।। श्रीहरि:।।
[भज] निताई-गौर राधेश्याम [जप] हरेकृष्ण हरेराम
श्री श्री निवासाचार्य जी
गौरशक्तिधरं सौम्यं सुन्दरं सुमनोहरम्।
गोपालनुगतं विज्ञं श्रीनिवासं नमाम्यहम्।।
आचार्य श्री निवास जी के पूजनीय पितृदेव श्री चैतन्यदास बर्दवान जिले के अन्तर्गत चाकन्दी नामक ग्राम में रहते थे। वे श्री चैतन्यदेव के अनन्य भक्तों में से थे। असल में उनका नाम तो था गंगाधर भट्टाचार्य, किन्तु श्री चैतन्य के प्रेम-बाहुल्य के कारण लोग इन्हें ‘चैतन्यदास’ कहने लगे थे।
महाप्रभु जब गृह त्यागकर कटवा में केशव भारती के स्थान पर संन्यास-दीक्षा लेने आये, तब वहाँ उनके दर्शनों के लिये बहुत-से आदमी आये हुए थे। उन आगत मनुष्यों में से भट्टाचार्य गंगाधरजी भी थे। उन्होंने यह हृदयविदारक दृश्य अपनी आँखों से देखा था। बस, उसी शोक में ये पागलों की तरह हा चैतन्य ! हा चैतन्य ! कहकर फिरने लगे, तभी से वे चैतन्यदास के नाम से पुकारे जाने लगे !
ईश्वर की इच्छा बडी ही प्रबल होती है। वृद्धावस्था में चैतन्यदास जी को सन्तान का मुख देखने की इच्छा हुई। विवाह तो इनका बहुत पहले ही हो चुका था, इनकी धर्म पत्नी श्री लक्ष्मीप्रिया जी बड़ी ही पतिपरायणा सती-साध्वी नारी थीं। वे अपने पति को संसारी विषयों से विरक्त देखकर खिन्न नहीं होती थीं। पति की प्रसन्नता में ही ये अपनी प्रसन्नता समझतीं। इस वृद्धावस्था में दम्पत्ति को पुत्र-दर्शन की लालसा हुई। दोनों ही पति-पत्नी पुरी में महाप्रभु के दर्शनों के लिये गये। महाप्रभु ने आशीर्वाद दिया कि ‘तुम्हारे जो पुत्र होगा, उसमें हमारी शक्ति का अंश रहेगा, वह हमारा ही दूसरा विग्रह होगा।’ महाप्रभु का वरदान अन्यथा थोड़ी ही हो सकता था। इसके दूसरे वर्ष लक्ष्मीप्रिया जी ने चाकन्दी में एक पुत्ररत्न प्रसव किया। माता-पिता ने उसका नाम रखा श्रीनिवास। वे ही श्रीनिवास आगे चलकर श्रीनिवासाचार्य के नाम से भक्तों में अत्यधिक प्रसिद्ध हुए।
श्री निवास बाल्यकाल से ही बुद्धिमान, सुशील, सौम्य और मेधावी प्रतीत होते थे। सत्रह-अठारह वर्ष की अल्पावस्था में ही ये व्याकरण, काव्य तथा अलंकार-शास्त्रों में पारंगत हो गये थे। इनकी ननसाल जाजिग्राम में थी, इनके नाना श्री बलरामाचार्य भी परम भक्त और सच्चे वैष्णव थे। इनकी माता तो बड़ी पतिपरायणा और चैतन्य-चरणों में श्रद्धा रखने वाली थीं। बाल्यकाल से ही उसने अपने प्रिय पुत्र श्री निवास को चैतन्य लीलाएं कण्ठस्थ करा दी थीं। बच्चे के हृदय में बाल्यकाल की जमी हुई छाप सदा के लिये अमिट-सी हो जाती है। श्री निवास के हृदय में भी चैतन्य की मनमोहिनी मूर्ति समा गयी। वे चैतन्य–चरणों के दर्शनों के लिये छटपटाने लगे।
एक दिन ये अपनी ननसाल जाजि ग्राम को जा रहे थे, रास्ते में श्रीहट्ट-निवासी श्री नरहरि सरकार से इनकी भेंट हो गयी। सरकार महाशय महाप्रभु के अनन्य भक्त थे और गौर-भक्तों में वे ‘सरकार ठाकुर’ के नाम से प्रसिद्ध थे। पण्डित गोस्वामी[1] के ये अत्यन्त ही कृपापात्र थे। वे इनके ऊपर बहुत प्यार करते थे।
श्री निवास जी ने सरकार ठाकुर की ख्याति तो सुन रखी थी, किन्तु उनके दर्शन का सौभाग्य उन्हें आज तक कभी प्राप्त नहीं हुआ था। इधर ठाकुर सरकार ने भी बालक श्री निवास की असाधारण प्रतिभा और प्रभु परायणता की प्रशंसा सुन रखी थी और वे उस होनहार बालक को देखने के लिये लालायित भी थे। सहसा दोनों की रास्ते में भेंट हो गयी। श्री निवास जी ने श्रद्धा-भक्ति के सहित सरकार ठाकुर के चरणों में प्रणाम किया।
और सरकार ठाकुर ने इन्हें प्रेमालिंगन प्रदान करके प्रभु-प्रेमप्राप्ति का आशीर्वाद दिया। उन महापुरुष का आशीर्वाद पाकर श्रीनिवास अपनी ननसाल होकर लौट आये और अपने पिता से महाप्रभु की लीलाओं को बड़े ही चाव से सुनन लगे। उन्होंने एक-एक करके प्रभु के सभी अन्तरंग भक्तों के संक्षिप्त चरित्र जान लिये।
