अचानक हड़बड़ाकर वे जग गये और मन-ही-मन कहने लगे-‘यह क्या स्वप्न देखा मैंने? क्या सचमुच ही प्रभु डाकोर पधारना चाहते हैं? अहा, ऐसा भाग्य कहाँ? स्वप्न तो स्वप्न ही होते हैं मेरे पागल मना! असम्भवकी आशा न जगा। निज मंदिर में जाकर प्रभुके श्रीविग्रहको हाथ लगायेगा तू? देख रहा है न इन पंडे-पुजारियोंको, तेरी हड्डियोंकी खैर नहीं रहेगी। सो तो सब ठीक है, पर वह मोहिनी मूरत? अहा, उसका लोभ कैसे छोड़ दूँ? मुखसे झरती हुई अमृतवाणी, कानोंमें अभी भी वह स्वर धीमा नहीं पड़ा है। सबसे बढ़कर वह… वह मुसकान । हे भगवान्! मैं क्या करूँ? कहाँ जाऊँ? लगता है जैसे मन मिश्रीकी डली-सा घुल गया इस मुस्कानमें । और….. और…. वह नजर, क्या वह कहनेमें आ सकती है? वे कोमल पलकें, वह आमकी फाँक-सी बड़ी-बड़ी आँखें, वे काली भँवर-सी पुतलियाँ। आह! कैसे-कैसे वह दृष्टि कलेजेमें उतरकर आरी-सी चलाती है कि न कराहते बनता है न मुस्कुराते प्राणोंका चैन छीन लेनेवाली यह मीठी पीड़ा..!!
अपने विचारोंमें लीन उन्हें ज्ञात ही न हुआ कि तीन प्रहर रात कब बीत गयी है और रात्रिके चतुर्थ प्रहरकी ठण्डी हवाके प्रभावसे कीर्तनियाँ लोग आड़े-टेढ़े हो झपकी लेने लगे हैं।
उन्होंने स्वयंसे कहा—’यही अवसर है प्रभुको ले जानेका उठ, तुझे डर किसका है ? तू तो प्रभुकी आज्ञाका पालन कर रहा है। क्या करेंगे ये लोग? मारेंगे पीटेंगे यही न? एक बार बाँहों में भरकर छाती ठंडी कर लूँ। एक बार, केवल एक बार मुझे साहस कर लेने दे मेरे कायर मन ! नयन-मन भर लूँ सुषमा-सिंधुके स्पर्शसे, फिर चाहे जो हो, जीवन रहे या जाय। देह तो जानी ही है, इसी मिस चली जाय। अहा, प्रभु पधारना चाहते हैं इस दीन सेवकके घर, यही तो मुख्य हैं…. यही तो मुख्य है…. उन्हींकी इच्छा-आदेश पूर्ण करने जा रहा हूँ मैं, तो क्या होगा? यह मैं क्यों सोचूँ? यह तो जिसने आदेश दिया है, वह जाने। ‘
उन्हें ज्ञात ही न हुआ कि कब वह उठकर मंदिरमें गये और कब श्रीविग्रहको अँकवारमें भरकर उठा लाये। आनन्दके उद्रेकसे नेत्रोंसे बहते पनारे जगको अँधेरा कर रहे थे, रोमांचित देह और लटपटी चाल। इतने पर भी उन्होंने दोनों हाथों से कसकर श्रीविग्रहको छातीसे दबा रखा था। अनुमानसे चलकर गाड़ीमें अपनी फटी कथरीपर प्रभुको सुला दिया, ऊपरसे वैसे ही चिथड़े ओढ़ा दिये और बैलोंको जुएके नीचे देकर जोत बाँध दिये। नथमें बँधी रस्सीका संकेत पाते ही उमंगमें भरे बैल घरकी ओर दौड़ चले। भक्तप्रवर बार-बार पीछे सिर घुमाकर देखते कि कहीं प्रभु उघाड़े न हो जायँ। बैलोंके दौड़नेसे इधर-उधर खिसककर कहीं चोट न लग जाये। वे बार-बार हाथ बढ़ाकर अपनी गुदड़ी प्रभुको ओढ़ा देते।
भावाविष्ट संत श्रीनिवृत्तिनाथ मानो सीधे भगवान से बोल पड़े-
“कहो तो रणछोड़ राय, स्मरण आती है देवी वैदर्भीके महलकी वह दुग्धफेनोज्ज्वल सुकोमल शय्या? अथवा क्षीरसागर और वैकुण्ठकी शेष शय्या? नहीं, भक्त हृदयको भाव शय्यापर आसीन हो तुम्हें सम्पूर्ण सृष्टि विस्मृत हो जाती है। अन्यथा तुम्हें द्वारिकाका यह ऐश्वर्य पूर्ण मन्दिर छोड़कर गरीब भक्तके घरमें जानेकी भला क्यों सूझती?”
