श्रीकृष्ण और द्रौपदी एक शाश्वत मित्रता

द्रौपदी महाभारत के सबसे प्रसिद्ध पात्रों में से एक है। इस महाकाव्य के अनुसार द्रौपदी पांचाल देश के राजा द्रुपद की पुत्री है । द्रौपदी पंच-कन्याओं में से एक हैं जिन्हें चिर-कुमारी कहा जाता है। कृष्णेयी, यज्ञसेनी, महाभारती, सैरंध्री, पांचाली, अग्निसुता आदि अन्य नामो से भी विख्यात है। द्रौपदी पिछले जन्म में ऋषि मुद्गल की भार्या थीं।

अद्भुतप्रेमथाकृष्णऔरकृष्णाका …..

कृष्ण ने द्रौपदी से गहरा प्रेम किया लेकिन वह परिलक्षित नहीं होता है। दृष्टव्य न होने का तात्पर्य यह नहीं कि कृष्ण ने चोरी-छिपे प्रेम किया। न दिखने वाले इस प्रेम का आशय उस आध्यात्मिक प्रेम से है, जो स्त्री-पुरुषों के अंतर्मन में पलता है। दैहिक नहीं दैवीय प्रेम, सखा और सखी का प्रेम। सखा और सखी का यह प्रेम कृष्ण और द्रौपदी के संबंध में दिखता है। यह प्रेम इतना गहरा, इतना एकाकार है कि द्रौपदी का एक नाम कृष्णा भी है।

द्रौपदी कृष्ण से गहरे अंतर्मन से प्रेम करती थी। द्रौपदी ने अपने जीवन का सबसे अंतरंग संबंध कृष्ण के साथ जिया। यह दैहिक संबंध नहीं था। यह प्रेम की वह भाव भूमि थी, जिस पर कृष्ण और द्रौपदी एक धरातल पर खड़े थे। न तो कोई ऊपर और न कोई नीचे। यह दो मित्रों का अंतरंग संबंध था। द्रौपदी ने अपने सारे महत्वपूर्ण निर्णयों में कृष्ण को सम्मिलित किया। पांडवों को कई बार द्रौपदी के विचारों के बारे में कृष्ण के माध्यम से पता चलता था।

पांडवों की प्रधानमहिषि द्रौपदी, वास्तव में महाभारत की महिलाओं में सबसे प्रखर है। वह सबसे अधिक प्रश्न करती है, द्रौपदी एक “प्रश्न पूछती” नारी है। कृष्ण स्त्री-पुरुष संबंधों को लेकर द्रौपदी के दृष्टिकोण के सबसे बड़े समर्थक हैं। कृष्ण और द्रौपदी के बीच संबंध एक बराबरी का संबंध हैं, जहां महिला और पुरुष में लिंगभेद की कोई दीवार नहीं है।

प्रखर समाजवादी विचारक और नेता डा. राममनोहर लोहिया ने कृष्ण और द्रौपदी के साहचर्य को एक महान संबंध के तौर पर परिभाषित किया है। दोनों के बीच मित्रता को वह स्त्री-पुरुष के बीच मित्रता का आदर्श रूप मानते थे। डॉ. राममनोहर लोहिया अपने एक लेख में कहते हैं कि ”महाभारत का नायक कृष्ण और नायिका कृष्‍णा (द्रौपदी)। द्रौपदी तो कृष्ण के लायक ही थी। अर्जुन समेत पांचों पांडव उसके सामने फीके थे। कृष्ण और कृष्णा का यह संबंध राधा और कृष्ण के संबंध से कम नहीं।”

कृष्णऔरद्रौपदी का संबंध एक महिला और एक पुरुष, अराध्य और भक्त के साथ एक प्रेमी-प्रेमिका और सखा-सखी का आवरणहीन संबंध है जो स्वतंत्र है, समानता का है और लोकतांत्रिक है। द्रौपदी और कृष्ण ने जो संबंध जिया, उसकी सिर्फ मिसाल ही दी जा सकती है। आधुनिक परिवेश में द्रौपदी और कृष्ण के प्रेम को विचार करने की विशेष आवश्यकता है। क्या स्त्री और पुरुष के बीच आज कृष्ण और द्रौपदी जैसा संबंध नहीं हो सकता ?