काल की गति विचित्र होती है, चैतन्यदास जी को ज्वर आने लगा और उसी ज्वर में वे इस असार संसार को त्यागकर वैकुण्ठवासी बन गये। श्रीनिवास अब पितृहीन हो गये। लक्ष्मीप्रिया पति के शोक में दिन-रात रोने लगी।
श्री निवास जी के नाना श्री बलरामाचार्य के कोई सन्तान नहीं थी, ये ही उनकी सम्पूर्ण सम्पत्ति के एकमात्र उत्तराधिकारी थे, अत: ये अपनी माता को लेकर जाजि ग्राम में जाकर रहने लगे। इनकी बार-बार इच्छा होती थी कि सब कुछ छोड़-छाड़कर श्री चैतन्य-चरणों की ही शरण लें, किन्तु स्नेहमयी माता के बन्धन के कारण वे ऐसा कर नहीं सकते थे, किन्तु एक बार पुरी चलकर उनके दर्शनों से तो इन नेत्रों को कृतार्थ कर लें यह उनकी प्रबल वासना थी। जाजि ग्राम की भक्त-मण्डली में इनका अत्यधिक आदर था। इस अल्पावस्था में ही इनकी ख्याति दूर-दूर तक फैल गयी थी। अत: इन्होंने अपनी इच्छा सरकार ठाकुर पर प्रकट की। सरकार ठाकुर ने प्रसन्नता प्रकट करते हुए कहा- ‘तुम पुरी जाकर श्रीचैतन्य-चरणों के दर्शन अवश्य करो। मैं तुम्हारे साथ एक आदमी किये देता हूँ।’ यह कहकर उन्होंने एक आदमी इनके साथ कर दिया और ये उसके साथ पुरी की ओर चल पड़े।
श्री चैतन्यदेव के प्रेम में विभोर हुए ये अनेक बातें सोचते जाते थे कि ‘श्री चैतन्यचरणों में जाकर यों प्रणत हूँगा, यों उनके प्रति अपना भक्ति-भाव प्रकट करूँगा। एक दिन स्वयं उन्हें अपने हाथों से बनाकर भिक्षा कराऊँगा।’ श्री चैतन्य–चरणों के दर्शनों की उत्कट उत्कण्ठा के कारण ही उनके मन में ऐसे भाव उठ रहे थे कि रास्ते में उन्होंने एक बडा ही हृदयविदारक समाचार सुना। ‘जिनके दर्शनों की लालसा से हम पुरी जा रहे हैं, वे तो अपनी लीला को संवरण कर चुके। चैतन्यदेव इस नश्वर शरीर को छोड़कर अपने नित्य–धाम को चले गये। इस समाचार को सुनते ही इनका हृदय फट गया, वे मूर्च्छित होकर पृथ्वी पर गिर पड़े। बड़ी देर के पश्चात इन्हें होश आया तब दु:खित मन से श्री चैतन्य की लीला स्थली के दर्शनों के ही निमित्त वे रोते-रोते आगे बढ़े।
पुरी में जाकर उन्होंने देखा वह भरी-पूरी नगरी गौरांग के बिना श्री हीन तथा विधवा स्त्री की भाँति निरानन्दपूर्ण बनी हुई है। सभी गौर-भक्त गौर-विरह में तप्त मछली की भाँति तड़प रहे हैं। गौर ने स्वप्न में ही इन्हें गदाधार पण्डित के पास जाने का आदेश दे दिया था।
पण्डित गोस्वामी की ख्याति ये पहले से ही सुनते रहते थे। पुरी में ये गदाधर गोस्वामी का पता पूछते-पूछते उनके आश्रम में पहुँचे। वहाँ उन्होंने विरह-वेदना में बेचैन बैठे हुए पण्डित गोस्वामी को देखा। पण्डित गोस्वामी चैतन्य–विरह में विक्षिप्त-से हो गये थे। उनके दोनों नेत्रों से सतत अश्रु प्रवाहित हो रहे थे। श्री निवास जी ‘हा चैतन्य !’ कहते-कहते उनके चरणों में गिर पड़े। आंसुओं के भरे रहने के कारण पण्डित गोस्वामी श्री निवास जी को देख नहीं सके। उन्होंने अत्यन्त ही करुणस्वर में कहा– ‘भैया ! तुम कौन हो ? इस सुमधुर नाम को सुनाकर तुमने मेरे शिथिल अंगों में पुन: शक्ति का संचार-सा कर दिया है। आज मेरे हृदय में तुम्हारे इन सुमधुर वाक्यों से बडी शान्ति-सी प्रतीत हो रही है। तुम श्री निवास तो नहीं हो ? दोनों हाथों की अंजलि बांधे हुए श्री निवास जी ने कहा– ‘प्रभो! इस अधम भाग्यहीन का ही नाम श्री निवास है। स्वामिन ! इस दीन-हीन कंगाल का नाम आपको याद है, प्रभो ! मैं बड़ा हतभागी हूँ कि इस जीवन में श्री चैतन्य-चरणों के साक्षात दर्शन न कर सका। महाप्रभु यदि स्वप्न में मुझे आदेश न देते तो मैं उसी क्षण अपने प्राणों को विसर्जन करने का संकल्प कर चुका था। चैतन्य–चरणों के दर्शन बिना इस जीवन से क्या लाभ ?’
