ठहरिये दादोसा! लगे हाथ एक वरदान चारभुजानाथसे और माँग लूँ। ऐसे पावन पर्व जीवनमें बार-बार नहीं आते।’- पिताके वक्षसे अलग होते ही रतनसिंहने कहा।
दोनों भाई हाथ पकड़े प्रसन्न मनसे चारभुजानाथके दर्शन करने चले। मंदिरमें प्रभुके सामने दोनों भाइयोंने घुटने टेके और माथेसे शिरोभूषण सहित साफे उतारकर उनके सम्मुख रखे, हाथ जोड़कर गद्गद कंठसे रतनसिंह बोले- ‘म्हाँरा धणी ! जमारामें कदी अतरो लोभ मती दीजो के दादोसाने, अणी व्हाली जलम भौमने, अर थने-थने म्हाँरा व्हाला प्राण, थने छोड़ ने कठै दूजे जा बसूँ। म्होटा भाई मालीक अर म्हूँ चाकर हूँ या बात कदी मन सूँ कदै न निकले। अणी जलम भौमकाको रिण ओछो करतां रणमें दोई-दोई हाथाँ सूँ साँग बावतो, लोही री होली रमतो, रण नृत्य करतो ही देही छोडूं। यो…. यो…. ही म्हाँरो मनोरथ पूरो कर म्हाँरा नाथ! यो ही वरदान दे म्हाँरा तिरलोकी नाथ !’ (मेरे स्वामी! जीवनमें इतना लोभ कभी मत देना कि बड़े भाई, इस प्यारी जन्मभूमि और मेरे प्यारे! मेरे प्राण! तुम्हें छोड़कर कहीं और जा बसूँ। बड़े भाई स्वामी हैं और मैं उनका सेवक हूँ, यह बात कभी मनसे न निकले। इस जन्मभूमिका ऋण उतारते हुए दोनों हाथोंसे तलवार चलाता हुआ, रक्तकी होली खेलता हुआ, रण-नृत्य करता हुआ ही देह छोडूं। यही…. यही मेरा महामनोरथ पूर्ण करो नाथ, हे त्रिलोकपति! यही वरदान दो मुझे।)
‘हे प्रभु, तुम्हारा यह तुच्छ दास वीरमदेव केवल यही माँगता है कि जन्म जन्मांतरमें भी मुझे मेरा यही भाई प्राप्त हो। हमारा यह भ्रातृ-प्रेम कभी कम न हो।’– वीरमदेवने दोनों हाथ पसार दिये।
मंदिरमें उपस्थित लोग और पुजारीजी अवाक् देखते रहे।जब दोनों भाइयोंने प्रणामके लिये भूमिपर सिर रखे तो पुजारीके साथ सभी लोग एक साथ जयघोष कर उठे—’चारभुजानाथकी जय! गढ़बोरपतिकी जय ! छोगाला छैलकी जय ! गिरिराज धरणकी जय ! मेड़तेके सूर्य-चन्द्रकी जय! महाराजकुमारकी जय! कुँवर रतनसिंहकी जय!’
दोनों भाई उठकर गले मिले और प्रसाद चरणामृत लिया। प्रसादी माला धारण कराते समय पुजारीजीने कहा-‘आज तो लगा कलियुग आपके डरसे पूँछ दबाकर कहीं भाग छिपा और त्रेता उपस्थित हो गया। राम और भरत कभी न बिछुड़ने के लिये मानो प्रतिज्ञाबद्ध होकर गले मिल रहे हों। यह दृश्य देखकर जीवन धन्य और आँखें ठण्डी हो गयीं।’
‘पुजारीजी महाराज! कौन जाने किसने हमारी इस श्रेष्ठ गुणोंसे मंडित महान् जातिको फूटका शाप दे डाला है कि इसके सभी गुण धूमिल होकर रह गये। इसी एक अवगुणका दुष्फल हमारी जातिको ही नहीं, सम्पूर्ण देश और प्रजाको बारंबार भुगतना पड़ा है। प्रभु कृपा करें और यह कलंक मिटे तो सब सुखकी साँस लें।’- रतनसिंहने हँसते हुए कहा।
सवा महीना होनेके पश्चात् सभी उमरावोंके साथ जयमलको गोदमें लेकर रतनसिंह चारभुजानाथके मंदिरमें गये। भेंटके साथ भतीजेको भी भूमिपर रखकर उन्होंने हाथ जोड़े-‘मेरे स्वामी! ऐसी कृपा करो नाथ! कि इस वंशका यह भावी नायक मेड़तेका यह नन्हा स्वामी, देशके महान् वीरोंका अग्रणी हो! इसका नाम लेते ही गर्वसे मेड़तियोंके अँगरखोंके बंध टूट जायँ! पीढ़ियाँ बीत जानेपर भी इस वंशके छोटेसे बालकका सिर भी ‘मैं मेड़तिया जयमलोत हूँ’ कहते हुए। ऊपरको तन जाय! इसके साथ ही इसे भक्ति-प्रसाद प्रदान करना मेरे आराध्य ! राज्य ऐश्वर्य रहे ना रहे, पर वीरतापर, कर्तव्य-पालनपर दाग न लगे! मातृभूमिके लिये सिर हथेलीपर उठाये फिरनेवालोंकी पंक्तिमें इसका नाम प्रथम हो! मानव जन्मकी सफलताके लिये जिस आकांक्षासे राजपूत जीवनभर माँ दुर्गाकी आराधना करते हैं, वही…. वही रण-शय्या इसे अंतमें प्राप्त हो !”