देवी द्रौपदी से कृष्ण का संबंध कैसा था. क्या सखा- सखी का संबंध स्वयं एक अन्तिम सीढ़ी और असीम मैदान है जिसके बाद और किसी सीढ़ी और मैदान की जरूरत नहीं ? कृष्ण छलिया जरूर थे लेकिन कृष्णा से उन्होंने कभी छल नहीं किया। शायद वचनबद्ध थे, इसलिए। जब कभी भी कृष्णा ने उनको स्मरण किया, कृष्ण आये और स्त्री-पुरुष की किसलय मित्रता को सार्थक किया।

कृष्ण ने द्रौपदी से विवाह नहीं किया था। जबकि द्रौपदी के पिता पांचाल नरेश द्रुपद अपनी बेटी के लिए सबसे आदर्श वर के तौर पर कृष्ण को ही देखते थे। लेकिन कृष्ण ने उनका विवाह अर्जुन से कराया।

भगवान वासुदेव श्री कृष्ण व उनकी अनन्य सखी महारानी द्रौपदी के बीच एक अद्भुत मित्रता के कर्त्तव्य निर्वहन की कहानी प्रस्तुत है…..

कौरवों की राजसभा में पांडवों और कौरवों के बीच द्युतक्रीड़ा चरम पर थी। युधिष्ठिर जुए मे राज-पाट तथा भाइयों सहित स्वयं को भी हार चुके थे। युधिष्ठिर जब उठने लगे तो शकुनि ने कहा, “युधिष्ठिर! अभी भी तुम अपना सब कुछ वापस जीत सकते हो। अभी द्रौपदी तुम्हारे पास दाँव में लगाने के लिये शेष है। यदि तुम द्रौपदी को दाँव में लगा कर जीत गये तो मैं तुम्हारा हारा हुआ सब कुछ तुम्हें लौटा दूँगा।” सभी तरह से निराश युधिष्ठिर ने अब द्रौपदी को भी दाँव में लगा दिया और हमेशा की तरह हार गये।

अपनी इस विजय के मद से दुर्योधन मदान्ध हो उठा और
द्रौपदी को सभा में लाने के लिये अपने एक सेवक को भेजा।
वह सेवक द्रौपदी के महल में जाकर बोला, “महारानी! धर्मराज युधिष्ठिर कौरवों से जुआ खेलते हुये सब कुछ हार गये हैं। वे अपने भाइयों को भी आपके सहित हार चुके हैं, इस कारण दुर्योधन ने तत्काल आपको सभा भवन में बुलवाया है।”
द्रौपदी ने कहा, “सेवक! तुम जाकर सभा भवन में उपस्थित गुरुजनों से पूछो कि ऐसी स्थिति में मुझे क्या करना चाहिये?” सेवक ने लौट कर सभा में द्रौपदी के प्रश्न को रख दिया। उस प्रश्न को सुन कर भीष्म, द्रोण आदि वृद्ध एवं गुरुजन सिर झुकाये मौन बैठे रहे।

यह देख कर दुर्योधन ने दुःशासन को आज्ञा दी, “दुःशासन! तुम जाकर द्रौपदी को यहाँ ले आओ।” दुर्योधन की आज्ञा पाकर दुःशासन द्रौपदी के पास पहुँचा और बोला, “द्रौपदी! तुम्हें हमारे महाराज दुर्योधन ने जुए में जीत लिया है। मैं उनकी आज्ञा से तुम्हें बुलाने आया हूँ।” यह सुन कर द्रौपदी ने धीरे से कहा, “दुःशासन! मैं रजस्वला हूँ, मैं ने ऋतु-स्नान भी नहीं किया है। इस अवस्था में सभा में जाने योग्य नहीं हूँ क्योंकि इस समय मेरे शरीर पर एक ही वस्त्र है।” दुःशासन बोला, “तुम रजस्वला हो या वस्त्रहीन, मुझे इससे कोई प्रयोजन नहीं है। तुम्हें महाराज दुर्योधन की आज्ञा का पालन करना ही होगा।” उसके वचनों को सुन कर द्रौपदी स्वयं को वचाने के लिये गांधारी के महल की ओर भागने लगी, किन्तु दुःशासन ने झपट कर उसके घुँघराले केशों को पकड़ लिया और सभा भवन की ओर घसीटने लगा। सभा भवन तक पहुँचते-पहुँचते द्रौपदी के सारे केश बिखर गये और उसके आधे शरीर से वस्त्र भी हट गये। अपनी यह दुर्दशा देख कर द्रौपदी ने क्रोध में भर कर उच्च स्वरों में कहा, “रे दुष्ट! सभा में बैठे हुये इन प्रतिष्ठित गुरुजनों की लज्जा तो कर। एक अबला नारी के ऊपर यह अत्याचार करते हुये तुझे तनिक भी लज्जा नहीं आती? धिक्कार है तुझ पर और तेरे भरतवंश पर!”