पण्डित गोस्वामी ने उठकर श्री निवास जी का आलिंगन किया और उनके कोमल अंग पर अपना शीतल प्रेममय करकमल धीरे-धीरे फिराने लगे। उनके प्रेम-स्पर्श से श्रीनिवास जी का सम्पूर्ण शरीर पुलकित हो उठा। तब अधीरता के साथ पण्डित गोस्वामी ने करुणकण्ठ से कहा– ‘श्रीनिवास ! अब मैं भी अधिक दिनों तक जीवित नहीं रह सकता। गौर के विरह में मेरे प्राण तड़प रहे हैं। मैं तो उसी दिन समुद्र में कूदकर इन प्राणों का अन्त कर देता, किन्तु प्रभु की आज्ञा थी कि मैं तुम्हें श्रीमद्भागवत पढ़ाऊँ। मेरी स्थिति अब पढाने योग्य तो रही नहीं, किन्तु महाप्रभु की आज्ञा शिरोधार्य है। प्रभु तुम्हें वृन्दावन में जाकर रूप-सनातन के ग्रन्थों का अध्ययन करने के लिये आदेश दे गये हैं। वे तुम्हारे द्वारा गौड़ देश में भक्ति का प्रचार करना चाहते हैं। तुम अब आ गये, लाओ मैं प्रभु की आज्ञा का पालन करूँ। इससे पहले तुम पुरी के सभी प्रसिद्ध-प्रसिद्ध गौर-भक्तों के दर्शन कर आओ।’ पण्डित गोस्वामी ने अपना एक आदमी श्री निवास जी के साथ कर दिया। उसके साथ वे श्री जगन्नाथ जी के दर्शन करते हुए सार्वभौम भट्टाचार्य, राय रामानन्द आदि भक्तों के दर्शनों के लिये गये और उन सबकी चरण-वन्दना करके इन्होंने अपना परिचय दिया। सभी ने इनके ऊपर पुत्र की भाँति स्नेह प्रकट किया। इस सबसे विदा होकर फिर ये भक्त हरिदास जी की समाधि के दर्शनों के लिये गये। वहाँ हरिदास जी की नामनिष्ठा और उनकी सहिष्णुता का स्मरण करके ये मूर्च्छित हो गये और घंटों वहाँ की धूलि में लोटते-लोटते अश्रुविमोचन करते रहे। श्री चैतन्य की सभी लीला स्थलियों के दर्शन करके ये पुन: पण्डित गोस्वामी के समीप लौट आये। तब गदाधर जी ने इन्हें महाप्रसाद का भोजन कराया। भोजन के अनन्तर स्वस्थ होने पर इन्होंने श्रीमद्भागवत के पाठ की जिज्ञासा की।
गदाधर गोस्वामी के नेत्रों से जल निरन्तर बह रहा था। खाते-पीते, पढते-लिखते हर समय उनका अश्रुप्रवाह जारी ही रहता। वे बड़े कष्ट से पोथी को श्री निवास जी को देकर पढ़ने लगे। श्री निवास जी ने देखा पोथी का एक भी अक्षर ठीक-ठीक नहीं पढ़ा जाता। सभी पृष्ठ पण्डित गोस्वामी के नेत्रों के जल से भीगे हुए हैं। निरन्तर के अश्रुप्रवाह से पोथी के सभी अक्षर मिटकर पृष्ठ काले रंग के बन गये हैं। श्री निवास जी ने उसे पढ़ने में अपनी असमर्थता प्रकट की।
तब गदाधर गोस्वामी ने कहा– ‘श्री निवास ! अब मेरे जीने की तुम विशेष आशा मत रखो। संसार मुझे सूना-सूना दीखता है। हाय ! जहाँ गौर नहीं, वहाँ मैं कैसे रह सकूँगा। मेरे प्राण गौर-दर्शन के लिये लालायित हो रहे हैं। यदि तुम पढना ही चाहते हो तो आज ही तुम गौड़ चले जाओ। नरहरि सरकार के पास मेरे हाथ की लिखी हुई एक नयी पोथी है, उसे ले आओ। बहुत सम्भव है मैं तुम्हें पढा सकूँ। श्री निवास जी समझ गये कि पण्डित गोस्वामी का शरीर अब अधिक दिन तक नहीं टिक सकता। वे उसी समय सरकार ठाकुर के समीप से पोथी लाने के लिये चल पड़े। श्रीहट्ट में आकर उन्होंने सभी वृत्तान्त सरकार ठाकुर से कहा और वे जल्दी से पोथी लेकर पुरी के लिये चल दिये।
अभी वे पुरी के आधे ही मार्ग में पहुँचे थे कि उन्हें यह हृदय को हिला देने वाला दूसरा समाचार मिला कि पण्डित गोस्वामी ने गौर-विरह की अग्नि में अपने शरीर को जला दिया, वे इस संसार को छोड़कर गौर के समीप पहुँच गये। दु:खित श्री निवास के कलेजे में सैकड़ों बर्छियों के लगने से जितना घाव होता है, उससे भी बड़ा घाव हो गया। वे रो-रोकर भूमि पर लोटने लगे। ‘हाय ! उन महापुरुष से मैं श्रीमद्भागवत भी न पढ़ सका। अब पुरी जाना व्यर्थ है।’ यह सोचकर वे फिर गौड़ की ही ओर लौट पड़े। वहाँ पानीहाटी से कुछ दूर पर उन्होंने एक तीसरा हृदय विदारक समाचार सुना। एक मनुष्य ने कहा– ‘महाप्रभु के तिरोभाव के अनन्तर श्रीपाद नित्यानन्द जी की दशा विचित्र ही हो गयी थी। उन्होंने संकीर्तन में जाना एकदम बंद कर दिया था, वे खड़दह के अपने मकान में ही पड़े-पड़े– ‘हा गौर ! हा गौर !’ कहकर सदा रुदन किया करते थे। कभी कभी कीर्तन के लिये उठते तो क्षणभर में ही मूर्च्छित होकर गिर पड़ते और घंटों में जाकर होश में आते। सभी भक्त उनकी मनोव्यथा को समझते थे, इसलिये कोई उनसे संकीर्तन में चलने का आग्रह नहीं करता था। एक दिन वे श्यामसुन्दर के मन्दिर में भक्तों के साथ संकीर्तन कर रहे थे, संकीर्तन करते-करते ही वे अचेत होकर भूमि पर गिर पड़े। यह उनकी अचेतना अन्तिम ही थी। भक्तों ने भाँति-भाँति के यत्न किये किन्तु फिर वे सचेत नहीं हुए। वे गौरधाम में जाकर अपने भाई निमाई के साथ मिल गये।’ श्री निवास जी के ऊपर मानो वज्र गिर पड़ा हो, वे खिन्न-चित्त से क्रन्दन करते-करते सरकार ठाकुर के समीप पहुँचे और रो-रोकर सभी समाचार सुनाने लगे। भक्तिभवन के इन प्रधान स्तम्भों के टूट जाने से भक्तों को अपार दु:ख हुआ। सरकार ठाकुर बच्चों की तरह ढ़ाह मारकर रुदन करने लगे। श्री निवास जी के दोनों नेत्र रुदन करते-करते फूल गये थे। वे कण्ठ रुंध जाने के कारण कुछ कह भी नहीं सकते थे। सरकार ठाकुर ने इन्हें कई दिनों तक अपने ही यहाँ रखा। इसके अनन्तर वे घर नहीं गये। अब उनकी इच्छा श्री चैतन्य की क्रीड़ा-भूमि के दर्शनों की हुई। वे उसी समय सरकार ठाकुर से विदा होकर नवद्वीप में आये। उन दिनों विष्णुप्रिया देवी जी घोर तपस्यामय जीवन बिता रही थीं। वे किसी से भी बातें नहीं करती थीं, किन्तु उन्हें स्वप्न में श्री गौरांग का आदेश हुआ कि ‘श्री निवास हमारा ही अंश है, इससे मिलने में कोई क्षति नहीं। इसके ऊपर तुम कृपा करो।’ तब उन्होंने श्री निवास जी को स्वयं बुलाया। वे इस छोटे बालक के ऐसे त्याग, वैराग्य, प्रेम और रूप-लावण्य को देखकर बड़ी ही प्रसन्न हुईं। प्रिया जी ने उनके ऊपर परम कृपा प्रदर्शित की। इनसे बातें कीं, इनके मस्तक पर अपना पैर रखा और अपने घर के बाहरी दालान में इन्हें कई दिनों तक रखा।
जगन्माता विष्णुप्रिया जी से विदा होकर ये शान्तिपुर में अद्वैताचार्य की जन्मभूमि को देखने गये। वहाँ से नित्यानन्द जी के घर खड़हद में पहुँचे। वहाँ अवधूत की पत्नी श्रीमती जाह्नवी देवी ने इन पर अपार प्रेम प्रदर्शित किया और कई दिनों तक अपने घर में इन्हें रखा। उन दोनों माताओं की चरण-वन्दना करके ये खानाकुल कृष्णनगर के गोस्वामी अभिरामदास जी के दर्शनों को गये। उन्होंने ही इन्हें वृन्दावन में जाकर भक्ति ग्रन्थों के अध्ययन करने की अनुमति दी। उनकी आज्ञा शिरोधार्य करके ये अपनी माता से आज्ञा लेकर काशी-प्रयाग होते हुए वृन्दावन पहुँचे। वहाँ जीव गोस्वामी ने इनका बडा सत्कार किया। उन्होंने ही गोपालभट्ट से इन्हें मंत्र-दीक्षा दिलायी। ये वृन्दावन में ही रहकर श्रीरूप और सनातन आदि गोस्वामियों के बनाये हुए भक्ति-शास्त्रों का अध्ययन करने लगे। वहाँ इनकी नरोत्तमदास जी तथा श्यामानन्द जी के साथ भेंट हुई और उन्हीं के साथ ये गोस्वामियों के ग्रन्थों का अध्ययन करने लगे।
श्री जीव गोस्वामी जी ने जब समझ लिया कि ये तीनों ही योग्य बन गये हैं, तीनों ही तेजस्वी, मेधावी और प्रभावशाली हैं, तब इन्हें गौड़देश में भक्तितत्व का प्रचार करने के निमित्त भेजा। नरोत्तमदास जी को ‘ठाकुर’ की उपाधि दी और श्री निवास जी को आचार्य की। भक्ति-ग्रन्थों के बिना भक्ति-मार्ग का यथाविधि प्रचार हो नहीं सकता। अत: जीव गोस्वामी ने बहुत से ग्रन्थें को मोमजामें के कपडों में बंधवा-बंधवाकर तथा कई सुरक्षित संदूकों में बंद कराकर एक बैलगाड़ी में लादकर इनके साथ भेजा। रक्षा के लिये साथ में दस अस्त्रधारी सिपाही भी कर दिये। तीनों ही तेजस्वी युवक अपने आचार्यों तथा भक्तों के चरणों में प्रणाम करके काशी-प्रयाग होते हुए गौड़देश की ओर जाने लगे।
रास्ते में बाँकुडा जिले के अन्तर्गत वन विष्णुपुर नाम की एक छोटी-सी राजधानी पडती है, वहाँ पहुँचकर डाकुओं ने इनकी सभी संदूकें छीन लीं और सभी को मार भगाया। इस बात से सभी को अपार कष्ट हुआ। असल में उस राज्य के शासक राजा वीरहम्मीर ही डाकुओं को उत्साहित कर दिया करते थे और उस गाड़ी को भी धन समझकर उन्होंने ही लुटवा लिया था। पुस्तकों के लुट जाने से दु:खी होकर श्री निवास जी ने श्यामानन्द जी से और नरोत्तम ठाकुर से कहा– ‘आप लोग अपने-अपने स्थानों को जाइये और आचार्य चरणों की आज्ञा को शिरोधार्य करके भक्तिमार्ग का प्रचार कीजिये। मैं या तो पुस्तकों को प्राप्त करके लौटूँगा या यहीं कहीं प्राण गँवा दूँगा।’ बहुत कहने-सुनने पर वे दोनों आगे के लिये चले गये।
