सखी ! ये रस की बातें हैं
यह प्रेम को पन्थ है… रस को मारग कठोर है… तलवार की धारन में चलनो है… शीश काट के गेंद खेलनो है… उफ़ !
तो क्या समझ लिया था इस रसोपासना को… कि इस मार्ग में चलके तुम्हारे “शनि राहू केतु” ठीक हो जायेंगे… अजी ! राहू केतु ? यहाँ तो भगवान भूत भावन शंकर को भी तभी प्रवेश मिलता है… जब वो गोपी बनकर आते हैं… और उनको भी मात्र दर्शन ही मिलते हैं ।
इसलिये यह रसोपासना अगर समझ में नही आये… तो कोई बात नही… छोड़ दो इसे… क्यों कि इस मार्ग में चलने के लिये कलेजा चाहिये… दूसरों को मारना सरल है… पर स्वयं के अहंकार की बलि चढ़ाना बहुत बड़ा काम है… इस मार्ग में यही करना पड़ता है ।
तभी तो कहा… प्रातः काल उठकर ध्यान में बैठो… पर सावधान ! ध्यान में बैठने से पहले “सखी भाव” से भावित हो जाओ ।
बताइये !… जीवन भर हम पुरुष… हम ब्राह्मण बनिया… हम विद्वान्… सोचते रहे… कहते रहे… पर ये रसोपासना कहती है कि… नही… ये सब मिथ्या है… ब्रह्म तुम्हारा प्रियतम है… और तुम उनकी सखी हो… बस ।
( साधकों ! सखी भाव का मतलब अहंकार विसर्जित, पूर्ण समर्पण… कोई नारी भेष भूषा से इसका सम्बन्ध नही है )
चलिये ध्यान कीजिये –
प्रातः 5 बजे हैं… सबसे पहले श्रीरंगदेवी सखी उठती हैं…
अपनी केशराशि को सम्भालती हैं… बाँधती हैं…
फिर बड़े प्रेम से “श्रीराधा श्रीराधा श्रीराधा” नामोच्चारण करती हैं ।
जम्हाई लेती हुयी… इधर-उधर देखती हैं… उनके देह से चन्दन की सुगन्ध आरही है… युगल सरकार के प्रसादी इत्र फुलेल को अपने देह में लगाकर ये सब सोती हैं… इसलिए वातावरण सुगन्धित हो रहा है।
सखियों ! उठो… युगल सरकार को जगाना भी है… देखो ! इस प्रकार सो कर क्यों समय को खराब कर रही हो… चलो ! कितना सुन्दर श्रीधाम वृन्दावन है… देखो ! यमुना रसरानी बड़ी ही प्रफुल्लता से बह रही हैं… चलो स्नान करने ।
श्रीरंगदेवी सखी ने अन्य सखियों को उठाया ।
सब सखियाँ उठ गयीं… और वह सखियों का कुञ्ज “श्रीराधा नाम के उच्चारण से गूँज उठा… पक्षियों ने कलरव करना शुरू किया ही था कि… चुप ! कोयली ! तू बहुत बोलती है… चुप ! युगल सरकार शयन कर रहे हैं… उनके नींद में विघ्न मत डाल… और तू क्यों उठती है इतनी जल्दी ? हमें तो स्नान करना है… फिर अपना श्रृंगार करना है… तुझे न स्नान करना है न सजना है ।
श्रीललिता सखी ये कहते हुए हँसी… तो सारी सखियाँ हँस पडीं ।
कोयली चुप हो गयी ।
सब कुञ्जों से निकलीं… अष्ट सखियाँ क्या निकलीं… प्रत्येक की अष्ट-अष्ट सखियाँ भी अपने-अपने कुञ्जों से प्रकट होने लगीं ।
कहीं बिलम्ब न हो जाए… और हम से पहले युगल सरकार अगर जाग गए तो ? श्री रंगदेवी ने श्री ललिता सखी से कहा ।
नही जागेंगे… चलो ! फिर भी मन में सन्देह है तो देख लो… निकुञ्ज का परदा हटा कर देख लें ?… श्रीइन्दुलेखा ने पूछा ।