यह सब सुन कर भी दुर्योधन ने द्रौपदी को दासी कह कर सम्बोधित किया। द्रौपदी पुनः बोली, “क्या वयोवृद्ध भीष्म, द्रोण, धृतराष्ट्र, विदुर इस अत्याचार को देख नहीं रहे हैं? कहाँ हैं मेरे बलवान पति? उनके समक्ष एक गीदड़ मुझे अपमानित कर रहा है।” द्रौपदी के वचनों से पाण्डवों को अत्यन्त क्लेश हुआ किन्तु वे मौन भाव से सिर नीचा किये हुये बैठे रहे। द्रौपदी फिर बोली, “सभासदों! मैं आपसे पूछना चाहती हूँ कि धर्मराज को मुझे दाँव पर लगाने का क्या अधिकार था?” द्रौपदी की बात सुन कर विकर्ण उठ कर कहने लगा, “देवी द्रौपदी का कथन सत्य है।” युधिष्ठिर को अपने भाई और स्वयं के हार जाने के पश्चात् द्रौपदी को दाँव पर लगाने का कोई अधिकार नहीं था क्योंकि वह पाँचों भाई की पत्नी है अकेले युधिष्ठिर की नहीं। और फिर युधिष्ठिर ने शकुनि के उकसाने पर द्रौपदी को दाँव पर लगाया था, स्वेच्छा से नहीं। अतएव कौरवों को द्रौपदी को दासी कहने का कोई अधिकार नहीं है।”

विकर्ण के नीतियुक्त वचनों को सुनकर दुर्योधन के परम मित्र कर्ण ने कहा, “विकर्ण! तुम अभी कल के बालक हो। यहाँ उपस्थित भीष्म, द्रोण, विदुर, धृतराष्ट्र जैसे गुरुजन भी कुछ नहीं कह पाये, क्योंकि उन्हें ज्ञात है कि द्रौपदी को हमने दाँव में जीता है। क्या तुम इन सब से भी अधिक ज्ञानी हो? स्मरण रखो कि गुरुजनों के समक्ष तुम्हें कुछ भी कहने का अधिकार नहीं है।” कर्ण की बातों से उत्साहित होकर दुर्योधन ने दुःशासन से कहा, “दुःशासन! तुम द्रौपदी के वस्त्र उतार कर उसे निर्वसना करो।” इतना सुनते ही दुःशासन ने द्रौपदी की साड़ी को खींचना आरम्भ कर दिया। द्रौपदी अपनी पूरी शक्ति से अपनी साड़ी को खिंचने से बचाती हुई वहाँ पर उपस्थित जनों से विनती करने लगी, “आप लोगों के समक्ष मुझे निर्वसन किया जा रहा है किन्तु मुझे इस संकट से उबारने वाला कोई नहीं है। धिक्कार है आप लोगों के कुल और आत्मबल को। मेरे पति जो मेरी इस दुर्दशा को देख कर भी चुप हैं उन्हें भी धिक्कार है।”

द्रौपदी की दुर्दशा देख कर विदुर से रहा न गया, वे बोल उठे, “दादा भीष्म! एक निरीह अबला पर इस तरह अत्याचार हो रहा है और आप उसे देख कर भी चुप हैं। क्या हुआ आपके तपोबल को? इस समय दुरात्मा धृतराष्ट्र भी चुप है। वह जानता नहीं कि इस अबला पर होने वाला अत्याचार उसके कुल का नाश कर देगा। एक सीता के अपमान से रावण का समस्त कुल नष्ट हो गया था।”

विदुर ने जब देखा कि उनके नीतियुक्त वचनों का किसी पर भी कोई प्रभाव नहीं पड़ रहा है तो वे सबको धिक्कारते हुये वहाँ से उठ कर चले गये।

जब कौरवों की सभा में दुष्ट दु:शासन ने द्रौपदी को निर्वस्त्र करना चाहा। समस्त विद्वान सभासद सिर झुकाए बैठे रहे, वीर और पराक्रमी सभासद हाथ पर हाथ मलते रहे लेकिन किसी का साहस न हुआ कि इस अमानुषी अत्याचार को रोके, उस समय अपनी लाज बचाने का कोई दूसरा उपाय न देखकर द्रौपदी ने अत्यन्त कातर होकर भगवान श्रीकृष्ण को पुकारा…..
गोविन्दो द्वारकावासिन् कृष्णी गोपीजनप्रिय,
कौरवै: परिभूतां मां‍ किं न जानासि केशव।
हे नाथ हे रमानाथ व्रजनाथार्त्तिनाशन,
कौरवार्णवमग्नांथ मामुद्धरस्व जनार्दन।
कृष्ण कृष्ण् महायोगिंविश्वाेत्म्विश्व भावन।
प्रपन्नांम पाहि गोविन्द, कुरुमध्येशअवसीदतीम्॥