श्रीनिवास जी वनविष्णुपुर में घूम-घूमकर पुस्तकों की खोज करने लगे। दैवसंयोग से उनका राजसभा में प्रवेश हो गया। राजा वीरहम्मीर श्रीमद्भागवत के बड़े प्रेमी थे, उनकी सभा में रोज कथा होती थी। एक दिन कथावाचक राज-पण्डित को अशुद्ध अर्थ करते देखकर इन्होंने उसे टोका, तब राजा ने कुतूहल के साथ इनके मैले-कुचैले वस्त्रों को देखकर इन्हीं से अर्थ करने को कहा। बस, फिर क्या था, वे धारा प्रवाहरूप से एक ही श्लोक के नाना भाँति से युक्ति और शास्त्र प्रमाण द्वारा विलक्षण-विलक्षण अर्थ करने लगे। इनके ऐसे प्रकाण्ड पाण्डित्य को देखकर सभी श्रोता मंत्रमुग्ध से बन गये। राजा ने इनके चरणों में प्रणाम किया। पूछने पर इन्होंने अपना सभी वृत्तान्त सुनाया। तब ड़बड़बाई आँखों से राजा इन्हें भीतर ले गया और इनके पैरों में पड़कर कहने लगा– ‘आपका वह पुस्तकों को लूटने वाला डाकू मैं ही हूँ। ये आपकी पुस्तकें ज्यों की त्यों ही रखी हैं।’ श्री जीव गोस्वामी की दी हुई सभी वस्तुओं को सुरक्षित पाकर ये प्रेम में गद्गद होकर अश्रुविमोचन करने लगे। इन्होंने श्रद्धा-भक्ति के साथ उन पुस्तकों को प्रणाम किया और अपने परिश्रम को सफल हुआ समझकर अत्यन्त ही प्रसन्न हो गये। उसी दिन से राजा ने वह कुत्सित कर्म एकदम त्याग दिया और वह इनका मंत्र शिष्य बन गया।
वनविष्णुपुर के राजा का उद्धार करके फिर ये जाजिग्राम में अपनी माता के दर्शनों के लिये आये। बहुत दिनों पश्चात अपने प्यारे पुत्र को पाकर स्नेहमयी माता की प्रसन्नता का ठिकाना नहीं रहा, वह प्रेम में गद्गद कण्ठ से रुदन करने लगी। आचार्य श्री निवास अब वहीं रहकर भक्तिमार्ग का प्रचार करने लगे। उनकी वाणी में आकर्षण था, चेहरे पर तेज था, सभी वैष्णव इनका अत्यधिक आदर करते थे। वैष्णवसमाज के ये सम्माननीय अग्रणी समझे जाते थे। उनचास वर्ष की अवस्था में इन्होंने अपना पहला विवाह किया और कुछ दिनों बाद दूसरा विवाह भी कर लिया। इस प्रकार दो विवाह करने पर भी ये विरक्तों की ही भाँति जीवन बिताने लगे। बीच में ये एक बार पुन: अपने गुरुदेव के दर्शनों के निमित्त वृन्दावन पधारे थे, तब तक इनके गुरु श्री गोपाल भट्ट का वैकुण्ठवास हो चुका था। कुद दिन वृन्दावन रहकर ये पुन: गौड़देश में आकर प्रचार कार्य करने लगे।
वनविष्णुपुर के राजा ने इनके रहने के लिये अपने यहाँ एक पृथक भवन बनवा दिया था। ये कभी-कभी जाकर वहाँ भी रहते थे। अन्त में आप अपनी अवस्था का अन्त समझकर श्री वृन्दावनधाम को चले गये और वहाँ से लौटकर फिर गौड़देश में नहीं आये। उनका पुण्यमय अलौकिक शरीर वृन्दावन भूमि के पावन कणों के साथ एकीभूत हो गया। वे वैष्णवों के परम आदरणीय आचार्य अपनी अनुपम भक्ति और त्यागमयी वृत्ति के द्वारा प्रवृत्तिपक्ष वाले वैष्णवों के लिये एक परम आदर्श उपस्थित कर गये।
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[ गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्री प्रभुदत्त ब्रह्मचारी कृत पुस्तक श्रीचैतन्य-चरितावली से ]
, Shri Hari:. [Bhaj] Nitai-Gaur Radheshyam [Chant] Harekrishna Hareram Mr. Mr. Nivasacharya
He was gentle handsome and charming with cow power I offer my obeisances to that wise abode of the goddess of fortune followed by the cowherd men
Acharya Shree Niwas Ji’s respected Pitridev Shree Chaitanya Das lived in a village named Chakandi under Burdwan district. He was one of the ardent devotees of Sri Chaitanyadev. Actually his name was Gangadhar Bhattacharya, but people started calling him ‘Chaitanya Das’ because of the abundance of love for Sri Chaitanya. When Mahaprabhu left home and came to Katwa to take sannyas-initiation at Keshav Bharti’s place, many people had come there for his darshan. Bhattacharya Gangadharji was also among those incoming people. He had seen this heart-wrenching scene with his own eyes. That’s all, in the same grief, he is like a madman, O Chaitanya! Hey Chaitanya! Started roaming around saying, since then he started being called by the name of Chaitanyadas!
