[176]”श्रीचैतन्य–चरितावली”

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।। श्रीहरि:।।
[भज] निताई-गौर राधेश्याम [जप] हरेकृष्ण हरेराम
महाप्रभु के वृन्‍दावनस्‍थ छ: गोस्‍वामिगण

रुद्रोअद्रिं जलधिं हरिर्दिविषदो दूरं विहायाश्रिता:
भागीन्‍द्रा: प्रबला अपि प्रथमत: पातालमूले स्थिता:।
लीना पद्मवने सरोजनिलया मन्‍येऽर्थिसार्थाद्भिया
दीनोद्धारपरायणा: कलियुगे सत्‍पुरुषा: केवलम्।।

महाप्रभु चैतन्‍य देव के छ: गोस्‍वामी अत्‍यन्‍त ही प्रसिद्ध हैं। उनके नाम (1) श्रीरूप, (2) श्रीसनातन, (3) श्री जीव, (4) श्री गोपालभट्ट, (5) श्री रघुनाथ भट्ट और (6) श्रीरघुनाथदास जी हैं। इन छहों का थोड़ा-बहुत विवरण पाठक पिछले प्रकरणों में पढ़ ही चुके होंगे। श्रीरूप और सनातन तो प्रभु की आज्ञा लेकर ही पुरी से वृन्‍दावन को गये थे, बस, तब से वे फिर गौड़देश में नहीं लौटे। श्रीजीव इनके छोटे भाई अनूप के प्रिय पुत्र थे। पूरा परिवार-का-परिवार ही विरक्‍त बन गया। दैवी परिवार था। जीव गोस्‍वामी या तो महाप्रभु के तिरोभाव होने के अनन्‍तर वृन्‍दावन पधारे होंगे या प्रभु के अप्रकट होने के कुद ही काल पहले। इनका प्रभु के साथ भेंट होने का वृत्तान्‍त कहीं नहीं मिलता। ये नित्‍यानन्‍द जी की आज्ञा लेकर ही वृन्‍दावन गये थे, इससे महाप्रभु का अभाव ही लक्षित होता है। रघुनाथ भट्ट को प्रभु ने स्‍वयं ही पुरी से भेजा था। गोपाल भट्ट जब छोटे थे, तभी प्रभु ने उनके घर दक्षिण की यात्रा में चातुर्मास बिताया था, इसके अनन्‍तर पुन: इनको प्रभु के दर्शन नहीं हुए। रघुनाथदास जी प्रभु के लीला संवरण करने के अनन्‍तर और स्‍वरूप गोस्‍वामी के परलोक-गमन के पश्‍चात वृन्‍दावन पधारे और फिर उन्‍होंने वृन्‍दावन की पावन भूमि छोड़कर कहीं एक पैर भी नहीं रखा। व्रज में ही वास करके उन्‍होंने अपनी शेष आयु व्‍यतीत की। इन सबका अत्‍यन्‍त ही संक्षेप में पृथक्-पृथक् वर्णन आगे करते हैं।

1– श्रीरूप जी गोस्‍वामी

श्री रूप जी और सनातन जी का परिचय पाठक पीछे प्राप्‍त कर चुके हैं। अनुमान से श्री रूप जी का जन्‍म संवत 1545 के लगभग बताया जाता है। ये अपने अग्रज श्री सनातन जी से साल-दो-साल छोटे ही थे किन्‍तु प्रभु के प्रथम कृपापात्र होने से ये वैष्‍णव-समाज में सनातन जी के बड़े भाई ही माने जाते हैं। रामकेलि में इन दोनों भाइयों की प्रभु से भेंट, रूप जी का प्रयाग में प्रभु से मिलन, पुरी में पुन: प्रभु के दर्शन-नाटकों की रचना, प्रभु की आज्ञा से गौड़ देश होते हुए पुन: वृन्‍दावन में आकर निरन्‍तर वास करते रहने के समाचार तो पाठक पिछले अध्‍यायों में पढ़ ही चुके होंगे, अब इनके वृन्‍दावन वास की दो-चार घटनाएं सुनिये।

आप ब्रह्मकुण्‍ड के समीप निवास करते थे। एक दिन आप निराहार रहकर ही भजन कर रहे थे, भूख लग रही थी, किन्‍तु ये भजन को छोड़कर भिक्षा के लिये जाना नहीं चाहते थे, इतने ही में एक काले रंग का ग्‍वाले का छोकरा एक मिट्टी के पात्र में दुग्‍ध लेकर इनके पास आया और बोला– ‘लो बाबा ! इसे पी लो। भूखे भजन क्‍यों कर रहे हो, गांवों में जाकर भिक्षा क्‍यों नहीं कर आते।’ तुम्‍हें पता नहीं– भूखे भजन न होई, यह जानहिं सब कोई।

रूप जी ने वह दुग्‍ध पीया। उसमें अमृत से भी बढ़कर स्‍वाद निकला। तब तो वे समझ गये कि ‘सांवरे रंग का छोकरा वही छलिया वृन्‍दावन वासी है, वह अपने राज्‍य में किसी को भूख नहीं देख सकता।’ आश्‍चर्य की बात तो यह थी, जिस पात्र में वह छोकरा दुग्‍ध दे गया था, वह दिव्‍य पात्र पता नहीं अपने-आप ही कहाँ चला गया। इस समाचार को सुनकर श्रीसनातन जी दौड़े आये और उन्‍हें आलिंगन करके कहने लगे– ‘भैया ! यह मनमोहन बडा सुकुमार है, इसे कष्‍ट मत दिया करो। तुम स्‍वयं ही व्रजवासियों के घरों से टुकड़े माँग लाया करो।’ उस दिन से श्रीरूपजी मधुकरी भिक्षा नित्‍यप्रति करने जाने लगे।
एक दिन श्रीगोविन्‍ददेव जी ने इन्‍हें स्‍वप्‍न में आज्ञा दी कि ‘भैया ! मैं अमुक स्‍थान में जमीन के नीचे दबा हुआ पड़ा हूँ। एक गौ रोज मुझे अपने स्‍तनों से दूध पिला जाती है, तु उस गौ को ही लक्ष्‍य करके मुझे बाहर निकालो और मेरी पूजा प्रकट करो।’

प्रात:काल ये उठकर उसी स्‍थान पर पहुँचे। वहाँ उन्‍होंने देखा– ‘एक गौ वहाँ खड़ी है और उसके स्‍तनों में आप से आप ही दूध बहकर एक छिद्र में होकर नीचे जा रहा है।’ तब तो उनके आनन्‍द का ठिकाना नहीं रहा। ये उसी समय उस स्‍थान को खुदवाने लगे। उसमें से गोविन्‍द देव जी की मनमोहिनी मूर्ति निकली, उसे लेकर ये पूजा करने लगे। कालान्‍तर में जयपुर के महाराज मानसिंह जी ने गोविन्‍ददेव जी का लाल पत्‍थरों का एक बड़ा ही भव्‍य और विशाल मन्दिर बनवा दिया जो अद्यावधि श्री‍वृन्‍दावन की शोभा बढ़ा रहा है। औरंगजेब के आक्रमण के भय से जयपुर के महाराज पीछे से यहाँ की श्रीमूर्ति को अपने यहाँ ले गये थे। पीछे फिर ‘नये गोविन्‍ददेव जी’ का नया मन्दिर बना, जिसमें गोविन्‍ददेव जी के साथ ही अगल-बगल में श्री चैतन्‍य देव और श्रीनित्‍यानन्‍द जी के विग्रह भी पीछे से स्‍थापित किये गये, जो अब भी विद्यमान हैं।

