श्री द्वारिकाधीश भाग – 8

‘ये देव आदित्य नहीं है’ श्रीकृष्णचन्द्र ने हँसकर कहा- ‘ये सूर्यदेव के भक्त सत्राजित हैं। लगता है भगवान भास्कर ने उन्हें अपना मणि आज प्रदान किया है। उस मणि के तेज से ही प्रकाशमय हो रहे है।’
युवक फिर दौड़ गये।सत्राजित अपने भवन चले गये। वहाँ उन्होंने अपने पुरोहित तथा ब्राह्मणों को बुलवाया। विधिपूर्वक मणि की पूजा करके उसकी स्थापना करायी। इस प्रकार यह पद्मराग (लाल) मणि भगवान सूर्य की प्रतिमा के रूप में प्रतिष्ठित हुई। उस मणि से आठ भार स्वर्ण प्रतिदिन प्रकट होने लगा। सत्राजित द्वारिका में प्रसिद्ध दानी और सम्पन्न बन गये थोड़े ही समय में।

‘आपको स्यमन्तक मणि महाराज उग्रसेन को अर्पित कर देना चाहिये’ एक दिन श्रीकृष्णचन्द्र ने सत्राजित से कहा। अकस्मात ही सत्राजित से भेंट हो गयी थी- ‘प्रजा के पास जो उत्कृष्ट रत्न होते हैं, उनकी शोभा राजा के पास रहने में है। अपने सम्मान्य संरक्षक से अधिक ऐश्वर्य अपने पास रखना किसी के लिए शोभास्पद नहीं है’

‘वह मेरे आराध्य प्रसाद है। उनका पूज्य प्रतीक’ सत्राजित ने स्पष्ट अस्वीकार कर दिया। उनके मन में मणि में श्रद्धा का भाव नहीं था। मन में लोभ आ गया था- मणि से प्रतिदिन मिलने वाले स्वर्ण का लोभ। इतना स्वर्ण जिससे प्रतिदिन मिलता है, उसे दूसरे को- भले वे अपने राजा ही हों, क्यों दे दिया जाय। श्रीकृष्णचन्द्र ने कुछ नहीं कहा। सत्राजित भी शीघ्र चले गये वहाँ से, जिससे उनसे आग्रह न किया जा सके। लेकिन सत्राजित ने नहीं समझा कि ये त्रिलोकेश्वर रमाकांत क्यों उनको मणि महाराज उग्रसेन को देने को कह रहे हैं। सत्राजित ने नहीं समझा कि जिस भक्ति ने, जिस श्रद्धा ने उनको भुवन भास्कर का मित्र बनाया था, वह उनसे जा चुकी थी। मणि यदि आराध्य का प्रतीक रहती- सुपूजित रहती तो परमपावन थी।

देवता के पावन प्रतीक को किसी को दूसरे को देने की चर्चा श्रीकृष्ण क्यों करेंगे किन्तु मणि अब भगवान सूर्य का प्रतीक नहीं हो रही थी। वह सत्राजित के लिये स्वर्ण पाने का माध्यम- लोभ की पोषिका हो गयी थी। सत्राजित को मणि के दर्शन, पूजन से सूर्यनारायण का स्मरण नहीं होता था अब। अब उनका ध्यान स्वर्ण पर रहने लगा था। अब स्वर्ण-दान करके मिलने वाला यश- लोकेषणा- महत्त्वपूर्ण हो गयी थी।

श्रीकृष्ण का स्वभाव बन्धन देना नहीं है, बन्धन काटना है। सूर्य ने मणि देकर पिण्ड छुड़ा लिया। मोह-लोभ, यशेच्छा दे दी है और श्रीकृष्ण चाहते थे कि सत्राजित मणि त्यागकर इन दुर्बलताओं से ऊपर उठ जायें।वे फिर सच्चे आराधक हो जायें। मणि सत्राजित के लिये आराध्य का प्रतीक नहीं रह गयी थी, यह बात उस दिन स्पष्ट हो गयी जब उनके छोटे भाई प्रसेन ने पूज्यपीठ पर से उठकर मणि को कण्ठ में बाँध लिया। सत्राजित को अपना छोटा भाई बहुत प्रिय था। बहुत स्नेह था भाई पर। प्रसेन ने कहा- ‘भैया मैं इसे पहिनकर आखेट करने जा रहा हूँ।’