God’s will is very strong. In old age, Chaitanya Das ji had a desire to see the face of the child. He had been married long back, his wife Shri Laxmipriya was very devoted to her husband, a sati-saadhvi woman. She was not upset to see her husband distracted from worldly matters. She considered her happiness only in the happiness of her husband. In this old age, the couple longed to see their son. Both husband and wife went to Puri to see Mahaprabhu. Mahaprabhu blessed that ‘your son will have a part of our power in him, he will be our second deity.’ Mahaprabhu’s boon could have been limited otherwise. In the second year, Lakshmipriya gave birth to a son in Chakandi. The parents named him Srinivasa. The same Srinivasa later became very famous among the devotees by the name of Srinivasacharya.
Sri Nivas seemed to be intelligent, gentle, gentle and brilliant since childhood. At the tender age of 17-18, he had become well versed in grammar, poetry and rhetoric. His maternal grandfather was in Jajigram, his maternal grandfather Shri Balramacharya was also a great devotee and a true Vaishnava. His mother was very devoted and had faith in Chaitanya’s feet. Right from his childhood, he had made his beloved son Shri Niwas memorize the divine pastimes. The frozen impression of childhood in the child’s heart becomes indelible forever. The charming idol of Chaitanya got absorbed in the heart of Shri Niwas. They began to yearn for the darshan of Chaitanya’s feet.
One day he was going to his native Jaji village, on the way he met Mr. Narhari Sarkar, a resident of Srihatt. Sarkar Mahasaya was an ardent devotee of Mahaprabhu and he was famous as ‘Sarkar Thakur’ among Gaur-devotees. He was highly favored by Pandit Goswami [1]. They loved him very much.
Mr. Niwas had heard about Sarkar Thakur’s fame, but he had never had the fortune of seeing him till date. Here Thakur Sarkar had also heard the praise of the extraordinary talent and devotion of Lord Shri Niwas and they were eager to see that promising child. Suddenly both of them met on the way. Shri Niwas ji bowed down at the feet of Sarkar Thakur with reverence and devotion. And Sarkar Thakur gave him a love hug and blessed him with the love of God. After getting the blessings of that great man, Srinivasa returned to his family and started listening to Mahaprabhu’s pastimes with great interest from his father. One by one he learned the brief characteristics of all the intimate devotees of the Lord. The speed of time is strange, Chaitanyadas ji started getting fever and in that fever he left this Asar world and became a resident of Vaikuntha. Srinivasa has now become fatherless. Laxmipriya started crying day and night in mourning for her husband.
Shri Niwas ji’s maternal grandfather Shri Balramacharya had no children, he was the sole heir of his entire property, so he started living in Jaji village with his mother. He had a desire again and again to leave everything and take refuge in the feet of Sri Chaitanya, but he could not do so because of the bondage of his loving mother, but once he walked to Puri, his visions would satisfy his eyes. See, this was his strong lust. He was highly respected in the devotees of Jaji village. His fame had spread far and wide in this short period itself. Therefore, he expressed his wish on Sarkar Thakur. Expressing happiness, Sarkar Thakur said – ‘You must go to Puri and see the feet of Sri Chaitanya. I will get you a man with you.’ Saying this he got a man with him and he went towards Puri with him.
Deeply immersed in the love of Sri Chaitanyadev, he used to keep thinking many things that ‘I will go to the feet of Sri Chaitanya and express my devotion towards him in this way. One day I will make them with my own hands and give them alms.’ Due to the fervent yearning to see the feet of Sri Chaitanya, such feelings were rising in his mind that on the way he heard a very heart-wrenching news. ‘The longing for whose darshan we are going to Puri, they have finished their pastimes. Chaitanyadev left this mortal body and went to his eternal abode. On hearing this news, his heart burst, he fainted and fell on the earth. After a long delay, he regained consciousness, then with a sad heart, he went ahead crying only for the sake of seeing Sri Chaitanya’s Leela Sthali.
Going to Puri, he saw that the whole city without Gauranga remained blissful like a poor and widowed woman. All Gaur-devotees are suffering like a hot fish in separation from Gaur. Gaur had ordered him to go to Gadadhara Pandita in his dream itself.
He used to listen to the fame of Pandit Goswami before. In Puri, inquiring about Gadadhar Goswami’s address, he reached his ashram. There he saw Pandit Goswami sitting restlessly in the pain of separation. Pandit Goswami had become deranged in Chaitanya-Virah. Tears were continuously flowing from both his eyes. Shri Niwas ji fell at his feet saying ‘Ha Chaitanya!’ Pandit Goswami could not see Shri Niwas ji because he was full of tears. He said in a very compassionate voice – ‘Brother! Who are you ? By reciting this melodious name, you have re-infused strength in my weak organs. Today I feel a lot of peace in my heart due to these melodious words of yours. You are not Shri Niwas are you? Shri Niwas ji tied the anklets of both the hands and said – ‘ Lord! The name of this wretched unfortunate is Shree Niwas. Swamin! You remember the name of this humble pauper, Lord! I am very unfortunate that in this life I could not see the feet of Sri Chaitanya. If Mahaprabhu had not ordered me in the dream, I would have resolved to immerse my life at that very moment. What is the use of this life without the darshan of the living feet?