जब श्री रूप जी नन्‍द ग्राम में निवास करते थे, तब श्री सनातन जी एक दिन उनके स्‍थान पर उनसे मिलने गये। इन्‍होंने अपने अग्रज को देखकर उनको अभिवादन किया और बैठने के लिये सुन्‍दर-सा आसन दिया। श्री रूप जी अपने भाई के लिये भोजन बनाने लगे। उन्‍होंने प्रत्‍यक्ष देखा कि भोजन का सभी सामान प्‍यारी जी ही जुटा रही हैं, सनातन जी को इससे बड़ा क्षोभ हुआ। वे चुपचाप बैठे देखते रहे। जब भोजन बनकर तैयार हो गया तो श्री रूप जी ने उसे भगवान के अर्पण किया, भगवान प्‍यारी जी के साथ प्रत्‍यक्ष होकर भोजन करने लगे। उनका जो उच्छिष्‍ट महाप्रसाद बचा उसका उन्‍होंने श्री सनातन जी को भोजन कराया। उसमें अमृत से भी बढ़कर दिव्‍य स्‍वाद था।

सनातन जी ने कहा– ‘भाई ! तुम बड़े भाग्‍यशाली हो, जो रोज प्‍यारी-प्‍यारे के अधरामृत-उच्छिष्‍ट अन्‍न का प्रसाद पाते हो, किन्‍तु सुकुमारी लाड़िली जी को तुम्‍हारे सामान जुटाने में कष्‍ट होता होगा, यही सोचकर मुझे दु:ख होता है।’ इतना कहकर श्री सनातन जी चले गये और उनका जो उच्छिष्‍ट महाप्रसाद शेष रहा उसको बड़ी ही रुचि और स्‍वाद के साथ श्री रूप जी ने पाया।

किसी काव्‍य में श्री रूप जी ने प्‍यारी जी की वेणी की काली नागिन से उपमा दी थी। यह सोचकर सनातन जी को बड़ा दु:ख हुआ कि भला प्‍यारी जी के अमृतपूर्ण आनन के समीप विषवाली काली नागिन का क्‍या काम? वे इसी चिन्‍ता में मग्‍न ही थे कि उन्‍हें सामने के कदम्‍ब के वृक्ष पर प्‍यारे के साथ प्‍यारी जी झूलती हुई दिखाई दीं। उनके सिर पर काले रंग की नागिन-सी लहरा रही थी, उनमें क्रूरता का काम नही, क्रोध और विष का नाम नहीं। वह तो परम सौम्‍या, प्रेमियों के मन को हरने वाली और चंचला-चपला बड़ी ही चित्त को अपनी ओर खींचने वाली नागिन थी। श्री सनातन जी को इससे बड़ी प्रसन्‍नता हुई और उनकी शंका का समाधान प्‍यारी जी ने स्‍वत: ही अपने दुर्लभ दर्शनों को देकर कर दिया। इस प्रकार इनके भक्ति और प्रेम के माहात्‍म्‍य की बहुत-सी कथाएं कही जाती हैं। ये सदा युगल माधुरी के रूप में छके-से रहते थे। अके-से, जके-से, भूले-से, भटके-से ये सदा वृन्‍दाविपिन की वनवीथियों में विचरण किया करते थे। इनका आहार था प्‍यारे-प्‍यारी की रूपसुधा का पान, बस, उसी के मद में ये सदा मस्‍त बने रहते। ये सदा प्रेम में मग्‍न रहकर नामजप करते रहते और शेष समय में भक्तिसम्‍बन्‍धी पुस्‍तकों का प्रणयन करते। इनके बनाये हुए भ‍क्तिभाव पूर्ण सोलह ग्रन्‍थ मिलते हैं।

(1) हंसदूत, (2) उद्धवसन्‍देश, (3) कृष्‍णजन्‍मतिथिविधि, (4) गणोद्देशदीपिका (5) स्‍तवमाला, (6) विदग्‍धमाधव, (7) ललितामाधव, (8) दानलीला, (9) दानकेलिकौमुदी, (10) भक्तिरसामृतसिन्‍धु, (11) उज्‍जवलनीलमणि, (12) मथुरामहात्म्‍य (13) आख्‍यातचन्द्रिका, (14) पद्यावली, (15) नाटकचन्द्रिका और (16) लघुभागवतामृत।

वृन्‍दावन में रहकर इन्‍होंने श्रीकृष्‍ण-प्रेम का साकार रूप खड़ा करके दिखला दिया। ये सदा नाम-संकीर्तन और पुस्‍तक-प्रणयन में ही लगे रहते थे। ‘वृन्‍दावन की यात्रा’ नामक पुस्‍तक में इनके वैकुण्‍ठवास की तिथि संवत 1640 (ईस्‍वी सन 1563) की श्रावण शुक्‍ला द्वादशी लिखी है। इस प्रकार ये लगभग 74 वर्षों तक इस धराधाम पर विराजमान रहकर भक्तितत्‍व का प्रकाश करते रहे।

3— सनातन गोस्वामी जी
श्री सनातन जी का जन्‍म संवत 1544 के लगभग अनुमान किया जाता है, इनके कारावास का वृत्तान्‍त, उससे मुक्तिलाभ करके प्रयाग में आगमन, प्रभु के पादपद्मों में रहकर शास्‍त्रीय शिक्षा का श्रवण, वृन्‍दावन-गमन, पुन: लौटकर पुरी में आगमन, शरीर में भयंकर खुजली का हो जाना, श्री जगन्‍नाथ जी के रथ के नीचे प्राण त्‍यागने का निश्‍चय, प्रभु की आज्ञा से वृन्‍दावन में जाकर भजन और पुस्‍तकप्रणयन करते रहने का वृत्तान्‍त तो पाठक पीछे पढ़ ही चुके होंगे, अब इनके सम्‍बन्‍धन की भी वृन्‍दावन की दो-चार घटनाएं सुनिये।

एक दिन ये श्री यमुना जी स्‍नान करने के निमित्त जा रहे थे, रास्‍ते में एक पारस पत्‍थर का टुकडा इन्‍हें पड़ा हुआ मिला। इन्‍होंने उसे वहीं धूलि से ढक दिया। दैवात उसी दिन एक ब्राह्मण उनके पास आकर धन की याचना करने लगा। इन्‍होंने बहुत कहा– ‘भाई ! हम भिक्षुक हैं, मांगकर टुकड़े खाते हैं, भला हमारे पास धन कहाँ है, किसी धनी सेठ-साहूकार के समीप जाओ।’ किन्‍तु वह मानता ही नहीं था। उसने कहा– ‘श्रीमहाराज ! मैंने धन की कामना से ही अनेकों वर्षों तक शिव की आराधना की, इसलिये शिव जी ने सन्‍तुष्‍ट होकर रात्रि के समय स्‍वप्‍न में मुझसे कहा– ‘हे ब्राह्मण ! तू जिस इच्‍छा से मेरा पूजन करता है, वह इच्‍छा तेरी वृन्‍दावन में सनातन गोस्‍वामी के समीप जाने से पूर्ण होगी।’ बस, उन्‍हीं के स्‍वप्‍न से मैं आपकी शरण आया हूँ’। इस पर सनातन जी को उस पारस पत्‍थर की याद आ गयी। उन्‍होंने कहा– ‘अच्‍छी बात है, मेरे साथ यमुना जी चलो। यह कहकर ये उसे यमुना किनारे ले गये। दूर से ही अँगुली के इशारे से इन्‍होंने उसे पारस की जगह बता दी। उसने बहुत ढूँढा, किन्‍तु पारस नहीं मिला। तब तो उसने कहा– ‘आप मेरी वंचना न कीजिये, यदि हो तो आप ही ढूँढकर दे दीजिये।’

