ऊधौ कहा करैं लै पाती
जौ लौं मदनगुपाल न देखें, बिरह जरावत छाती ॥
निमिष-निमिष मोहिँ बिसरत नाहीं, सरद सुहाई राती ।
पीर हमारी जानत नाहीं, तुम हौ स्याम संघाती ॥
यह पाती लै जाहु मधुपुरी, जहॉ वै बसैं सुजाती ।
मन जु हमारे उहां लै गए, काम कठिन सर घाती ॥
‘सूरदास’ प्रभु कहा चहत हैं, कोटिक बात सुहाती ।
एक बेर मुख बहुरि दिखावहु, रहैं चरन-रज-राती ॥ भावार्थ
हे ऊधव, तुम जो यह पाती लेकर आए हो, इसे लेकर हम क्या करें ? ओढ़ें कि दसा
एं? इस चिट्ठी से हमारा कोई काम निकलने वाला नहीं। जब तक हम मदनगोपाल को देख नहीं लेतीं, तब तक विरह हमारा हृदय जलाता ही रहेगा। हमें शरद की वह सुहावनी रात, जब श्रीहरि ने हमारे साथ रास रचाया था, एक पल के लिए भी नहीं भूलती। तुम श्याम के साथी हो। जिस प्रकार श्याम हमारी पीड़ा नहीं समझ रहे हैं, उसी प्रकार तुम भी हमारी विरह वेदना का अनुमान नहीं कर पा रहे हो। यह पाती लेकर तुम उस मधुपुरी को चले जाओ, जहाँ श्रेष्ठ यदुकुल के श्रीमदनगोपाल आजकल रह रहे हैं और वहाँ वे हमारे ऊपर काम के कठोर वाणों से आघात करके हमारे मन को लेते गए हैं। क्या प्रभु समझते हैं कि हम रंग-रंग की मन को अच्छी लगने वाली अनेकानेक बातें सुनना चाहती हैं। नहीं, बातों से पेट नहीं भरता। प्रभु एक बार आकर अपना
मुंह हमें फिर दिखला दो। हम इतने से ही तुम्हारे चरणों की धूल में अनुरक्त बनी रहें
गी