[28]”श्रीचैतन्य–चरितावली”

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।। श्रीहरि:।।

[भज] निताई-गौर राधेश्याम [जप] हरेकृष्ण हरेराम

नवद्वीप में दिग्विजयी पण्डित

सभायां पण्डिताः कोचित्केचित्पण्डितपण्डिताः।

गृहेषु पण्डिताः केचित्केचिन्मूर्खेषु पण्डिताः।।

भगवद्दत्त प्रतिभा भी एक अलौकिक वस्तु है। पता नहीं, किस मनुष्य में कब और कैसी प्रतिभा प्रस्फुटित हो उठे। अच्छे गाय कों को देखा है, वे पद को सुनते-सुनते ही कण्ठस्थ कर लेते हैं। सुयोग्य गायकों को दूसरी बार पद्य को पढ़ने की आवश्यकता नहीं होती, एक बार के सुनने पर ही उन्हें याद हो जाता है। किसी को जन्म से ही ताल, स्वर और राग-रागिनियों का ज्ञान होता है और वह अल्प वय में अच्छे-अच्छे धुरन्धरों को अपने गायन से आश्चर्यान्वित बना देता है। कोई कवि होकर ही माता के गर्भ से उत्पन्न होते हैं, जहाँ वे बोलने लगे, कि उनकी वाणी से कविता ही निकलने लगती है। कोई अनपढ़ होने पर भी ऐसे सुन्दर वक्ता होने हैं कि अच्छे-अच्छे शास्त्री और महामहोपाध्याय उनके व्याख्यान को सुनकर चकित हो जाते हैं। यह सब भगवद्दत्त शक्तियाँ हैं, इन्हें कोई परिश्रम करके प्राप्त करना चाहे तो असम्भव है। ये सब प्रतिभा के चमत्कार हैं और यह प्रतिभा पुरुष के जन्म के साथ ही आती है, काल पाकर वह प्रस्फुटित होने लगती है। बहुत-से विद्वानों को देखा गया है, वे सभी शास्त्रों के धुरन्धर विद्वान हैं, किन्तु सभा में वे एक अक्षर भी नहीं बोल सकते। इसके विपरीत बहुत-से ऐसे भी होते हैं जिन्होंने शास्त्रीय विषय तो बहुत कम देखा है किन्तु वे इतने प्रत्युत्पन्नमति होते हैं कि प्रश्न करते ही झट उसका उत्तर दे देते हैं। किसी भी विषय के प्रश्न पर उन्हें सोचना नहीं पड़ता, जो प्रश्न सुनते ही ऐसा युक्तियुक्त उत्तर देते हैं कि सभा के सभी सभासद वाह-वाह करने लगते हैं, इसी का नाम सभा-पाण्डित्य है। पहले जमाने में पण्डित के माने ही वावदूक वक्ता या व्याख्यानपटु किये जाते थे।

जिसकी वाणी में आकर्षण नहीं, जिसे प्रश्न के सुनने पर सोचना पड़ता है, जो तत्क्षण बात का उत्तर नहीं दे सकता, जिसे सभा में बोलने से संकोच होता है, वह पण्डित ही नहीं। सभा में ऐसे पण्डितों की प्रशंसा नहीं होती। पाण्डित्यप ने की कीर्ति के वे अधिकारी नहीं समझे जाते। वे तो पुस्तकीय जन्तु हैं जो पुस्तकें उलटते रहते हैं। आज से कई शताब्दी पूर्व इस देश में संस्कृत-साहित्य का अच्छा प्रचार था। राज्यसभाओं में बड़े-बड़े पण्डित रखे जाते थे, उन्हें समय-समय पर यथेष्ठ धन पारितोषिक के रूप में दिया जाता था। दूर-दूर से विद्वान सभाओं में शास्त्रार्थ करने आते थे और राजसभाओं की ओर से उनका सम्मान किया जाता था।