इन्‍होंने कहा– ‘भाई ! इसमें वंचना की बात ही क्‍या है, मैं तो उसका स्‍पर्श नहीं कर सकता, तुम धैर्य के साथ ढूँढो, यहीं मिल जायगा ! ब्राह्मण ढूँढने लगा, सहसा उसे पारस का टुकड़ा मिल गया। उसी समय उसने एक लोहे के टुकड़े से उसे छुआकर उसकी परीक्षा की, देखते-ही-देखते लोहे का टुकड़ा सोना बन गया। ब्राह्मण प्रसन्‍न होकर अपने घर को चल दिया।’
वह आधे ही रास्‍ते में पहुँचा होगा कि उसका विचार एकदम बदल गया। उसने सोचा– ‘जो महापुरुष घर-घर से टुकडे मांगकर खाते हैं और संसार में इतनी अमूल्‍य समझी जाने वाली इस मणि को हाथ से स्‍पर्श नहीं करते, अवश्‍य ही उनके पास, इस असाधारण पत्‍थर से बढ़कर भी कोई वस्‍तु है। मैं तो उनसे उसी को प्राप्‍त करूँगा।

इस पारस को देकर तो उन्‍होंने मुझे बहका दिया।’ यह सोचकर वह लौटकर फिर इनके समीप आया और चरणों में गिरकर रो-रोकर अपनी सभी मनोव्‍यथा सुनायी। उसके सच्‍चे वैराग्‍य को देखकर इन्‍होंने पारस को यमुना जी में फेंकवा दिया और उसे अमूल्‍य हरि नाम का उपदेश किया। जिससे कुछ काल में वह परम संत बन गया। किसी ने ठीक ही कहा है–

पारस में अरु संत में, संत अधिक कर मान।
वह लोहा सोना करै यह करै आपु समान।।

ये मथुरा जी में मधुकरी करने के लिये एक चौबे के घर जाया करते थे। उस चौबे की स्‍त्री परम भक्‍ता और श्रीमदन मोहन भगवान की उपासिका थी। उसके घर बालभाव से श्री मदनमोहन भगवान विराजते थे। सनातन जी उनकी मूर्ति के दर्शनों से अत्‍यन्‍त ही प्रसन्‍न होते, असल में तो वे मदनमोहन जी के दर्शनों के ही लिये वहाँ जाते थे। उस चौबिन का एक छोटा-सा बालक था। मदनमोहन भी बालक ही ठहरे। दोनों में खूब दोस्‍ती थी। मदन मोहन तो गँवार ग्‍वाले ही ठहरे। ये आचार-विचार क्‍या जानें। उस चौबिन के लड़के के साथ ही एक पात्र में भोजन करते। सनातन जी को देखकर बड़ा आश्‍चर्य हुआ कि ये मदनमोहन सरकार बड़े विचित्र हैं।

एक दिन ये मधुकरी लेने गये। चौबिन इन्‍हें भिक्षा देने लगी। इन्‍होंने आग्रह पूर्वक कहा– ‘माता ! यदि तुम मुझे कुछ देना चाहती हो तो इस बच्‍चे को उच्छिष्‍ट अन्‍न मुझे दे दो।’ चौबिन ने इनकी प्रार्थना स्‍वीकार कर ली और इन्‍हें वही मदन मोहन का उच्छिष्‍ट प्रसाद दे दिया। बस, फिर क्‍या था, इन्‍हें तो उस माखन चोर की लपलपाती जीभ से लगे हुए अन्‍न का चस्‍का लग गया, ये नित्‍यप्रति उसी उच्छिष्‍ट अन्‍न को लेने जाने लगे।

एक दिन स्‍वप्‍न में मदन मोहन जी ने कहा– ‘भाई ! शहर में तो हमें ऊब सी मालूम पडती है, तुम उस चौबिन से मुझे ले आओ, मैं तो जंगल में ही रहूँगा।’ ठीक उसी रात्रि को चौबिन को भी यही स्‍वप्‍न हुआ कि तू मुझे सनातन साधु को दे दे। दूसरे दिन ये गये और इन्‍होंने कहा– ‘माता जी ! मदन मोहन अब वन में रहना चाहते हैं, तुम्‍हारी क्‍या इच्‍छा है?’

कुछ प्रेम युक्‍त रोष के स्‍वर में चौबिन ने कहा– ‘साधु बाबा ! इसकी यह सब करतूत मुझे पहले से ही मालूम है। एक जगह रहना तो यह जानता ही नहीं, यह बड़ा निर्मोही है, कोई इसका सगा नहीं !’ भला, जिस यशोदा ने इसका लालन-पालन किया, खिला-पिलाकर इतना बड़ा किया, उसे भी बटाऊ की तरह छोड़कर चला गया।

मुझसे भी कहता था– ‘मेरा यहाँ मन नहीं लगता।’ मैंने भी सोच लिया– ‘मन नहीं लगता तो मेरी बला से। जब तुझे ही मेरा मोह नहीं, तो मुझे भी तेरा मोह नहीं। भले ही तू साधू के साथ चला जा।’ ऐसा कहते-कहते आँखों में आंसू भरकर उसने मदन मोहन को सनातन जी के साथ कर दिया। ऊपर से तो वह ऐसी बातें कह रही थी, किन्‍तु उसका हृदय अपने मदन मोहन के विरह से तड़प रहा था। सनातन जी मदन मोहन को साथ लेकर यमुना के किनारे आये। अब मदन मोहन के रहने के लिये उन्‍होंने सूर्यघाट के समीप एक सुरम्‍य टीले पर फूँस की झोपड़ी बना ली और उसी में वे मदन मोहन जी की पूजा करने लगे। अब वे घर-घर से आटे की चुटकी मांग लाते और उसी की बिना नमक की मधुकरी बनाकर मदन मोहन को भोजन कराते।

एक दिन मदन मोहन ने मुँह बनाकर कहा– ‘साधु बाबा ! ये बिना नमक की बाटियाँ हमसे तो खायी नहीं जातीं। थोड़ा नमक भी किसी से मांग लाया करो।’

सनातन जी ने झुँझलाकर कहा– ‘यह इल्‍लत मुझसे मत लगाओ, खानी हो तो ऐसी ही खाओ, नहीं अपने घर का रास्‍ता पकड़ो।’
मदनमोहन सरकार ने कुछ हँसकर कहा– ‘एक कंकड़ी नमक को कौन मना करेगा, कहीं से ले आना मांगकर।’ दूसरे दिन ये आटे के साथ थोड़ा नमक भी लाने लगे। चटोरे मदन मोहन को तो मीठे माखन और मिश्री की चाट पड़ी हुई थी इसलिये एक दिन बड़ी ही दीनता से बोले– ‘साधु बाबा ! ये रूखे टिक्‍कड़ तो हमारे गले के नीचे नहीं उतरते। थोड़ा घी भी कहीं से लाया करो तो अच्‍छा है।’
अब सनातन जी मदन मोहन जी को खरी-खरी सुनाने लगे ! उन्‍होंने कहा– ‘देखो जी ! सुनो मेरी सच्‍ची बात।