और जैसे ही झीना परदा हटाया… बड़ी गहरी नींद में सो रहे हैं “युगलवर”… तुरन्त परदा लगा दिया… ताकि बाहर के कलरव से ये युगलवर जाग न जाएँ ।
सखी ! चलो… जल्दी चलो और स्नान करके आती हैं हम सब ।
सखियाँ चलीं… प्रातः की वेला है… श्रीधाम वृन्दावन की शोभा अलग ही दिख रही है… वृक्ष हैं घने… मोरछली के… तमाल के… कदम्ब के ।… शरद ऋतु है इस समय ।
वैसे श्रीधामवृन्दावन में दो ही ऋतु रहती हैं… एक वसन्त और दूसरा शरद… अन्य ऋतुएँ का आना जाना सखियों की इच्छाओं पर निर्भर करता है… ये जिस ऋतू की कामना करें श्रीधाम वृन्दावन उसी ऋतु को प्रकट कर देती है… श्री वृन्दावन भी “वृन्दा सखी” के रूप में ही यहाँ युगल सरकार की सेवा में रत हैं ।
नाना प्रकार के कुञ्ज हैं इस श्रीधाम में… कमल खिले हैं छोटे-छोटे सरोवरों में… कदली के कुञ्ज है… कमल कुञ्ज है… यमुना जी का दर्शन होता है… दिव्य निर्मल यमुना हैं… यमुना की बालुका ऐसी है जैसे कपूर और मोती को पीस कर किसी ने बिखेर दिया हो ।
लता पत्रों में “श्रीराधा श्रीराधा” अंकित है… और वो सब दूर से ही चमक रहे हैं… यमुना गोलाकार हैं… जैसे कंकण के आकार की तरह… मानो यमुना जी श्रीधाम वृन्दावन की परिक्रमा कर रही हों ।
मधुर स्वर से सब सखियाँ… युगल नाम का गान करती हुयी चल रही हैं… उनके मधुर स्वर से पूरा विपिन राज गुँजित हो रहा है ।
राधे कृष्ण राधे कृष्ण कृष्ण कृष्ण राधे राधे !
राधे श्याम राधे श्याम श्याम श्याम राधे राधे !!
अब ज्यादा देरी मत करो… हम सब को श्रृंगार भी तो करना है ।
श्री रंगदेवी सखी ने सब सखियों को सावधान किया… क्यों कि सब युगलनाम संकीर्तन करते हुए अपने देह भान को भूल गयीं थीं ।
सखियों ! सेवा में ये भी अपराध है… स्वयं को आनन्द आरहा है कहकर हम युगल की सेवा में प्रमाद नही कर सकतीं… हमें अपने सुख की ओर तो ध्यान देना ही नही है… युगल कैसे प्रसन्न हों… बस… “हमें तो सुख देना है… हमें सुख लेना नही हैं” ।
इतना कहते हुए श्रीरंगदेवी सखी सर्वप्रथम यमुना में उतरीं ।
यहाँ कुछ जड़ नही हैं सब कुछ चैतन्य हैं… जितनी गहराई यमुना की चाहिये स्नान के लिये सखियों को… उतनी ही गहरी यमुना हो जाती हैं… सब स्नान कर रही हैं… यमुना का जल शीतल है… सब सखियाँ हृदय में युगल सरकार का ध्यान करती हुयीं स्नान कर रही हैं…
और गा रही हैं… बड़े प्रेम से गा रही हैं…
जय जय वृन्दावन रजधानी !!
जहाँ विराजत मोहन राजा, श्रीराधा सी रानी !!
सदा सनातन इक रस जोरी, महिमा निगम न जानीं !!
श्रीहरिप्रिया हितू निज दासी, रहति सदा अगवानी !!
🙏यमुना की तरंगें भी नाच रही हैं… सखियों का गान सुनकर ।🙏
शेष “रसचर्चा” कल..
🚩जय श्रीराधे कृष्णा🚩
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