। तदनन्तर भद्रायु समस्त पृथ्वीके सार्वभौम चक्रवर्ती सम्राट् हो गये।
– जा0 श0
(स्कन्दपुराण, ब्राह्मखण्ड, ब्रह्मोत्तरखण्ड, अध्याय10-11)
दशार्ण देशमें एक राजा रहता था वज्रबाहु वज्रबाहुकी पत्नी सुमति अपने नवजात शिशुके साथ किसी असाध्य रोगसे ग्रस्त हो गयी। यह देख दुष्ट बुद्धि राजाने उसे वनमें त्याग दिया। अनेकों प्रकारके कष्ट भोगती हुई वह आगे बढ़ी। बहुत दूर जानेपर उसे एक नगर मिला। उस नगरका रक्षक पद्माकर नामका एक महाजन था। उसकी दासीने रानीपर दया की और उसे अपने स्वामीके यहाँ आश्रय दिलाया। पद्माकर रानीको माताके समान आदरकी दृष्टिसे देखता था। उसने उन दोनों माँ-बेटेकी चिकित्साकेलिये बड़े-बड़े वैद्य नियुक्त किये; तथापि रानीका पुत्र नहीं बच सका, मर ही गया। पुत्रके मरनेपर रानी मूच्छित हो गयी और बेहोश होकर पृथ्वीपर गिर पड़ी। इसी समय ऋषभ नामके प्रसिद्ध शिवयोगी वहाँ आ पहुँचे। उन्होंने उसे विलाप करते देख कहा- ‘बेटी ! तुम इतना क्यों रो रही हो? फेनके समान इस शरीरकी मृत्यु होनेपर विद्वान् पुरुष शोक नहीं करते। कल्पान्तजीवी देवताओंकी भी आयुमें उलट-फेर होता है। कोई कालको इस शरीरकी उत्पत्तिमें कारण बताते हैं, कोईकर्मको और कोई गुणोंको। वस्तुतः काल, कर्म और गुण- इन तीनोंसे ही शरीरका आधान हुआ है। जीव अव्यक्तसे उत्पन्न होता है, अव्यक्तमें ही लीन होता है। केवल मध्यमें बुलबुलेको भाँति व्यक्त-सा प्रतीत होता है पूर्वकर्मानुसार ही जीवको शरीरको प्राप्ति होती है। कर्मोंके अनुरूप ही उसे सुख-दुःखकी भी प्राप्ति होती है। कर्मोंका उल्लङ्घन करना असम्भव है। कालका भी अतिक्रमण करना किसीके लिये सम्भव नहीं। जगत्के समस्त पदार्थ मायामय तथा अनित्य हैं। इसलिये तुम्हें शोक नहीं करना चाहिये। जैसे स्वप्नके पदार्थ, इन्द्रजाल, गन्धर्व-नगर, शरद् ऋतुके बादल अत्यन्त क्षणिक होते. हैं, उसी प्रकार यह मनुष्यशरीर भी है। अवतक तुम्हारे अरबों जन्म बीत चुके हैं। अब तुम्हीं बताओ, तुम किसकी किसकी पुत्री, किसकी किसकी माता और किसकी किसकी पत्नी हो ? मृत्यु सर्वथा अनिवार्य है। कोई भी व्यक्ति अपनी तपस्या, विद्या, बुद्धि, मन्त्र, ओषधि तथा रसायनसे इसका उल्लङ्घन नहीं कर सकता। आज एक जीवकी मृत्यु होती है तो कल दूसरेकी इस जन्म मरणके चक्करसे बचनेके लिये उमापति भगवान् महादेव ही एकमात्र शरण हैं। जब मन सब प्रकारको आसक्तियोंसे अलग होकर भगवान् शंकरके ध्यानमें मग्न हो जाता है, तब फिर इस संसारमें जन्म नहीं होता। भद्रे! यह मन शिवके ध्यानके लिये हैं। इसे शोक मोहमें मत डुबाओ।’
शिवयोगीके तत्त्वभरे करुणापूर्ण उपदेशोंको सुनकर रानीने कहा- ‘भगवन्! जिसका एकमात्र पुत्र मर गया हो, जिसे प्रिय बन्धुओंने त्याग दिया हो और जो महान् रोगसे अत्यन्त पीड़ित हो, ऐसी मुझ अभागिनके लिये। मृत्युके अतिरिक्त और कौन गति है? इसलिये मैं इस शिशुके साथ ही प्राण त्याग देना चाहती हूँ। मृत्युके समय जो आपका दर्शन हो गया, मैं इतनेसे ही कृतार्थ हो गयी।”