पण्डितों का शास्त्रार्थ सुनना उन दिनों राजा या धनिकों का एक आवश्यक मनोरंजन समझा जाता था। जो बोलने-चालने में अत्यन्त ही पटु होते थे, जिन्हें अपनी वक्तृत्व-शक्ति के साथ शास्त्रीय ज्ञान का भी पूर्ण अभिमान होता था, वे सम्पूर्ण देश में दिग्विजय के निमित्त निकलते थे। प्रायः ऐसे पण्डितों को किसी राजा या धनी का आश्रय होता था, उनके साथ बहुत-से और पण्डित, घोडे़, हाथी तथा और भी बहुत-से राजसी ठाट होते थे। वे विद्या के प्रसिद्ध-प्रसिद्ध केन्द्र-स्थानों में जाते और वहाँ जाकर डंके की चोट के साथ मुनादी कराते कि ‘जिसे अपने पाण्डित्य का अभिमान हो वह हमसे आकर शास्त्रार्थ करे। यदि वह हमें शास्त्रार्थ में परास्त कर देगा तो हम अपना सब धन छोड़कर लौट जायँगे और वे हमें परास्त न कर सके तो हम समझेंगे हमने यहाँ के सभी विद्वानों पर विजय प्राप्त कर ली। यदि किसी की हमसे शास्त्रार्थ करने की हिम्मत न हो तो हमें इस नगर के सभी पण्डित मिलकर अपने हस्ताक्षरों सहित विजय-पत्र लिख दें, हम शास्त्रार्थ किये बिना ही लौट जायँगे।’ उनकी ऐसी मुनादी को सुनकर कहीं के विद्वान तो मिलकर शास्त्रार्थ करते और कहीं के विजय-पत्र भी लिख देते, कहीं-कहीं के विद्वान उपेक्षा करके चुप भी हो जाते। दिग्विजयी अपनी विजय का डंका पीटकर दूसरी जगह चले जाते। धनी-मानी सज्जन ऐसे लोगों का खूब आदर करते थे और उन्हें यथेष्ठ द्रव्य भी भेंट में देते थे। इस प्रकार प्रायः सदा ही बड़े-बड़े शहरों में दिग्विजयी पण्डितों की धूम रहती।

चैतन्य देव के ही समय में चार-पाँच दिग्विजयी पण्डितों का उल्लेख मिलता है। आजकल यह प्रथा बहुत कम हो गयी है, किन्तु फिर भी दिग्विजयी आजकल भी दिग्विजय करते देखे गये हैं। हमने दो दिग्विजयी विद्वानों के दर्शन किये हैं, उनमें यही विशेषता थी कि वे प्रत्येक प्रश्न का उसी समय उत्तर देते थे। एक दिग्विजयी आचार्य को तो काशी जी में एक विद्यार्थी ने परास्त किया था, वह विद्यार्थी हमारे साथ पाठ सुनता था, बस, उसमें यही विशेषता थी कि वह धाराप्रवाह संस्कृत बड़ी उत्तम बोलता था। दिग्विजय के लिये वाक्पटुता की ही अत्यन्त आवश्यकता है। पाण्डित्य की शोभा तब और अब भी वाक्पटुता ही समझी जाती है। ऐसे ही एक काश्मीर के केशव शास्त्री अन्य स्थानों में दिग्विजय करते हुए नवद्वीप में भी विजय करने के लिये आये। उन दिनों नवद्वीप विद्या का और विशेषकर नव्य न्याय का प्रधान केन्द्र समझा जाता था। भारतवर्ष में उसकी सर्वत्र ख्याति थी। इसलिये नवद्वीप को विजय करने पर सम्पूर्ण पूर्वदेश विजित समझा जाता था।

उस समय भी नवद्वीप में गंगादास वैयाकरण, वासुदेव सार्वभौम नैयायिक, महेश्वर, विशरद, नीलाम्बर चक्रवर्ती, अद्वैताचार्य आदि धुरन्धर और नामी-नामी विद्वान् थे। नये पण्डितों में रघुनाथदास, भवानन्द, कमलाकान्त, मुरारीगुप्त, निमाई पण्डित आदि की भी यथेष्ठ ख्याति हो चुकी थी। नगर में चारों ओर दिग्विजयी की ही चर्चा थी। दस-पाँच पण्डित और विद्यार्थी जहाँ भी मिल जाते, दिग्विजयी की ही बात छिड़ जाती। कोई कहता- ‘नवद्वीप को विजय करके चला गया, तो नवद्वीप की नाक कट जायगी।’ कोई कहता- ‘अजी, न्याय वह क्या जाने, न्याय की ऐसी कठिन पंक्तियाँ पूछेंगे कि उसके होश दंग हो जायँगे।’ दूसरा कहता- ‘उसके सामने जायगा कौन? बड़े-बड़े पण्डित तो गद्दी छोड़कर सभाओं में जाना ही पंसद नहीं करते।’ इस प्रकार जिसकी समझ में जो आता वह वैसी ही बात कहता। प्रायः बड़े-बड़े विद्वान् सभाओं में शास्त्रार्थ नहीं करते। कुछ तो पढ़ाने के सिवा शास्त्रार्थ करना जानते ही नहीं, कुछ विद्वान होने पर शास्त्रार्थ कर भी लेते हैं, किन्तु उनमें चालाकी, धूर्तता और बात को उड़ा देने की विद्या नहीं होती, इसलिये चारों ओर घूम-घूमकर दिग्विजय करने वाले वावदूकों से वे घबड़ाते हैं। कुछ अपनी इज्जत-प्रतिष्ठा के डर से शास्त्रार्थ नहीं करते कि यदि हार गये तो लोगों में बड़ी बदनामी होगी। इसलिये बड़े-बड़े़ गम्भीर विद्वान् ऐसे कामों में उदासीन ही रहते हैं। विद्यार्थियों ने जाकर निमाई पण्डित से भी यह बात कही- ‘काश्मीर से एक दिग्विजयी पण्डित आये हैं। उनके साथ बहुत-से हाथी-घोड़े तथा विद्वान पण्डित भी हैं।