Pandit Goswami got up and hugged Shri Niwas ji and slowly started moving his cool loving lotus on his tender body. Srinivasa ji’s whole body was thrilled by his love-touch. Then with impatience Pandit Goswami said to Karunkanth – ‘Srinivasa! Now I too cannot live much longer. My life is suffering in separation from Gaur. I would have ended these lives by jumping into the sea on the same day, but it was the command of the Lord that I should teach you Shrimad Bhagwat. My condition is no longer teachable, but Mahaprabhu’s orders are obeyable. The Lord has ordered you to go to Vrindavan and study the scriptures of Roop-Sanatan. They want to spread Bhakti through you in Gaud Desh. You have come now, let me obey the orders of the Lord. Before this, you should visit all the famous Gaur-devotees of Puri.’ Pandit Goswami made one of his men accompany Shri Niwas ji. Along with him, while visiting Shri Jagannath ji, he went to see devotees like Sarvabhaum Bhattacharya, Rai Ramanand etc. Everyone showed affection on him like a son. After leaving all this, this devotee then went to visit Haridas ji’s tomb. Remembering Haridas ji’s honesty and his tolerance there, he fainted and kept rolling in the dust there shedding tears for hours. After visiting all the places of Sri Chaitanya’s pastimes, he again returned to Pandit Goswami. Then Gadadhar ji made him eat Mahaprasad. After getting well after the meal, he inquired about the lesson of Shrimad Bhagwat.
Water was continuously flowing from the eyes of Gadadhara Goswami. His tears would continue to flow all the time while eating, drinking, reading and writing. With great difficulty, he gave the book to Shri Niwas ji and started reading it. Mr. Niwas saw that not a single letter of the book could be read properly. All the pages are drenched with the tears of Pandit Goswami’s eyes. Due to continuous tears, all the letters of the book have been erased and the pages have become black. Mr. Niwas expressed his inability to read it.
Then Gadadhar Goswami said – ‘Shri Niwas! Now don’t have any special hope for my survival. The world seems empty to me. Oh ! How can I live where there is no attention? My soul is longing for sight. If you want to study, then go to Gaur today itself. Narhari Sarkar has a new book written by my hand, bring it. It is quite possible that I can teach you. Mr. Niwas understood that Pandit Goswami’s body could not survive for long. At the same time, he started from near Sarkar Thakur to bring pothi. After coming to Shrihatt, he told all the incidents to Sarkar Thakur and he quickly left for Puri with the pothi.
अभी वे पुरी के आधे ही मार्ग में पहुँचे थे कि उन्हें यह हृदय को हिला देने वाला दूसरा समाचार मिला कि पण्डित गोस्वामी ने गौर-विरह की अग्नि में अपने शरीर को जला दिया, वे इस संसार को छोड़कर गौर के समीप पहुँच गये। दु:खित श्री निवास के कलेजे में सैकड़ों बर्छियों के लगने से जितना घाव होता है, उससे भी बड़ा घाव हो गया। वे रो-रोकर भूमि पर लोटने लगे। ‘हाय ! उन महापुरुष से मैं श्रीमद्भागवत भी न पढ़ सका। अब पुरी जाना व्यर्थ है।’ यह सोचकर वे फिर गौड़ की ही ओर लौट पड़े। वहाँ पानीहाटी से कुछ दूर पर उन्होंने एक तीसरा हृदय विदारक समाचार सुना। एक मनुष्य ने कहा- ‘महाप्रभु के तिरोभाव के अनन्तर श्रीपाद नित्यानन्द जी की दशा विचित्र ही हो गयी थी। उन्होंने संकीर्तन में जाना एकदम बंद कर दिया था, वे खड़दह के अपने मकान में ही पड़े-पड़े- ‘हा गौर ! हा गौर !’ कहकर सदा रुदन किया करते थे। कभी कभी कीर्तन के लिये उठते तो क्षणभर में ही मूर्च्छित होकर गिर पड़ते और घंटों में जाकर होश में आते। सभी भक्त उनकी मनोव्यथा को समझते थे, इसलिये कोई उनसे संकीर्तन में चलने का आग्रह नहीं करता था। एक दिन वे श्यामसुन्दर के मन्दिर में भक्तों के साथ संकीर्तन कर रहे थे, संकीर्तन करते-करते ही वे अचेत होकर भूमि पर गिर पड़े। यह उनकी अचेतना अन्तिम ही थी। भक्तों ने भाँति-भाँति के यत्न किये किन्तु फिर वे सचेत नहीं हुए। वे गौरधाम में जाकर अपने भाई निमाई के साथ मिल गये।’ श्री निवास जी के ऊपर मानो वज्र गिर पड़ा हो, वे खिन्न-चित्त से क्रन्दन करते-करते सरकार ठाकुर के समीप पहुँचे और रो-रोकर सभी समाचार सुनाने लगे। भक्तिभवन के इन प्रधान स्तम्भों के टूट जाने से भक्तों को अपार दु:ख हुआ। सरकार ठाकुर बच्चों की तरह ढ़ाह मारकर रुदन करने लगे। श्री निवास जी के दोनों नेत्र रुदन करते-करते फूल गये थे। वे कण्ठ रुंध जाने के कारण कुछ कह भी नहीं सकते थे। सरकार ठाकुर ने इन्हें कई दिनों तक अपने ही यहाँ रखा। इसके अनन्तर वे घर नहीं गये। अब उनकी इच्छा श्री चैतन्य की क्रीड़ा-भूमि के दर्शनों की हुई। वे उसी समय सरकार ठाकुर से विदा होकर नवद्वीप में आये। उन दिनों विष्णुप्रिया देवी जी घोर तपस्यामय जीवन बिता रही थीं। वे किसी से भी बातें नहीं करती थीं, किन्तु उन्हें स्वप्न में श्री गौरांग का आदेश हुआ कि ‘श्री निवास हमारा ही अंश है, इससे मिलने में कोई क्षति नहीं। इसके ऊपर तुम कृपा करो।’ तब उन्होंने श्री निवास जी को स्वयं बुलाया। वे इस छोटे बालक के ऐसे त्याग, वैराग्य, प्रेम और रूप-लावण्य को देखकर बड़ी ही प्रसन्न हुईं। प्रिया जी ने उनके ऊपर परम कृपा प्रदर्शित की। इनसे बातें कीं, इनके मस्तक पर अपना पैर रखा और अपने घर के बाहरी दालान में इन्हें कई दिनों तक रखा।