“हे गोविन्द! हे द्वारकावासी! हे सच्चिदानन्दस्वरूप प्रेमघन! हे गोपीजनवल्लभ! हे केशव! मैं कौरवों के द्वारा अपमानित हो रही हूँ, इस बात को क्या आप नहीं जानते? हे नाथ! हे रमानाथ! हे व्रजनाथ, हे आर्तिनाशन जनार्दन! मैं कौरव समुद्र में डूब रही हूँ, आप मुझे इससे निकालिये। कृष्ण! कृष्णे! महायोगी! विश्वात्मा! विश्व के जीवनदाता गोविन्द! मैं कौरवौ से घिरकर बडे संकट में पडी हुई हूँ, आपकी शरण में हूँ, मेरी रक्षा कीजिए।”

रितिकालीन हिंदी कवि भूषण की इस कविता के माध्यम से द्रौपदी के चीरहरण का वृत्तांत देखिए …

पाय अनुशासन दुशासन करि कोप धायों ,
द्रुपदसुता को चीर गहयो भीर भारी है ,
भीसम , करण, द्रोण बैठे वृतधारी तहाँ ,
कामिनी की ओर काहू नेकु ना निहारी है ,
सुनि कै पुकार धाये द्वारका ते यदुराई ,
बाढ़त ढकूल खैचे भुजबल हारी है ,
सारी बीच नारी है कि नारी बीच सारी है ,
सारी ही की नारी है कि नारी ही की सारी है।

सच्चे हृदय की करुण पुकार भगवान अविलंब सुनते हैं।
भक्तवत्सल श्री कृष्ण ने द्रौपदी की पुकार सुन ली। वे समस्त कार्य त्याग कर तत्काल अदृश्यरूप में वहाँ पधारे और आकाश में स्थिर होकर द्रौपदी की साड़ी को बढ़ाने लगे। दुःशासन द्रौपदी की साड़ी को खींचते जाता था और साड़ी थी कि समाप्त होने का नाम ही नहीं लेती थी। साड़ी को खींचते-खीचते दुःशासन शिथिल होकर पसीने-पसीने हो गया किन्तु अपने कार्य में सफल न हो सका। अन्त में लज्जित होकर उस चुपचाप बैठ जाना पड़ा। अब साड़ी के उस पर्वत के समान ऊँचे ढेर को देख कर वहाँ बैठे समस्त सभाजन द्रौपदी के पातिव्रत की मुक्त कण्ठ से प्रशंसा करने लगे और दुःशासन को धिक्कारने लगे।

द्रौपदी के चीर हरण का यह द्रष्टांत महाभारत ग्रंथ का एक बहुत महत्वपूर्ण अध्याय है | जिसमे कुछ आसुरीक प्रवृत्ति के कौरवों ने द्रोपदी को अपमानित किया वहीं एक कौरव विकर्ण ने इसका विरोध भी किया | इस वृतांत मे जहाँ पांडव तथा भीष्म इत्यादि शांत रहे वहीं कर्ण जैसे दानवीर अधर्म के पक्ष मे बोल गए तथा विदुर ने कौरवो की सेना मे होने पर भी अधर्म का विरोध किया | अंत मे श्री कृष्ण ने अपने मैत्री धर्म और अपनी मित्रता के कर्त्तव्य निर्वहन से द्रोपदी की अस्मिता की रक्षा की। द्रौपदी के चीरहरण का यह प्रयास आगे चलकर महाभारत युद्ध का कारण बना और अंत मे जिस-जिस ने द्रोपदी के साथ अन्याय किया तथा जो-जो कौरवों की अन्यायी सेना के पक्ष में लड़े उन सभी का अंत हुआ यह सभी लोग भली भांति जानते हैं |

ॐ कृष्णाय वासुदेवाय हरये परमात्मने,
प्रणत क्लेश नाशाय गोविन्दाय नमो नमः।



Draupadi is one of the most famous characters of the Mahabharata. According to this epic, Draupadi is the daughter of King Drupada of Panchal country. Draupadi is one of the five-girls who are called Chir-Kumari. Krishnayi, Yajnaseni, Mahabharati, Sairandhri, Panchali, Agnisuta etc. are also famous by other names. Draupadi was the wife of sage Mudgal in her previous birth. The amazing love of Krishna and Krishna…..