मेरे पास तो ये ही सूखे टिक्‍कड़ हैं, तुम्‍हें घी-चीनी की चाट थी तो किसी धनिक के यहाँ जाते, मुझ भिक्षुक के यहाँ तो ये ही सूखे टिक्‍कड़ मिलेंगे। तुम्‍हारे गले के नीचे उतरे चाहे न उतरे, मैं किसी धनिक के पास घी-बूरा मांगने नहीं जाऊँगा। थोड़े यमुना-जल के साथ सटक लिया करो। मिट्टी भी तो सटक जाते थे।’ बेचारे मदनमोहन अपना सा मुंह बनाये चुप हो गये। उस लँगोटीबंद साधु से वे और कह ही क्‍या सकते थे।
दूसरे दिन उन्‍होंने देखा, एक बडा भारी धनिक व्‍यापारी उनके समीप आ रहा है। ये बैठे भजन कर रहे थे, उसने दूर से ही इनके चरणों में साष्‍टांग प्रणाम किया और बड़े ही करुणस्‍वर से कहने लगा– ‘महात्‍मा जी ! मेरा जहाज यमुना जी में अड़ गया है, ऐसा आशीर्वाद दीजिये कि वह निकल जाय, मैं आपकी शरण में आया हूँ।’ इन्‍होंने कहा– ‘भाई ! मैं कुछ नहीं जानता, इस झोपड़ी में जो बैठा है, उससे कहो।’

व्‍यापारी ने भगवान मदनमोहन से प्रार्थना की– ‘हे भगवन ! यदि मेरा जहाज निकल जाय तो बिक्री के आधे द्रव्‍य से मैं आपकी सेवा करूँ।’ बस, फिर क्‍या था, जहाज उसी समय निकल गया। उन दिनों नादियों के द्वारा नाव से ही व्‍यापार होता था। रेल, तार और मोटर आदि यंत्र तो तब थे ही नहीं। महाजन का माल दुगुने दामों में बिका। उसी समय उसने हजारों रुपये लगाकर बड़ी उदारता के साथ मदनमोहन जी का मन्दिर बनवा दिया। और भगवान की सेवा के लिये पुजारी, रसोइया, नौकर-चाकर तथा और भी बहुत-से काम वाले रख दिये। वह वृन्‍दावन मन्दिर में अभी तक विद्यमान है।

इनकी ख्‍याति सुनने पर अकबर बादशाह इनके दर्शनों के लिये आया और इनसे कुछ सेवा के लिये प्रार्थना करने लगा। जब बहुत मना करने पर भी वह न माना तब इन्‍होंने अपने कुटिया के समीप के यमुना जी के फूटे हुए घाट के कोने को सुधरवाने की आज्ञा दी। उसी समय अकबर को वहाँ की सभी भूमि अमूल्‍य रत्‍नों से जटित दिखायी देने लगी। तब तो वह इनके पैरों में गिरकर कहने लगा– ‘प्रभो ! मेरे अपराध को क्षमा कीजिये, मेरा सम्‍पूर्ण राज्‍य भी यहाँ के एक रत्‍न के मूल्‍य के बराबर नहीं।’ यही घटना श्री हरिदास स्‍वामी जी के सम्‍बन्‍ध में भी कही जाती है, दोनों ही ठीक हैं। भक्‍तों की लीला अपरम्‍पार है, उन्‍हें श्रद्धापूर्वक सुन लेना चाहिये। तर्क करना हो तो दर्शनशास्‍त्रों को पढ़ो।

इन्‍होंने भी भक्तितत्त्व की खूब पर्यालोचना की है, इनके बनाये हुए चार ग्रन्‍थ प्रसद्धि हैं–
(‌1) बृहद्भागवतामृत (दो खण्ड), (2) हरिभक्तिविलास, टीकादिक प्रदर्शिनी, (3) वैष्‍णवतोषिणी (दशम स्‍कन्‍ध की टिप्‍पणी), (4) लीलास्‍तव (दशम चरित्र)।

सत्तर वर्ष की आयु में सं. 1615 (ईस्‍वी सन 1558) की आषाढ सुदी चतुर्दशी के दिन इनका गोलोकगमन बताया जता है। ये परम विनयी, भागवत और भगवत-रस-रसिक वैष्‍णव थे।

3 – श्री जीवगोस्‍वामी जी

श्री अनूप-तनय स्‍वामी श्रीजीव जी का वैराग्‍य परमोत्‍कृष्‍ट था। ये आजन्‍म ब्रह्मचारी रहे। स्त्रियों के दर्शन तक नहीं करते थे। पिता के वैकुण्‍ठवास हो जाने पर और दोनों ताउओं के गृहत्‍यागी-विरागी बन जाने पर इन्‍होंने भी उन्‍हीं के पथ का अनुसरण किया और ये भी सब कुछ छोड़कर श्री वृन्दावन में जाकर अपने पितृव्‍यों के चरणों का अनुसरण करते हुए शास्‍त्र-चिन्‍तन और श्रीकृष्‍ण-कीर्तन में अपना समय बिताने लगे। ये अपने समय के एक नामी पण्डित थे। व्रजमण्‍डल में इनकी अत्‍यधिक प्रतिष्‍ठा थी। देवताओं को भी अप्राप्‍य व्रज की पवित्र भूमि को परित्‍याग करके ये कहीं भी किसी के आग्रह से बाहर नहीं जाते थे। सुनते हैं, एक बार अकबर बादशाह ने अत्‍यन्‍त ही आग्रह के साथ इन्‍हें आगरे बुलाया था और इनकी आज्ञानुसार ही उसने इन्‍हें घोड़ा गाड़ी में बैठाकर उसी दिन रात्रि को वृन्‍दावन पहुँचा दिया था। इनके सम्‍बन्‍ध की भी दो-एक घटना सुनिये-

सुनते हैं कि एक बार कोई दिग्विजयी पण्डित दिग्विजयी की इच्‍छा से वृन्‍दावन में आया। श्री रूप तथा सनातन जी ने तो उससे बिना शास्‍त्रार्थ किये ही विजय पत्र लिख दिया। किन्‍तु श्री जीगोस्‍वामी उससे भिड़ गये और उसे परास्‍त करके ही छोडा। इस समाचार को सुनकर श्रीरूप गोस्‍वामी ने इन्‍हें डाँटा और यहाँ तक कह दिया– ‘जो वैष्‍णव दूसरों को मान नहीं देना जानता, वह सच्‍चा वैष्‍णव ही नहीं। हमें जय-पराजय से क्‍या ? तुम जय की इच्‍छा से उससे भिड़े पड़े, इसलिये अब हमारे सामने मत आना।’ इससे इन्‍हें अत्‍यन्‍त ही दु:ख हुआ और ये अनशन करके यमुना-किनारे जा बैठे। श्री सनातन जी ने जब यह समाचार सुना तो उन्‍होंने रूप गोस्‍वामी के पास आकर पूछा– ‘वैष्‍णवों को जीव के ऊपर दया करनी चाहिये अथवा अदया।’ श्रीरूप जी ने कहा– यह तो सर्वसम्‍मत सिद्धान्‍त है कि ‘वैष्‍णव को जीवमात्र के प्रति दया के भाव प्रदर्शित करने चाहिये।’ बस, इतना सुनते ही सनातन जी ने जीवगोस्‍वामी जी को उनके पैरों में पड़ने का संकेत किया। जीवगोस्‍वामी अधीर होकर उनके पैरों में गिर पड़े और अपने अपराध को स्‍मरण करके बालकों की भाँति फूट-फूटकर रुदन करने लगे। श्री रूपजी का हृदय भर आया, उन्‍होंने इन्‍हें हृदय से लगाया और इनके अपराध को क्षमा कर दिया।