उनका कहना है, नदिया के विद्वान या तो हमसे शास्त्रार्थ करें, नहीं तो विजय-पत्र लिखकर दे दें। वैसे शास्त्रार्थ करने के लिये तो बहुत-से पण्डित तैयार हैं, किन्तु सुनते हैं, उन्हें सरस्वती सिद्ध है। शास्त्रार्थ के समय सरस्वती उनके कण्ठ में बैठकर शास्त्रार्थ करती है। इसी से वे सम्पूर्ण भारत को विजय कर आये हैं, सरस्वती के साथ भला कौन शास्त्रार्थ कर सकता है? इसलिये उन्हें बड़ा भारी अभिमान है। वे अभिमान में बार-बार कहते हैं- ‘मुझे शास्त्रार्थ में पराजय करने वाला तो पृथ्वी पर प्रकट ही नहीं हुआ है। इसलिये नदिया के सभी पण्डित डर गये हैं।’

विद्यार्थियों की बातें सुनकर पण्डितप्रवर निमाई ने कहा- ‘चाहे किसी का भी वरदान प्राप्त क्यों न हो, अभिमानी का अभिमान तो अवश्य ही चूर्ण होता है। भगवान का नाम ही मदहारी है, वे अभिमान ही का तो आहार करते हैं। रावण, वेन, नरकासुर, भस्मासुर आदि सभी ने घोर तप करके ब्रह्मा जी तथा शिवजी के बड़े-बड़े वर प्राप्त किये थे। दर्पहारी भगवान ने उनके भी दर्प को चूर्ण कर दिया। अभिमान करने से बड़े-बड़े़ पतित हो जाते हैं, फिर यह दिग्विजयी तो चीज ही क्या है?’ इस प्रकार विद्यार्थियों से कहकर आप गंगा-किनारे चले गये और वहाँ जाकर नित्य की भाँति जल-विहार और शास्त्रार्थ करने लगे। इन्होंने दिग्विजयी के सम्बन्ध में छात्रों से पता लगा लिया कि वह क्या-क्या करता है और एकान्त में गंगाजी पर आता है या नहीं, यदि आता है तो किस घाट पर और किस समय? पता चला कि अमुक घाट पर सन्ध्या-समय दिग्विजयी नित्य आकर बैठता है। निमाई उसी घाट पर अपने विद्यार्थियों के साथ जाने लगे और भी पाठशालाओं के विद्यार्थी कुतूहलवश वहीं आकर शास्त्रार्थ और वाद-विवाद करने लगे।

क्रमशः अगला पोस्ट [29]

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[ गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्री प्रभुदत्त ब्रह्मचारी कृत पुस्तक श्रीचैतन्य-चरितावली से ]



, Shri Hari:.

[Bhaj] Nitai-Gaur Radheshyam [Chant] Harekrishna Hareram

Digvijayi Pandit in Navadweep

Some in the assembly were learned men and some were learned men.

Some are wise in their own houses and some are wise in their own foolish ways.

Bhagavadatta Pratibha is also a supernatural thing. Don’t know, in which person, when and what kind of talent blossomed. Have seen good singers, they memorize the verse as soon as they hear it. Competent singers don’t need to read the verse a second time, they remember it just once. One has knowledge of taal, swar and raga-raginis since birth and at a young age he makes good musicians amazed with his singing. Some are born from the mother’s womb as a poet, where they start speaking, that poetry starts coming out of their speech. Even if someone is illiterate, he is such a beautiful speaker that good scholars and Mahamahopadhyay get amazed listening to his lectures. All these are Bhagavadatta powers, it is impossible if someone wants to achieve them by working hard. All these are miracles of talent and this talent comes with the birth of a man, after getting time it starts blooming. Many scholars have been seen, they are great scholars of all the scriptures, but they cannot speak even a single word in the assembly. On the contrary, there are many who have seen very little classical subjects, but they are so inventive that as soon as a question is asked, they answer it immediately. He does not have to think about the question of any subject, who, on hearing the question, gives such a sensible answer that all the members of the assembly start wowing, this is called the scholar of the assembly. In the earlier times, the Vavduk speakers or lecturers were made according to the Pandit.

One who does not have charm in his speech, who has to think on hearing the question, who cannot answer the matter immediately, who hesitates to speak in the gathering, is not a pundit at all. Such pundits are not praised in the assembly. They are not considered worthy of Pandityaap’s fame. They are bookish creatures who keep turning over the books. Several centuries ago, there was a good promotion of Sanskrit literature in this country. Big pundits were kept in the Rajya Sabhas, they were given from time to time as a reward. Scholars used to come from far and wide to debate in the assemblies and were respected by the royal assemblies.