बालक जयमलको देख मीरा बहुत प्रसन्न होती। जब दूदाजी उसको गोदमें लेकर बैठते तो मीरा उनसे लगकर घुटनेके समीप बैठ जाती। दूदाजी अथवा कोई संत जब भक्त या भगवच्चरित्र सुनाते, तब जयमल और मीरा दोनों ही बालक मन लगाकर सुनते। वीरोंकी चर्चा जयमलको विशेष प्रिय लगती। युद्ध वर्णन सुनते हुए उसे जोश चढ़ आता, कभी दाँतोंसे होठ दबाता, कभी हुंकार करता और कभी ताल ठोंककर उछल खड़ा होता। पौत्रके प्रश्न और चेष्टाएँ देखकर दूदाजी बड़े प्रसन्न होते। वे कभी-कभी चर्चा चलने पर कहते–’जयमल हमारे वंशका अमूल्य रत्न है। यह विख्यात योद्धा होगा।’
इसी प्रकार भगवच्चर्चा होनेपर छोटी-सी मीराके बड़े बड़े नयन भर आते। प्रभुके रूप-गुणोंको सुनकर उसकी देह रोमांचित हो उठती। कितने ही सुन्दर, मधुर भजन-कीर्तन उसने सीख लिये थे। जब वह गाती तो दूदाजी देहकी सुध भूल जाते। नेत्रोंकी वर्षा उनका वक्ष भिगो देती। वे उसे छातीसे लगा लाड़ करते न अघाते।
योगी श्रीनिवृत्तिनाथजी से सच्चर्चा….
कुछ समय पश्चात् दूदाजी मीरा और उनके पिता रतनसिंहजीके साथ डाकोरनाथके दर्शन करने गुजरातकी ओर पधारे। मार्गमें एक दिन उपयुक्त रमणीय स्थान देखकर उन्होंने विश्रामके लिये यात्रा रोकनेका आदेश दिया। विशाल वटवृक्षके नीचे तम्बू छोलदारियों की कनातें खींचकर बाँध दी गयीं। उनमें शय्या, शस्त्र, चौकियाँ, वस्त्र और पूजाके उपकरण सजा दिये गये। सेवकगण अपने-अपने कार्योंमें लग गये। कोई गरम पानी, उबटन आदि लेकर अलग-अलग तम्बुओंमें पहुँचा रहे थे। रसोइये शीघ्रतापूर्वक भगवान्के भोग और बालकोंके लिये भोजनकी व्यवस्था कर रहे थे। कई लोग हाथी-घोड़ोंकी थकावट उतारनेके लिये लोई (हल्दी, गुड़, महुआ आदिसे बना लड्डू) देकर उनके चारे-पानीकी व्यवस्था कर रहे थे। बहुत-से उनकी पीठ और पैरोंकी मालिश कर रहे थे।
दूदाजी राजपुरोहितजी और अन्य सरदारों के साथ बातें करते हुए बाहर का दृश्य देख रहे थे। एक छोटे पहाड़की तलहटीमें कल-कल करती स्वच्छ सलिला सरिता प्रवाहित थी। हरित तृण-मण्डित धरा और मेघाच्छादित गगन। दूदाजीके भक्त हृदयमें भाव-तरंगें उठने लगीं—’यहीं-यही तो वृन्दावन है, यहीं कहीं मेरे हृदय सर्वस्व गायें चराते होंगे! कहीं सखाओंके साथ खेलते होंगे अथवा कहीं यमुनामें जल-क्रीड़ा कर रहे होंगे…. कहीं वंशीवादन कर रहे होंगे..!!’
दूदाजीकी दृष्टि कहीं खो गयी। आस-पास बैठे राजपुरुष आश्चर्यसे उन्हें देख रहे थे। उनकी आँखों में शराबमें मदमत्त जैसी खुमारी और चेहरेपर आनन्दमिश्रित पीड़ा थी। उसी समय रनिवास के तम्बूमें झालीजीने दासीसे कहा-‘अन्नदाता हुकमके पाससे मीराको ले आ और नहला-धुलाकर जो भी प्रसाद तैयार हो, उसे खिला-पिला दे।’
‘अन्नदाता हुकमके पासमें तो बाईसा नहीं हैं।’
दासीने लौटकर बताया।
‘और किसी डेरेमें होगी।’ उन्होंने कहा।
सभी तम्बुओंमें खोज लेनेपर राव दूदाजीको सूचना दी गयी। चारों ओर घबराहट फैल गयी।
‘महाराज, बाईसा नहीं मिल रही हैं।’-साथ आयी सेनाके प्रधानने कहा।
‘हूँ, क्या?’– उन्होंने भाव-समाधिसे निकलते हुए पूछा। बाईसाका कहीं पता नहीं है।’– उसने सिर झुकाये हुए निवेदन किया।
‘आस-पास ही कहीं होगी। हम ढूँढ़ते हैं। तुम अपना काम देखो।’
क्रमशः