सुनते हैं परमभक्‍ता मीराबाई भी इनसे मिली थीं। उन दिनों ये एकान्‍त में वास करते थे और स्त्रियों को इनके आश्रम में जाने की मनाही थी। जब मीराबाई ने इनसे मिलने की इच्‍छा प्रकट की और उन्‍हें उत्तर मिला कि वे स्त्रियों से नहीं मिलते, तब मीराबाईजी ने सन्‍देश पठाया– ‘वृन्‍दावन तो बांकेविहारी का अन्‍त:पुर है। इसमें गोपिकाओं के सिवा किसी दूसर को प्रवेश नहीं। ये विहारी जी के नये पट्टीदार पुरुष और कहाँ से आ बसे, इन्‍हें किसी दूसरे स्‍थान की खोज करनी चाहिये।’ इस बात से इन्‍हें परम प्रसन्‍नता हुई और ये मीराबाई जी से बड़े प्रेम से मिले। इन्‍होंने एक योग्‍य आचार्य की भाँति भक्ति-मार्ग का खूब प्रचार किया। अपने पितृव्‍यों की भाँति इन्‍होंने भी बहुत से ग्रन्‍थ बनाये। कृष्‍णदास गोस्‍वामी ने इन तीनों के ही गन्‍थों की संख्‍या चार लाख बतायी है। यहाँ ग्रन्‍थ से तात्‍पर्य अनुष्‍टुप छन्‍द या एक श्‍लोक से है, पुस्‍तक से नहीं। श्रीरूप के बनाये हुए सब एक लक्ष ग्रन्‍थ या श्‍लोक बताये जाते हैं। सब पुस्‍तकों में इतने श्‍लोक हो सकते हैं। श्री जीवगोस्‍वामी के बनाये हुए नीचे लिखे ग्रन्‍थ मिलते हैं– श्रीभागवत षटसन्‍दर्भ, वैष्‍णवतोषिणी, लघुतोषिणी और गोपालचम्‍पू। इनके वैकुण्‍ठवास की ठीक-ठीक तिथि या संवत का पता हमें किसी भी ग्रन्‍थ से नहीं चला।

4 – श्री रघुनाथदास जी गोस्‍वामी

श्री रघुनाथदास जी का वैराग्‍य, गृहत्‍याग और पुरी निवास का वृत्तान्‍त तो पाठक पढ ही चुके होंगे। महाप्रभु तथा श्रीस्‍वरूप गोस्‍वामी के तिरोभाव के अनन्‍तर ये अत्‍यन्‍त ही दु:खी होकर वृन्दावन चले आये। इनकी इच्‍छा थी कि हम गोवर्धन पर्वत से कूदकर अपने प्राणों को गँवा दें, किन्‍तु श्रीरूप-सनातन आदि के समझाने-बुझाने पर इन्‍होंने शरीर त्‍याग का विचार परित्‍याग कर दिया। ये राधाकुण्‍ड के समीप सदा वास करते थे। कहते हैं, ये चौबीस घंटे में केवल एक बार थोड़ा-सा मट्ठा पीकर ही रहते थे। ये सदा प्रेम में विभोर होकर ‘राधे-राधे’ चिल्‍लाते रहते। इनका जन्‍म संवत अनुमान से 1416 शकाब्‍द बताया जाता है, इन्‍होंने अपनी पूर्ण आयु का का उपभोग किया। जय शकाब्‍द 1512 में श्री निवासाचार्य जी गौड देश को आ रहे थे, तब इनका जीवित रहना बताया जाता है। इनका त्‍याग-वैराग्‍य बडा ही अदभुत और अलौकिक था। इन्‍होंने जीवन भर कभी जिह्वा का स्‍वाद नहीं लिया, सुन्‍दर वस्‍त्र नहीं पहने और भी किसी प्रकार के संसारी सुख का भोग नहीं किया। लगभग सौ वर्षों तक ये अपने त्‍याग-वैराग्‍मय श्‍वासों से इस स्‍वार्थपूर्ण संसार के वायुमण्‍डल को पवित्रता प्रदान करते रहे। इनके बनाये हुए (1) स्‍तवमाला, (2) स्‍तवावली और (3) श्रीदानचरित– ये तीन ग्रन्‍थ बताये जाते हैं। इनके समान त्‍यागमय जीवन किसका हो सकता है ? राजपुत्र होकर भी इतना त्‍याग ! दास महाशय ! आपके श्रीचरणों में हमारे कोटि-कोटि प्रणाम हैं। प्रभो ! इस वासनायुक्‍त अधम के हृदय में भी अपनी शक्ति का संचार कीजिये।

5– श्री रघुनाथ भट्ट

हम पहले ही बता चुके हैं, तपन मिश्र जी के सुपुत्र श्री रघुनाथ भट्ट अपने माता-पिता के परलोकगमन के अनन्‍तर आठ महीने प्रभु के पादपद्मों में रहकर उन्‍हीं की आज्ञा से वृन्दावन जाकर रहने लगे थे। ये भागवत के बड़े भारी पण्डित थे, इनका स्‍वर बड़ा ही कोमल था। ये रूपगोस्‍वामी की सभा में श्रीमद्भागवत की कथा कहते थे। इनका जन्‍म-संवत अनुमान से 1425 बताया जाता है। ये कितने दिन तक अपने को कोकिल-कूजित कमनीय कण्‍ठ से श्रीमद्भागवत की कूक मचाकर वृन्दावन को बारहों महीने वसन्‍त बनाते रहे, इसका ठीक-ठीक वृत्तान्‍त नहीं मिलता।

6–श्रीगोपाल भट्ट

ये श्रीरंग क्षेत्र निवासी वेंकट भट्ट के पुत्र तथा श्री प्रकाशानन्‍द जी सरस्‍वती के भतीजे थे। पिता के परलोकगमन के अनन्‍तर ये वृन्‍दावन वास के निमित्त चले आये। दक्षिण-यात्रा में जब ये छोटे थे तभी प्रभु ने इनके घर पर चौमासे के चार मास बिताये थे। उसके बाद इनकी फिर महाप्रभु से भेंट नहीं हुई। इनके आगमन का समाचार श्री रूपसनातन जी ने प्रभु के पास पठाया था, तब प्रभु ने एक पत्र भेजकर रूप और सनातन इन दोनों भाइयों को लिखा था कि उन्‍हें स्‍नेह से अपने पास रखना और अपना सगा भाई ही समझना। महाप्रभु ने अपने बैठने का आसन और डोरी इनके लिये भेजी थी। इन दोनों प्रभुपसादी अमूल्‍य वस्‍तुओं को पाकर ये परम प्रसन्‍न हुए। ध्‍यान के समय ये प्रभु की प्रसादी डोरी को सिर पर धारण करके भजन किया करते थे। इनके उपास्‍यदेव श्री राधारमण जी थे।