रानीकी बात सुनकर दयानिधान शिवयोगी शिव मन्त्रसे अभिमन्त्रित भस्म लेकर बालकके पास गये और उसके मुँहमें डाल दिया। विभूतिके पड़ते ही वह मरा हुआ बालक उठ बैठा। उन्होंने भस्मके प्रभावसे माँ बेटेके घावोंको भी दूर कर दिया। अब उन दोनों के शरीर दिव्य हो गये। ऋॠषभने रानीसे कहा- ‘बेटी!जबतक इस संसारमें जीवित रहोगी, वृद्धावस्था तुम्हारा स्पर्श नहीं करेगी। तुम दोनों दीर्घकालतक जीवित रहो। तुम्हारा यह पुत्र भद्रायु नामसे विख्यात होगा और अपना राज्य पुनः प्राप्त कर लेगा।”
यों कहकर ऋषभ चले गये। भद्रायु उसी वैश्य राजके घरमें बढ़ने लगा। वैश्यका भी एक पुत्र ‘सुनय’ था। दोनों कुमारोंमें बड़ा स्नेह हो गया। जब राजकुमारका सोलहवाँ वर्ष पूरा हुआ, तब वे ऋषभ योगी पुनः वहाँ आये। तबतक राजकुमार पर्याप्त पढ़-लिख चुका था। माताके साथ वह योगीके चरणोंपर गिर पड़ा। माताने अपने पुत्रके लिये कुछ उचित शिक्षाको प्रार्थना की। इसपर ऋषभ बोले- “वेद, स्मृति और पुराणोंमें जिसका उपदेश किया गया है, वही ‘सनातनधर्म’ है। सभीको चाहिये कि अपने-अपने वर्ण तथा आश्रमके शास्त्रोक्त धर्मोका पालन करें। तुम भी उत्तम आचारका ही पालन करो। देवताओंकी आज्ञाका कभी उल्लङ्घन न करो। गौ-ब्राह्मण देवता- गुरुके प्रति सदा भक्तिभाव रखो। खान, जप, होम, स्वाध्याय, पितृतर्पण, गोपूजा, देवपूजा और अतिथिपूजामें कभी भी आलस्यको समीप न आने दो। क्रोध, द्वेष, भय, शठता, चुगली, कुटिलता आदिका यत्नपूर्वक त्याग करो। अधिक भोजन, अधिक बातचीत, अधिक खोलकूद तथा दाविलासको सदके लिये छोड़ दो। अधिक विद्या, अधिक श्रद्धा, अधिक पुण्य, अधिक स्मरण, अधिक उत्साह, अधिक प्रसिद्धि और अधिक धैर्य जैसे भी प्राप्त हो, इसके लिये सदा प्रयत्न करो। अनुराग साधुओंमें करो। धूर्त, क्रोधी, पतित, नास्तिक और कुटिल मनुष्यको दूरसे ही त्याग क्रूर, छली, दो अपनी प्रशंसा न करो। पापरहित मनुष्योंपर संदेह न करो। माता, पिता और गुरुके कोपसे बचो। आयु यश, बल, पुण्य, शान्ति जिस उपायसे मिले, उसीका अनुष्ठान करो। देश, काल, शक्ति, कर्तव्य, अकर्तव्य आदिका भलीभाँति विचार करके यलपूर्वक कर्म करो। स्नान, जप, पूजा, हवन, श्राद्धादिमें उतावली न करो। वेदवेत्ता ब्राह्मण, शान्त संन्यासी, पुण्य वृक्ष, नदी, तीर्थ, सरोवर, धेनु, वृषभ, पतिव्रता स्त्री और अपने घरके देवताओंके पास जाते ही नमस्कार करो।’
यों कहकर शिवयोगीने भद्रायुको शिवकवच, एक शत्रु और खड्ग दिया। फिर भस्मको अभिमन्त्रितकरउसके शरीरमें लगाया, जिससे भद्रायमें बारह हजार हाथियोंका बल हो गया। तदनन्तर योगीने कहा- ‘ये खड्ग और शङ्ख दोनों ही दिव्य हैं, इन्हें देख-सुनकर ही तुम्हारे शत्रु नष्ट हो जायँगे।’
इधर वज्रबाहुको शत्रुओंने परास्त करके बाँध लिया, उसकी रानियोंका अपहरण कर लिया और दशार्ण देशका राज्य नष्ट-भ्रष्ट कर दिया। इसे सुनते हो भद्रायु सिंहकी भाँति गर्जना करने लगा। उसनेजाकर शत्रुओंपर आक्रमण किया और उन्हें नष्टकर अपने पिताको मुक्त कर लिया। निषधराजकी कन्या कीर्तिमालिनीसे उसका विवाह हुआ। वज्रबाहुको अपनी योग्य पत्नीसे मिलकर बड़ी लज्जा हुई। उन्होंने राज्य अपने पुत्रको सौंप दिया। तदनन्तर भद्रायु समस्त पृथ्वीके सार्वभौम चक्रवर्ती सम्राट् हो गये।
– जा0 श0
(स्कन्दपुराण, ब्राह्मखण्ड, ब्रह्मोत्तरखण्ड, अध्याय10-11)