After leaving Jaganmata Vishnupriya ji, he went to Shantipur to see Advaitacharya’s birthplace. From there, reached Nityanand ji’s house in Khardhad. There Avdhoot’s wife Mrs. Jahnavi Devi showed immense love to him and kept him in her house for many days. After worshiping the feet of both those mothers, he went to visit Goswami Abhiramdas ji of Khanakul Krishna Nagar. He allowed him to go to Vrindavan and study devotional texts. Obeying her orders, he took permission from his mother and reached Vrindavan via Kashi-Prayag. There Jiva Goswami felicitated him. It was he who got him mantra initiation from Gopal Bhatt. Staying in Vrindavan, he started studying devotional scriptures made by Shrirup and Sanatan Adi Goswamis. There he met Narottamdas ji and Shyamanand ji and with them he started studying the books of Goswamis.
When Shri Jiva Goswami ji understood that all these three have become worthy, all three are brilliant, meritorious and influential, then he sent them to spread devotion in Goddesh. Gave the title of ‘Thakur’ to Narottamdas ji and Acharya to Shri Niwas ji. Without devotional books, the path of devotion cannot be properly propagated. Therefore, Jiva Goswami sent many scriptures with them after binding them in oilcloth and keeping them in many safe boxes and loading them in a bullock cart. Ten armed soldiers were also given along with them for protection. After paying obeisance at the feet of their Acharyas and devotees, all the three brilliant youths started going towards Gaudesh via Kashi-Prayag.
On the way, a small capital named Van Vishnupur falls under Bankuda district, after reaching there the dacoits snatched all their chests and killed them all. This caused immense pain to everyone. In fact, the ruler of that state, King Veerhammir used to encourage the dacoits and he had looted that vehicle thinking it as money. Saddened by the looting of the books, Shri Niwas said to Shyamanand and Narottam Thakur – ‘You people go to your respective places and propagate the path of devotion by obeying the orders of Acharya’s feet. I will either return after getting the books or I will die somewhere here.’ After much talking and listening, both of them went ahead.
Srinivas ji started searching for books by roaming around in Vanvishnupur. By chance, he entered the Raj Sabha. King Veerhammir was a great lover of Shrimad Bhagwat, Katha used to take place daily in his assembly. One day, seeing the storyteller Raj-Pandit making impure meaning, he interrupted him, then the king with curiosity, looking at his soiled clothes, asked him to interpret it. Just what was there then, they started giving unique meanings to the same verse in different ways with the help of various tricks and evidence of scriptures. All the listeners were mesmerized by seeing his great erudition. The king bowed at his feet. On being asked, he told all his stories. Then the king took him inside with tearful eyes and fell at his feet and said – ‘I am the robber who looted your books. These are your books kept as they are.’ After finding all the things given by Shri Jiva Goswami safe, he started shedding tears out of love. He bowed down to those books with devotion and became very happy thinking that his hard work was successful. From the same day the king gave up that heinous deed and became his mantra disciple.
After rescuing the king of Vanvishnupur, he again came to Jazigram to visit his mother. After a long time, there was no place for the loving mother’s happiness to get her beloved son, she started crying out of love. Acharya Shree Niwas now stayed there and started preaching the path of Bhakti. There was charm in his speech, he was sharp on his face, all Vaishnavas used to respect him a lot. These respected leaders of Vaishnavism were considered. At the age of forty-nine, he got married for the first time and after a few days got married for the second time. In this way, even after getting married twice, he started living like a lonely person. In between, he had come to Vrindavan once again for the darshan of his Gurudev, by then his Guru Shri Gopal Bhatt had gone to Vaikunthavas. After staying in Vrindavan for a few days, he again came to Gaudesh and started campaigning.
The king of Vanvishnupur had built a separate building for his residence. Sometimes they used to go and live there. In the end, you went to Shri Vrindavandham thinking it to be the end of your stage and did not return from there to Gaudesh. His virtuous supernatural body merged with the holy particles of Vrindavan land. He, the most respected Acharya of Vaishnavas, by his unique devotion and sacrificial attitude, presented an ultimate ideal for the Vaishnavas of Pravritti Paksha.
respectively next post [175] , [From the book Sri Chaitanya-Charitavali by Sri Prabhudatta Brahmachari, published by Geetapress, Gorakhpur]