जैसे एक ही चाबी ताले को खोलती भी है और बंद भी करती है, एक ही मन बंधन का भी हेतु है, और यही मुक्ति का हेतु भी हो सकता है।
जैसे एक दिशा में घुमाने से ताला बंद हुआ है, विपरीत दिशा में घुमाने से खुलता है, संसार में लगा मन बंधनकारी है, तो यदि इसे ईश्वर में लगा दें तो मुक्तिकारी हो जाए।
चाबी की निंदा से कुछ नहीं होगा, ताला चाबी ने नहीं, चाबी घुमानेवाले ने लगाया है। योंही मन की निंदा से भी क्या होगा? क्योंकि मन स्वयं संसार में नहीं लगा, आप ने लगाया है। यह अलग बात है कि आज से नहीं लगाया, कभी लगाया था। बस गेंद सीढ़ी से लुड़की तो लुड़कती चली गई। पानी में मिट्टी मिल गई, अब पानी साफ कैसे हो? कचरा फैल तो एक पल में जाता है, समेटने में बहुत श्रम लगता है।
देखें, मन तो ऐसा है कि इस पर हर भाव अंकित हो जाता है, इसी को संस्कार कहते हैं। न मालूम कब संसार के संस्कार का बीज पड़ा, अंकुर फूटा, वृक्ष बढ़ा, फूल लगे और फल बने। उन फलों से पुनः अनन्त बीज बन कर इसी मन की भूमि में पड़ते रहे, अब यह घोर घना जंगल कैसे कटे?
मेरे भाई बहन! जल्दबाजी न करें, घबराएँ नहीं, समझकर चलें। मुश्किल भले लगे, असंभव नहीं है। याद रखें-
“तलाशे यार में जो ठोकरें खाया नहीं करते।
कभी वो मंजिले मकसूद को पाया नहीं करते॥”
इससे पहले कि मृत्यु आए, यदि नया संस्कार न पड़े, और पिछले मिटते चले जाएँ, तो बात बन जाए।
तो एक काम करें, मेरी बात मान कर, दो की आड़ ले लें। संत और भगवान का सहारा ले लें। संत के संग और संत की सेवा से मन का पिछला मैल साफ हो जाता है, और भगवान के नामजप और रूपध्यान से नए दाग नहीं पड़ते। तब स्वाभाविक ही, विषयाकार मन भगवदाकार हो जाता है, तब बंधन नहीं रहता।
हरि ॐ तत्सत्🌹🌹