In those days, listening to the scriptures of the pundits was considered an essential entertainment of the king or the rich. Those who were very clever in speaking and walking, who had full pride of classical knowledge along with their power of oratory, they used to go out for the cause of Digvijay in the whole country. Often such pundits had the patronage of a king or a rich man, they were accompanied by many more pundits, horses, elephants and many other royal trappings. They used to go to the famous centers of learning and go there and shout with stinging blows that ‘the one who is proud of his erudition should come and discuss the scriptures with us’. If he defeats us in debate, we will return leaving all our wealth and if he cannot defeat us, then we will think that we have conquered all the scholars here. If no one dares to argue with us, then all the scholars of this city together write us a victory letter with their signatures, we will return without arguing. They would have also written victory letters, at some places the scholars would have remained silent by neglecting them. Digvijay would have gone to another place after beating the sting of his victory. Rich and well-known gentlemen used to respect such people a lot and used to give them enough money as a gift. In this way, almost always in the big cities there was fame of Digvijay Pandits.

In the time of Chaitanya Dev, the mention of four-five digvijayi pundits is found. Nowadays this practice has reduced a lot, but still Digvijayis have been seen doing Digvijay even today. We have seen two digvijay scholars, their specialty was that they used to answer every question at the same time. A Digvijayi Acharya was defeated by a student in Kashi ji, that student used to listen to lessons with us, the only specialty in him was that he spoke fluent Sanskrit very well. Eloquence is very necessary for Digvijay. The beauty of erudition then and even now is considered to be eloquence. One such Keshav Shastri of Kashmir, after winning the glory in other places, came to win Navadvipa as well. In those days, Navadvipa was considered to be the main center of learning and especially Navya Nyaya. He was famous all over India. That’s why on conquering Navadvipa, the entire Purvadesha was considered conquered.

Even at that time Gangadas Vayakaran, Vasudev Sarvabhaum Naiyayik, Maheshwar, Visharad, Neelambar Chakraborty, Advaitacharya etc. were well-known scholars in Navadvipa. Raghunathdas, Bhavanand, Kamalakant, Murarigupt, Nimai Pandit etc. had also become well known among the new pundits. Digvijay was the talk of the town all around. Wherever ten-five pundits and students would meet, the talk of Digvijay would spread. Some said- ‘If he goes away after conquering Navadweep, Navadweep’s nose will be cut off.’ Some said- ‘Aji, how can he know justice, he will ask such difficult lines of justice that his senses will be stunned.’ Another says- ‘In front of him. Who will go? Big pundits do not like to leave the throne and go to the gatherings.’ In this way, he used to say whatever he understood. Generally great scholars do not debate in meetings. Some don’t know how to debate other than teaching, some even being scholars, do debate, but they don’t have the knowledge of cleverness, slyness and to blow things away, that’s why they are afraid of the Vaavdukas who roam around and win the glory. . Some do not do scriptures because of the fear of their reputation that if they lose then there will be a lot of defamation among the people. That’s why big and serious scholars remain indifferent in such works. The students went and told this to Nimai Pandit as well – ‘A Digvijayi Pandit has come from Kashmir. Many elephants-horses and learned pundits are also with them.

They say, the scholars of Nadia either debate with us, or else give them a victory letter in writing. By the way, many pundits are ready to debate, but they hear that Saraswati is proven to them. At the time of Shastrarth, Saraswati sits in his throat and does Shastrarth. This is why they have conquered the whole of India, who can argue with Saraswati? That’s why they have a lot of pride. He proudly says again and again- ‘The one who defeats me in debate has not appeared on earth at all. That’s why all the pundits of Nadia are scared.’

After listening to the words of the students, Pandit Pravar Nimai said- ‘Irrespective of the boon received from anyone, the pride of the proud definitely turns into powder. The very name of God is intoxicating, they only feed on pride. Ravana, Ven, Narakasura, Bhasmasur etc. all had obtained huge boons from Brahma ji and Shiv ji by doing great penance. Darpahari God reduced his pride too. Due to pride, great people fall, then what is this Digvijay thing?’ After saying this to the students, you went to the banks of the Ganges and went there and started doing water-walking and debates like everyday. He found out from the students about Digvijayi, what he does and whether he comes to Gangaji alone or not, if he comes then at which ghat and at what time? It came to know that Digvijay always comes and sits at Amuk Ghat in the evening. Nimai started going to the same ghat with his students and students from other schools also came there out of curiosity and started debates and debates.

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[From the book Sri Chaitanya-Charitavali by Sri Prabhudatta Brahmachari, published by Geetapress, Gorakhpur]

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