हमारे जीवन में सुख-दुख का आना-जाना लगा ही रहता है. यदि सुख है तो दुख भी आएंगे ही. इसलिए हमें हर स्थिति के लिए तैयार रहना चाहिए. यदि हम दुख के दिनों में भक्ति करेंगे तो न केवल हमारा मन ही मजबूत रहेगा बल्कि हमें दुखों से लड़ने का साहस भी बना रहेगा और निराशा भी हावी नहीं रहेगी. इस संदर्भ में महाभारत का एक प्रसंग इस प्रकार है.
जब महाभारत का यद्ध समाप्त हो गया और पाण्डवों की जीत के बाद युधिष्ठिर राजा बन गए तो, श्रीकृष्ण ने द्वारिका जाने का निर्णय लिया. जब श्रीकृष्ण ने यह बात पाण्डवों से कही तो उन्हें बड़ा दुख हुआ. जब श्रीकृष्ण रथ पर चढ़े और आगे बढ़ने लगे तो उनके सामने अचानक कुन्ती, जो कि श्री कृष्ण की बुआ लगती थी, आ गई. उन्हें आता देख श्रीकृष्ण ने अपने रथ को रोका और नीचे उतर आए.
श्रीकृष्ण कुन्ती को प्रणाम करते, उससे पहले ही कुन्ती ने श्रीकृष्ण को प्रणाम किया. तब श्रीकृष्ण बोले कि आप बड़ी हैं और मेरी मां के समान हैं, आप मुझे क्यों प्रणाम कर रही हैं. तब कुन्ती ने कहा कृष्ण में जानती हूं कि तुम भगवान हो, इसलिए मैं तुम्हारी भक्ति करना चाहती हूं. श्रीकृष्ण बोले, आप मुझे भगवान मानती हैं, तो कुछ वरदान मांग लीजिए.
कुन्ती ने कहा कि तुम वरदान में मुझे दुख दे दो. ये सुनकर श्रीकृष्ण हैरान हुए और कहा कि वैसे ही आपके जीवन में सुख नहीं आए और आप फ़िर से दुख मांग रही हैंहैं, ऐसा क्यों. तब कुन्ती बोली कि जब दुख आता है तो तुम याद आते हो और मन तुम्हारी भक्ति में लग जाता है. सुख रहेगा तो मन भक्ति से हट जाएगाजाएगा, इसलिए तुम मुझे दुख दे दो.
यह मानव प्रकृति है कि वह सुख में कभी भगवान को याद नहीं करता.