सुनते हैं, इनके उपास्‍यदेव पहले शालग्राम के रूप में थे, उन्‍हीं की ये सेवा-पूजा किया करते थे, एक बार कोई धनिक वृन्‍दावन में आया। उसने सभी मन्दिरों के ठाकुरों के लिये सुन्‍दर वस्‍त्राभूषण प्रदान किये। इन्‍हें भी लाकर बहुत से सुन्‍दर-सुन्‍दर वस्‍त्र और गहने दिये। वस्‍त्र और गहनों को देखकर इनकी इच्‍छा हुई कि यदि हमारे भी ठाकुर जी के हाथ-पैर होते तो हम भी उन्‍हें इन वस्‍त्रा भूषणों को धारण कराते। बस, फिर क्‍या था। भगवान तो भक्‍त के अधीन हैं, वे कभी भक्‍त की इच्‍छा को अन्‍यथा नहीं करते। उसी समय शालग्राम की मूर्ति में से हाथ-पैर निकल आये और भगवान श्री राधारमण मुरली धारी श्‍याम बन गये। भट्ट जी की प्रसन्‍नता का ठिकाना नहीं रहा। उन्‍होंने भगवान को वस्‍त्रा भूषण पहनाये और भक्तिभाव से उनकी स्‍तुति की। श्री निवासाचार्य जी इन्‍हीं के शिष्‍य थे। इनके मन्दिर के पुजारी श्री गोपालनाथदास जी भी इनके शिष्‍य थे। इनके परलोकगमन के अनन्‍तर श्री गोपालनाथदास जी ही उस गद्दी के अधिकारी हुए। श्री गोपालनाथदास के शिष्‍य श्री गोपीनाथदास जी अपने छोटे भाई दामोदरदास जी को शिष्‍य बनाकर उनसे विवाह करने के लिये कह दिया। वर्तमान श्री राधारमण जी के गोस्‍वामिगण इन्‍हीं श्री दामोदर जी के वंशज हैं। वृन्‍दावन में श्री राधारमण जी की वही मनोहर मूर्ति अपने अद्भुत और अलौकिक प्रभाव को धारण किये हुए अपने प्रिय भक्‍त श्री गोपाल भट्ट की शक्ति और एकनिष्‍ठा की घोषणा कर रही है। भक्‍तवत्‍सल भगवान क्‍या नहीं कर सकते।

श्रीकृष्‍ण ! गोविन्‍द ! हरे ! मुरारे !
हे नाथ ! नारायण ! वासुदेव !

क्रमशः अगला पोस्ट [177]
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[ गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्री प्रभुदत्त ब्रह्मचारी कृत पुस्तक श्रीचैतन्य-चरितावली से ]



, Shri Hari:. [Bhaj] Nitai-Gaur Radheshyam [Chant] Harekrishna Hareram Six Goswamigans in Vrindavan of Mahaprabhu

Rudroadrim jaladhim harirdivisada duram vihayashrita: Even the mighty Bhagindras were first situated at the foot of the underworld I think she is absorbed in the lotus forest and dwells in the lotus for fear of seeking wealth In Kali-yuga only virtuous men are devoted to the upliftment of the poor.

The six goswamis of Mahaprabhu Chaitanya Dev are very famous. Their names are (1) Shrirup, (2) Shrisanatan, (3) Shri Jiva, (4) Shri Gopalbhatta, (5) Shri Raghunath Bhatta and (6) Shriraghunathdas ji. Readers must have read some details of these six in the previous episodes. Shrirup and Sanatan had gone from Puri to Vrindavan only after taking the permission of the Lord, but since then they did not return to Gaudesh. Shreejeev was the favorite son of his younger brother Anoop. The whole family became disinterested. It was a divine family. Jiva Goswami must have come to Vrindavan either after the disappearance of Mahaprabhu or shortly before the appearance of the Lord. The account of his meeting with the Lord is nowhere to be found. He went to Vrindavan only after taking the permission of Nityanand ji, this only indicates the absence of Mahaprabhu. Raghunath Bhatt was sent by the Lord himself from Puri. When Gopal Bhatt was young, Prabhu had spent Chaturmas traveling south to his home, after that he did not see Prabhu again. Raghunathdas ji came to Vrindavan after Lord’s pastimes and after Swarup Goswami’s departure to the other world and then he did not even put a foot anywhere leaving the holy land of Vrindavan. He spent the rest of his life living in Vraj. Let’s describe all of these very briefly separately further.

1- Srirup G Goswami

Readers have already got the introduction of Shri Roop ji and Sanatan ji. It is estimated that the birth of Shri Roop ji is said to be around Samvat 1545. He was only a year or two younger than his elder Shri Sanatan ji, but being the first to be blessed by the Lord, he is considered the elder brother of Sanatan ji in the Vaishnav society. The meeting of these two brothers with the Lord at Ramkeli, the meeting of the Lord with the Lord at Prayag, the darshan of the Lord at Puri, the creation of dramas, the news of God’s permission to return to Vrindavan after passing through the country of God So the readers must have read in the previous chapters, now listen to two or four incidents of his Vrindavan residence.

You used to reside near Brahmakund. One day you were doing bhajan without fasting, feeling hungry, but you didn’t want to leave the bhajan and go for alms, in the meantime a black cowherd boy came to him with milk in an earthen vessel and Said- ‘Take it Baba! Drink it Why are you doing hymns of the hungry, why don’t you go to the villages to beg.’

Roop ji drank that milk. It tasted better than nectar. Only then did they understand that ‘the dark-skinned boy is the same deceitful Vrindavan resident, he cannot see anyone hungry in his kingdom.’ No where did he go on his own. Hearing this news, Shri Sanatan ji came running and hugged him and said- ‘Brother! This Manmohan is very soft, don’t trouble him. You yourself beg for pieces from the houses of the residents of Vraj.’ From that day Shri Rupji Madhukari started going for alms daily. One day Shri Govinddev ji ordered him in a dream that ‘Brother! I am lying buried under the ground in a certain place. Every day a cow gives me milk from her breasts, you target that cow only and take me out and reveal my worship.

He got up early in the morning and reached the same place. There he saw – ‘A cow is standing there and the milk flowing from her udder itself is going down through a hole.’ Then his joy knew no bounds. At the same time they started digging that place. A lovely idol of Govind Dev ji came out of it, they started worshiping it. Later, Maharaj Mansingh ji of Jaipur got a grand and huge red stone temple of Govinddev ji built, which is increasing the glory of Shri Vrindavan. Due to the fear of Aurangzeb’s attack, the Maharaja of Jaipur had taken the Shrimurti here to his place from behind. Later, a new temple of ‘New Govinddev ji’ was built, in which along with Govinddev ji, the deities of Shri Chaitanya Dev and Shrinityanand ji were also installed from behind, which are still present.

When Shri Roop ji used to reside in Nand gram, then Shri Sanatan ji went to meet him at his place one day. Seeing his elder, he greeted him and gave him a beautiful seat to sit. Shri Roop ji started cooking food for his brother. He saw firsthand that Pyari ji was collecting all the food items, Sanatan ji was very upset by this. They sat silently watching. When the food was ready, Shri Roop ji offered it to God, God started eating directly with Pyari ji. He gave food to Shri Sanatan ji, who had left his leftover Mahaprasad. It had a divine taste more than nectar.

Sanatan ji said – ‘Brother! You are very fortunate, who get the prasad of your loved ones every day, but Sukumari Ladili ji must be having difficulty in collecting your belongings, I feel sad thinking this.’Shri Sanatan ji left after saying this. And the remaining Mahaprasad was eaten by Shri Roop ji with great interest and taste.

In some poem, Mr. Roop ji compared Pyari ji’s braid to a black snake. Sanatan ji felt very sad thinking that what is the use of poisonous black snake near Pyari ji’s Amritpurna Anan? He was engrossed in this worry that he saw Pyari ji swinging with her beloved on the Kadamba tree in front of him. There was a black snake-like wave on his head, there was no work of cruelty in him, there was no name of anger and poison. She was the most gentle, the one who defeated the hearts of the lovers and the fickle, very playful serpent who attracted the mind towards her. Shri Sanatan ji was very happy with this and Pyari ji automatically resolved his doubt by giving her rare darshans. In this way many stories are told of the greatness of his devotion and love. They always lived happily in the form of couple Madhuri. Alone, by mistake, by mistake, by wandering, he always used to wander in the forests of Vrindavipin. His food was the nectar of the beloved’s beauty, that’s all, he always remained happy in that item. He always kept on chanting while being engrossed in love and in the rest of the time he used to recite devotional books. Sixteen devotional texts made by him are available.