योगी श्रीनिवृत्तिनाथ सचेत हो कहने लगे– ‘उधर द्वारिकामें पुजारीने निज मंदिरमें प्रवेश किया और बदहवाससे उल्टे पाँव बाहर भागे। क्षणभरमें चारों ओर यह बात फैल गयी कि मन्दिरमें श्रीविग्रह नहीं हैं। कोई रोने और हाय-हाय करने लगे, कोई घबराकर इष्ट मंत्रका जप करने लगे और दूसरे सब खोजनेमें लग गये। छान बीनसे ज्ञात हुआ कि और सब तो यहीं हैं, किन्तु मन्दिरके बाहर पड़े लोगों में डाकोरके वे गृहस्थ भक्त और उनकी गाड़ी नहीं है। कहीं…वहीं तो…?
यों तो चारों दिशाओं में घुड़सवार दौड़ गये थे, फिर भी एक टुकड़ीको विशेषकर डाकोरके पथपर तीव्र गतिसे जानेकी आज्ञा मिली। उन भक्तप्रवरने पीछेसे धूलका बवण्डर-सा उठता आता देखा तो समझ गये कि ये उन्हींको पकड़नेके लिये आ रहे हैं। घोड़ोंकी चालकी समता गाड़ीमें जुते बैल किसी प्रकार नहीं कर सकेंगे, यह जानते हुए भी उन्होंने बैलोंको ललकारा। स्वामीके स्वरका मर्म समझ वे मूक प्राणी प्राणप्रणसे भाग चले। वे बार-बार पीछे देखते, प्रतिक्षण पीछे आते सवार उन्हें समीप होते लगे। हृदयकी घबराहटकी सीमा नहीं थी—’क्या करूँ? अब क्या करूँ, कहाँ छिपा लूँ प्रभुको? उन्हें अपना भान नहीं था, किन्तु गाड़ीमें सोये मेरे ये स्वामी, ये तो डाकोर जाना चाहते हैं। इन्हें यदि ये लोग ले गये तो मैंने फिर जीकर क्या किया? जीवनभरमें यही एक आज्ञा, सेवा तो प्राप्त हुई, यह भी न कर सका तो जी करके क्या किया? जीवन इनसे बढ़कर है? अरे, ऐसे सौ-सौ जीवन इनपर न्यौछावर हैं, पर अब…. मैं क्या करूँ? कैसे, कहाँ छिपाऊँ तुम्हें?’
तभी उनकी दृष्टि सामने थोड़ी ही दूर दाहिने हाथकी बावड़ीकी ओर गयी। उनके मस्तिष्कमें बिजली-सी कौंध गयी, साथ ही हाथोंने बैलोंकी रास खींच ली। उनके खड़े होते-न-होते तो वे कूद गये गाड़ीसे, दौड़कर पीछेकी ओर गये, प्रभुको उठाया और प्राणोंका दम लगाकर बावड़ीकी ओर भागे। जल्दीसे सीढ़ियाँ उतरकर जलके समीप ही एक ताकमें प्रभुको रखकर ऊपरसे गुदड़ी लगा दी। वापस आकर गाड़ीपर बैठ गये और बैलोंको धीरे-धीरे आगे बढ़नेका संकेत किया।
‘अरे ओ गाड़ीवाले! ठहर जरा, भगवान को चुराकर ले जा रहा है चोट्टा कहींका!’–सवारोंने समीप आकर डाँटा उन्हें ।
‘शूं चोरीने लाव्यो बापजी! हूँ तो गरीब माणस हूँ, जे होय ते तमें गाड़ीमाँ जोई लो।’—सवारोंने गाड़ीमेंसे उनका पानीका घड़ा, लोटा, डोर सब एक-एककर नीचे फेंक दिये। गुदड़ी जो बिछायी हुई थी गाड़ीमें-उसे उठाते ही पीताम्बरीकी जरी सूर्यकी धूपमें झलमला उठी।
‘अरे चोट्टे, कहता है कि गाड़ी मा कंश्यू नथी और यह दुपट्टा क्या तेरा है या तेरे बाप का है? बता भगवान का विग्रह कहाँ है..??’
अब क्या उत्तर दें वे? उत्तर न देनेपर खिजाये हुए सवार पिल पड़े। वृद्ध गृहस्थ भक्त को मारते-मारते लहूलुहान कर दिया उन्होंने, किन्तु उनके मुँहसे बात की कौन कहे, कराह तक न निकली। कराह भक्त के मुँहसे भले न निकले, पर उस भक्तके स्वामी कराह उठे इस अत्याचार से!
बावड़ी से एक दबंग स्वर आया- ‘अरे मुखों! मैं अपने भक्तके साथ अपनी इच्छासे आया हूँ। मैं अपने प्यारे भक्त के साथ रहना चाहता हूँ, द्वारिका नहीं जाऊँगा। इसपर पड़नेवाली प्रत्येक मार मुझे लगी है। आकर देखो, मेरे रक्त से जल लाल हो गया है।
क्रमशः
2 Responses
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