श्रेष्ठ
पवित्रता क्या है ?
एक समयकी बात है, एक संन्यासी था, जो संन्यासके हर नियम-कानूनको गम्भीरतासे मानता था। वह अपना ज्यादातर समय पूजा पाठमें ही व्यतीत करता था। उसके आश्रमके सामने एक वेश्या रहती थी। हालातकी मजबूरियोंने उसे इस बुरे व्यवसायमें धकेल दिया था, पर उसका मन शुद्ध धार्मिक जीवनके लिये तरसता था। इसके विपरीत संन्यासीका मन सांसारिक भोगोंके लिये लालायित रहता था।
सालों-साल यूँ ही बीत गये। भाग्यके खेलसे दोनोंकी मृत्यु एक ही समय हुई। संन्यासीका शव बड़ी शानोशौकतसे नगरकी मुख्य सड़कोंपर घुमाया गया। उस वेश्याके शवको नगरसे बाहर फेंक दिया गया, जहाँ वह जंगली कुत्तोंका भोजन बना।
बादमें श्रीविष्णुके दूत आये और वेश्याकी आत्माको स्वर्गलोक ले गये। संन्यासीकी आत्माको लेने यमराजके दूत पधारे। परेशान होकरसंन्यासीकी आत्माने विष्णुके दूतसे पूछा- ‘श्रीमान् ! मैंने संयम और धार्मिकताके साथ जीवन-यापन किया है, पर मुझे नरककी सजा मिल रही है और इस वेश्याने अधर्मका जीवन जिया है, पर उसे स्वर्गका पुरस्कार मिल रहा है। क्या यह न्यायसंगत है ?”
दूतने कहा- ‘संन्यासीजी! आपका तन संन्यासीकाथा और मन वेश्याका। इसलिये आपके तनको पूरे सम्मानके साथ दफनाया गया, पर आपके अधर्मी मनको नरकमें ले जाना पड़ेगा। इस वेश्याके पापी शरीरमें एक पवित्र मन वास करता था। इसलिये इसके शरीरको कुत्तोंके सामने फेंका गया और इसके शुद्ध मनको स्वर्ग ले जाया जायगा। इसमें अन्याय कहाँ है? क्या यही न्यायसंगत फैसला नहीं है ?’
इस कहानीका तात्पर्य संन्यासीके जीवनकी अवहेलना करना या वेश्याके जीवनकी प्रशंसा करना नहीं है। यहाँ यह ज्ञान करानेका प्रयास किया गया है कि भगवान् कैसे एक निर्मल मनको पुरस्कृत करते हैं और मलिन मनको अस्वीकार करते हैं। धर्म यही निर्धारित करता है कि अन्दरकी स्वच्छता ही मनुष्यको पवित्र बनाती है, न कि साबुन और जल। हमें अपने अन्तर्मनको निर्मल रखना चाहिये।
अतः अगर हमें भगवान्से आशीर्वाद माँगनेका मौका मिले तो यही माँगना चाहिये कि हमें एक पवित्र मनका आशीर्वाद दें।
Best
What is purity?
Once upon a time, there was a sannyasin who followed all the rules and regulations of sannyasin seriously. He used to spend most of his time in worship. A prostitute used to live in front of his ashram. Circumstances forced him into this evil occupation, but his heart longed for a pure religious life. On the contrary, the mind of a sannyasin used to yearn for worldly pleasures.
Years and years passed like this. Due to the game of fate, both of them died at the same time. The dead body of the monk was paraded with great pomp and show on the main streets of the city. The dead body of that prostitute was thrown out of the city, where it became food for wild dogs.
Later the messengers of Sri Vishnu came and took the soul of the prostitute to heaven. The messengers of Yamraj came to take the soul of the monk. Distressed, the soul of the hermit asked the messenger of Vishnu – ‘Sir! I have lived a life of abstinence and righteousness, but I am getting the punishment of hell and this prostitute has lived a life of unrighteousness, but she is getting the reward of heaven. Is it fair?”
The messenger said – ‘Sanyasiji! Your body is a story of an ascetic and your mind is that of a prostitute. That’s why your body was buried with full respect, but your unrighteous mind will have to be taken to hell. A pure mind resided in the sinful body of this prostitute. Therefore its body was thrown before the dogs and its pure mind would be taken to heaven. Where is the injustice in this? Is this not a just decision?’
The meaning of this story is not to disregard the life of a monk or to praise the life of a prostitute. Here an attempt has been made to explain how God rewards a pure mind and rejects a dirty mind. Religion determines that only internal cleanliness makes a man pure, not soap and water. We should keep our inner mind pure.
Therefore, if we get a chance to seek blessings from God, then we should only ask that He bless us with a sacred bead.