(1) Hansdoot, (2) Uddhavasandesha, (3) Krishnajanmatithividhi, (4) Ganoddeshadeepika (5) Stavamala, (6) Vidagdhamadhava, (7) Lalitamadhava, (8) Danlila, (9) Dankelikaumudi, (10) Bhaktirasaamritasindhu, ( 11) Ujjavalanilamani, (12) Mathuramahatmya (13) Akhyatchandrika, (14) Padyavali, (15) Natakachandrika and (16) Laghubhagavatamrita.

Staying in Vrindavan, he showed the real form of Shri Krishna-love. He was always engaged in chanting names and reading books. In the book titled ‘Journey to Vrindavan’, the date of his Vaikunthavas is written as Shravan Shukla Dwadashi of Samvat 1640 (AD 1563). In this way, by staying on this earth for almost 74 years, he kept shining the light of devotion.

3- Sanatan Goswami ji Shri Sanatan ji’s birth is estimated to be around Samvat 1544, the account of his imprisonment, coming to Prayag after being liberated from it, listening to the classical teachings while staying at the lotus feet of the Lord, going to Vrindavan, returning to Puri, coming back to Puri. Readers must have already read the story of getting itching, deciding to die under the chariot of Shri Jagannathji, going to Vrindavan by the order of the Lord and doing bhajans and reading books, now two or four incidents of Vrindavan related to these. Listen

One day this Shri Yamuna ji was going to take bath, he found a piece of Paras stone lying on the way. They covered him with dust right there. The same day a Brahmin came to him and started begging for money. He said a lot – ‘Brother! We are beggars, we eat pieces by begging, where do we have money, go to some rich Seth-moneylender.’ But he did not agree. He said – ‘Shri Maharaj! I worshiped Shiva for many years with the desire of wealth, that’s why Shiva was satisfied and said to me in the dream at night – ‘O Brahmin! The desire with which you worship me, that desire will be fulfilled when you go near Sanatan Goswami in Vrindavan. I have come to your shelter only because of his dream. On this Sanatan ji remembered that Paras stone. He said- ‘Good thing, Yamuna ji come with me. Saying this, he took him to the bank of Yamuna. He told him the place of Paras by pointing his finger from a distance. He searched a lot, but could not find Paras. Then he said- ‘Don’t deprive me, if you can, then find it yourself and give it.’

He said – ‘Brother! What is the matter of deprivation in this, I cannot touch it, you search with patience, you will find it here! Brahmin started searching, suddenly he found a piece of Paras. At the same time he tested it by touching it with a piece of iron, in no time the piece of iron turned into gold. The brahmin was happy and went to his home. He must have reached half way when his mind changed completely. He thought – ‘ Those great men who eat pieces from house to house and do not touch this gem which is considered so priceless in the world, surely they have something more than this extraordinary stone. I will get the same from him.

By giving this Paras, he misled me.’ Thinking this, he came back again and fell at his feet and narrated all his agony by crying. Seeing his true disinterest, he threw Paras in Yamuna ji and preached him the priceless name of Hari. Due to which he became a supreme saint in some time. Someone has rightly said-

In Paras, among other saints, saints give more respect. He turns iron into gold, this one turns into gold like you.

He used to go to a Chaubey’s house to do Madhukari in Mathura ji. That Chaubey’s wife was an ardent devotee and worshiper of Shrimadan Mohan Bhagwan. Shri Madanmohan Bhagwan used to sit in his house from childhood. Sanatan ji would have been very happy to have darshan of his idol, in fact he used to go there only to have darshan of Madanmohan ji. That Chaubin had a small child. Madan Mohan also remained a child. There was a lot of friendship between both of them. Madan Mohan remained an illiterate cowherd. What do these ethics and thoughts know? Used to eat in a vessel with that Chaubin’s boy. I was very surprised to see Sanatan ji that this Madanmohan government is very strange.

One day he went to buy honey. Chaubin started giving alms to them. He insisted – ‘Mother! If you want to give me something, then give the leftover food to this child.’ Chaubin accepted his request and gave him the same leftover food of Madan Mohan. That’s all, then what was there, they got a taste of the food that was attached to the tongue of that butter thief, they started going to take the same food every day.

One day in a dream, Madan Mohan ji said – ‘Brother! We feel bored in the city, you bring me to that Chaubin, I will stay in the jungle.’ Exactly the same night, Chaubin also had the same dream that you give me to Sanatan Sadhu. The next day he went and said – ‘Mother! Madan Mohan now wants to live in the forest, what is your wish?’

Chaubin said in a voice of anger mixed with love – ‘Sadhu Baba! I already know all these misdeeds of his. He doesn’t even know how to stay in one place, he is very ruthless, no one is his relative!

He used to say to me too – ‘I don’t feel like here.’ When you are not in love with me, then I am also not in love with you. Even if you go with the monk.’ Saying this with tears in his eyes, he made Madan Mohan join Sanatan ji. She was saying such things on the surface, but her heart was agonizing with the separation from her Madan Mohan. Sanatan ji came to the bank of Yamuna taking Madan Mohan along with him. Now for Madan Mohan’s stay, he built a thatched hut on a picturesque mound near Suryaghat and in that he started worshiping Madan Mohan ji. Now he used to bring a pinch of flour from house to house and make Madhukari of the same without salt and feed Madan Mohan.

One day Madan Mohan made a face and said – ‘Sadhu Baba! We can’t eat these balls without salt. Ask someone to bring some salt too.’

Sanatan ji got annoyed and said- ‘Don’t put this problem on me, if you want to eat, then eat like this, otherwise take your way home.’ Madan Mohan Sarkar laughed a bit and said- ‘Who would refuse a pebble of salt, by asking to bring it from somewhere.’ The next day he started bringing some salt along with the flour. Chatore Madan Mohan was fond of sweet butter and sugar candy, so one day he said very humbly – ‘Sadhu Baba! These dry tikkas do not go down our throat. It is better if you bring some ghee from somewhere.’ Now Sanatan ji has started narrating to Madan Mohan ji. He said- ‘Look! Listen my true words.

I have only these dry tikkas, if you had a chaat of ghee and sugar, you would have gone to a rich man’s place, but at my beggar’s place you would get only these dry tikkas. Whether it comes down your throat or not, I will not go to any rich man to ask for ghee. Get stuck with some Yamuna water. Even the soil used to get stuck.’ Poor Madanmohan became silent with a frown on his face. What else could they say to that loin clothed monk. The next day he saw a very wealthy businessman coming near him. He was doing bhajan while sitting, he prostrated at his feet from a distance and started saying in a very compassionate voice – ‘ Mahatma ji! My ship has got stuck in Yamuna ji, give such a blessing that it leaves, I have come in your shelter.’ He said – ‘Brother! I don’t know anything, tell the one who is sitting in this hut.’

The merchant prayed to Lord Madanmohan- ‘O God! If my ship leaves, I will serve you with half of the sale amount. In those days trade was done by boat through the rivers. Rails, wires and motors etc. were not there then. Mahajan’s goods were sold for double the price. At the same time, he got the temple of Madanmohan ji built with great generosity by spending thousands of rupees. And for the service of God, priests, cooks, servants and many other workers were kept. It is still present in the Vrindavan temple.