सत्राजित को लगा कि प्रसेन लोगों को दिखलाना चाहता हूँ कि उसके पास इतना अलौकिक कण्ठाभरण है। सत्राजित भी तो स्वर्णदान करके प्रसिद्धि प्रिय हो गये थे।भाई की अभिलाषा उन्हें अनुचित नहीं लगी। छोटे भाई का मन क्यों तोड़ा जाय। केवल कह दिया- ‘इसे बहुत सावधानी से रखना और सायंकाल तक आकर पूजा के लिये रख देना’ -मणि से रात्रि में ही स्वर्णराशि प्रकट होती है, अतः दिन में वह आभरण बनी रहे, इसमें कोई हानि सत्राजित को नहीं दीखी। यह बात ही मन में नहीं आयी कि मणि आराध्य की मूर्ति बन गयी प्रतिष्ठा के पश्चात। अब उसे आभरण नहीं बनाया जाना चाहिये। आखेट में हिंसा कर्म के समय मणि कण्ठ में बंधी रहे, उसे बाँधकर आखेट में मारे पशु उठाये जायें, छुए जायँ, यह अनुचित है, ऐसी कोई बात ध्यान में नहीं आयी। रत्नों के गुण-दोष-प्रभाव जानने वाले जौहरी और ज्योतिषी जानते हैं कि सब रत्न सबके लिये शुभ नहीं होते। जो रत्न जितना प्रभावशाली होता है, उतना ही शुभ या अशुभ होता है।

माणिक (क्योंकि शुद्ध रक्त के रंग का आठरत्ती से बड़ा लाल मिलता नहीं) बड़ा हो, शुद्ध हो,रक्त के रंग का हो तो जिसे शुभ होगा- ऐश्वर्य स्वास्थ्य, प्रभुत्व से पूर्ण कर देगा किन्तु वही जिसे अशुभ होगा,दुर्घटना, रक्तस्त्राव एवं मृत्यु का हेतु भी बन सकता है। स्यमन्तक तो लाल भी नहीं था। वह तो दिव्य सूर्यमणि था। उसे पूजित रखा जा सकता था, आभूषण बनाने की वस्तु ही वह नहीं था।प्रसेन कण्ठाभरण बनाकर मणि को आखेट करने निकला और लौटकर नहीं आया।

‘प्रसेन नहीं आया’ सत्राजित सायंकाल ही व्याकुल होने लगे। रात्रि जैसे-जैसे बीतती गयी- व्याकुलता बढ़ती गयी। पहिले रोष आया प्रसेन पर- ‘मणि की पूजा नहीं हो सकी आज’- यह मन ने कहा किन्तु अन्तर्मन में था कि आज मिलने वाला आठ स्वर्ण-भार गया। रात्रि व्यतीत हो गयी। दिन चढ़ आया। अब चिन्ता का स्वरूप बदला- ‘भाई का क्या हुआ?’ सत्राजित स्वयं अश्व पर बैठकर दूर तक देख आये। सेवक दौड़ाये। पता लगाने के लिये जितने प्रयत्न थे, सब कर देखे किन्तु प्रसेन को न लौटना था, न उसका कोई पता लगा। जिस अश्व पर बैठकर प्रसेन गया था, उसका भी कोई पता नहीं था।

‘लगता है कि मणि के लोभ में कृष्ण ने मेरे भाई को मार डाला’
बात पहिले मन में आई और फिर मुख से निकल गयी।
(क्रमश:)

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