On hearing his fame, Emperor Akbar came to visit him and started praying to him for some service. When he did not agree even after a lot of persuasion, then he ordered to repair the corner of Yamuna ji’s torn ghat near his hut. At the same time, Akbar started seeing all the land there studded with priceless gems. Then he fell at his feet and started saying – ‘Lord! Forgive my crime, even my entire kingdom is not equal to the value of a jewel here.’ The same incident is said in relation to Shri Haridas Swami ji, both are correct. The pastimes of the devotees are limitless, they should be listened to with devotion. If you want to argue, read the philosophies.

He has also criticized the essence of devotion. His four books are famous: ( 1) Brihadbhagavatamrita (two volumes), (2) Haribhaktivilas, commentary and other exhibitions, (3) Vaishnavatoshini (commentary on the tenth Skanda), (4) Lilastava (tenth character).

At the age of seventy no. In 1615 (AD 1558), on the day of Ashadh Sudi Chaturdashi, it is said that he went to Golok. He was the ultimate Vinayi, Bhagwat and Bhagwat-Ras-Rasik Vaishnava.

3 – Mr. Jeevgoswami

The quietness of Shri Anup-Tanaya Swami Shrijiv was supreme. He remained celibate throughout his life. He didn’t even see women. When his father went to Vaikuntha and both his uncles became renunciates, he also followed his path and left everything and went to Sri Vrindavan, following the footsteps of his ancestors, in scripture-thinking and Shri Krishna-Kirtan. Started spending his time. He was a renowned scholar of his time. He had a lot of prestige in Vrajmandal. Leaving the holy land of Vraj inaccessible even to the deities, he did not go anywhere on anyone’s request. It is heard, once Emperor Akbar called him to Agra with great insistence and as per his orders, he made him sit in a horse-cart and took him to Vrindavan at night the same day. Listen to one or two incidents related to their relation-

It is heard that once a Digvijayi Pandit came to Vrindavan with the wish of Digvijayi. Shri Roop and Sanatan ji wrote a letter of victory to him without even discussing the scriptures. But Shri Jigoswami confronted him and left him only after defeating him. Hearing this news, Shrirup Goswami scolded him and even said – ‘The Vaishnava who does not know how to respect others is not a true Vaishnava. What do we have to do with victory and defeat? You clashed with him because of Jai’s wish, so don’t come in front of us. When Shri Sanatan ji heard this news, he came to Roop Goswami and asked – ‘Should Vaishnavas have compassion for living beings or Adya.’ Should be displayed.’ On hearing this, Sanatan ji indicated to Jeevgoswami ji to fall at his feet. Jivagoswami fell at his feet impatiently and remembering his crime started crying like a child. Shri Rupji’s heart was filled, he hugged him and forgave him for his crime.

It is heard that Mirabai, a great devotee, had also met him. In those days he lived in seclusion and women were not allowed to enter his ashram. When Mirabai expressed her desire to meet him and got the answer that he does not meet women, then Mirabaiji sent a message – ‘Vrindavan is the end of Banke Vihari. No one except the Gopikas can enter it. Where else did these new bandaged men of Vihari ji come from, they should search for some other place.’ This made him very happy and he met Meerabai ji with great love. He preached the path of devotion a lot like a qualified Acharya. Like his ancestors, he also made many books. Krishnadas Goswami has told the number of books of these three to be four lakhs. Here, the meaning of the book is from the Anushtup verse or a verse, not from the book. Everything created by Srirupa is said to be a Laksha Granth or Shloka. There can be so many verses in all the books. The following texts written by Shri Jivagoswami are found – Shri Bhagwat Shatsandarbha, Vaishnavatoshini, Laghutoshini and Gopalchampu. We did not know the exact date or Samvat of his Vaikunthavas from any scripture.

4 – Shri Raghunathdas Ji Goswami

Readers must have read the story of Shri Raghunathdas ji’s renunciation, homelessness and Puri residence. After the disappearance of Mahaprabhu and Sri Svarupa Goswami, he returned to Vrindavan very sad. His wish was that we should lose our lives by jumping from the Govardhan mountain, but on the persuasion of Shrirup-Sanatan etc., he abandoned the idea of ​​renunciation. He always used to reside near Radhakund. It is said that he used to live only once in 24 hours by drinking a little whey. He always used to shout ‘Radhe-Radhe’ being engrossed in love. His birth is said to be 1416 Shakabd, he enjoyed his full age. In Jai Shakabd 1512, Shri Niwasacharya ji Gaud was coming to the country, then he is said to be alive. His renunciation and disinterest was wonderful and supernatural. Throughout his life, he never tasted food, did not wear beautiful clothes and did not enjoy any kind of worldly pleasure. For almost a hundred years, he kept purifying the atmosphere of this selfish world with his breath of renunciation. (1) Stavamala, (2) Stavavali and (3) Sridancharit – these three books are said to have been made by him. Who can have a renunciation life like him? So much sacrifice even after being the son of a prince! Das sir! We have millions of salutations at your holy feet. Lord! Communicate your power in the heart of this lustful adham.

5- Shri Raghunath Bhatt

We have already told that Shri Raghunath Bhatt, son of Tapan Mishra ji, after the death of his parents, stayed in the lotus feet of the Lord for eight months and started living in Vrindavan on their orders. He was a great scholar of Bhagwat, his voice was very soft. He used to tell the story of Shrimad Bhagwat in the meeting of Rupgoswami. His birth date is estimated to be 1425. For how many days he used to make Vrindavan spring for twelve months by chanting Shrimad Bhagwat from his cuckoo-kujit kamaniya kantha, the exact account of this is not available.

6-Shrigopal Bhatt

He was the son of Venkat Bhatt, a resident of Shrirang area and nephew of Shri Prakashanandji Saraswati. After the death of his father, he came to Vrindavan for his abode. When he was young in the journey to the South, then the Lord had spent four months of fourteen months at his house. After that he did not meet Mahaprabhu again. The news of his arrival was sent by Shri Roop Sanatan ji to the Lord, then the Lord sent a letter to these two brothers Roop and Sanatan to keep them with him with affection and consider them as their own brothers. Mahaprabhu had sent his seat and rope for him. He was overjoyed to receive these two Prabhupasadi priceless things. At the time of meditation, he used to do bhajan by holding the prasadi dori of the Lord on his head. His worshiper was Shri Radharaman ji.

It is heard that their worshiper was earlier in the form of Shaalgram, they used to serve and worship him, once a rich man came to Vrindavan. He provided beautiful clothes and ornaments for the Thakurs of all the temples. Brought them too and gave them many beautiful clothes and ornaments. Seeing the clothes and ornaments, he wished that if we too had the hands and feet of Thakur ji, we too would have made him wear these ornaments. So, all was set. God is subordinate to the devotee, He never does otherwise to the devotee’s wish. At the same time, hands and feet came out from the idol of Shaalgram and Lord Shri Radharaman became Murli Dhari Shyam. Bhattji’s happiness knew no bounds. He adorned the Lord with clothes and worshiped him with devotion. Shri Niwasacharya ji was his disciple. The priest of his temple Shri Gopalnathdas ji was also his disciple. After his death Shri Gopalnathdas ji became the owner of that throne. Shri Gopinathdas, the disciple of Shri Gopalnathdas, made his younger brother Damodardas a disciple and asked him to marry him. The present Goswamigan of Shri Radharaman ji are the descendants of this Shri Damodar ji. The same graceful idol of Shri Radharaman ji in Vrindavan wearing its wonderful and supernatural influence is proclaiming the power and oneness of its beloved devotee Shri Gopal Bhatt. What can’t a devotee of God do?

Sri Krishna! Govind! Hare! Murare! O Lord! Narayana! Vasudeva!

respectively next post [177] , [From the book Sri Chaitanya-Charitavali by Sri Prabhudatta Brahmachari, published by Geetapress, Gorakhpur]

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