Krishna deeply loved Draupadi but it is not reflected. The absence of vision does not mean that Krishna loved secretly. The meaning of this invisible love is that spiritual love, which grows in the hearts of men and women. Divine love, not physical love, the love of friend and friend. This love of Sakha and Sakhi is seen in relation to Krishna and Draupadi. This love is so deep, so united that Draupadi has a name Krishna too.

Draupadi loved Krishna deeply. Draupadi had the most intimate relationship of her life with Krishna. It was not a physical relationship. This was the land of love on which Krishna and Draupadi were standing on a level ground. Neither above nor below. It was an intimate relationship between two friends. Draupadi included Krishna in all her important decisions. The Pandavas came to know about Draupadi’s thoughts several times through Krishna.

Draupadi, the consort of the Pandavas, is indeed the fiercest of the women of the Mahabharata. She asks the most questions, Draupadi is a “questioning” woman. Krishna is the biggest supporter of Draupadi’s view of man-woman relationship. The relationship between Krishna and Draupadi is one of equals, where there is no wall of gender distinction between man and woman.

Prominent socialist thinker and leader Dr. Ram Manohar Lohia has defined the companionship of Krishna and Draupadi as a great relationship. He considered the friendship between the two to be the ideal form of friendship between a man and a woman. Dr. Rammanohar Lohia says in one of his articles that “The hero of Mahabharata is Krishna and the heroine is Krishna (Draupadi). Draupadi was worthy of Krishna. The five Pandavas including Arjuna paled in front of him. This relation of Krishna and Krishna is no less than the relation of Radha and Krishna. Krishna and Draupadi’s relationship is an unvarnished relationship of lover-girlfriend and friend-friend with a woman and a man, aradhya and bhakta which is free, equal and democratic. The relationship that Draupadi and Krishna lived, can only be given as an example. There is a special need to consider the love of Draupadi and Krishna in the modern environment. Can’t there be a relationship like Krishna and Draupadi between a man and a woman today?

How was Krishna’s relation with Goddess Draupadi? Is the friend-friend relationship itself a last step and an infinite ground after which there is no need for any other ladder and ground? Krishna was definitely deceitful but he never cheated Krishna. Maybe committed, that’s why. Whenever Krishna remembered him, Krishna came and made the friendship between man and woman meaningful.

Krishna did not marry Draupadi. While Draupadi’s father Panchal Naresh Drupad saw Krishna as the most ideal groom for his daughter. But Krishna got her married to Arjuna.

Presenting the story of fulfilling the duty of a wonderful friendship between Lord Vasudev Shri Krishna and his exclusive friend Queen Draupadi…..

In the court of the Kauravas, the duel between the Pandavas and the Kauravas was at its peak. Yudhishthira had lost himself along with the kingdom and his brothers in gambling. When Yudhishthira started getting up, Shakuni said, “Yudhishthira! You can still win back everything you own. Now Draupadi is left with you to bet. If you win by placing Draupadi at stake, I will return everything you lost to you. Frustrated in every way, Yudhishthira now put Draupadi at stake as well and lost as usual.

Duryodhana became intoxicated with his victory and Sent one of his servants to bring Draupadi to the assembly. That servant went to Draupadi’s palace and said, “Queen! Dharmaraj Yudhishthira has lost everything while gambling with the Kauravas. They have lost their brothers including you, that is why Duryodhana has immediately called you to the assembly hall. Draupadi said, “Servant! You go and ask the teachers present in the Sabha Bhavan, what should I do in such a situation?” The servant returned and put Draupadi’s question in the assembly. Hearing that question, Bhishma, Drona etc. elders and teachers kept sitting silently with bowed heads.

Seeing this, Duryodhana ordered Duhshasan, “Dushshasan! You go and bring Draupadi here. After getting the orders of Duryodhana, Dushasan reached Draupadi and said, “Draupadi! Our king Duryodhana has won you in gambling. I have come to call you by his order. Hearing this, Draupadi said softly, “Dushshasan! I am Rajaswala, I have not even taken a seasonal bath. In this state, I am not fit to go to the assembly because at this time I have only one cloth on my body. Duhshasan said, “Whether you are menstruating or without clothes, I have no use for it. You have to obey the orders of Maharaj Duryodhana. Hearing his words, Draupadi started running towards Gandhari’s palace to save herself, but Dushasan grabbed hold of her curly hair and started dragging her towards the assembly hall. By the time she reached the meeting hall, all of Draupadi’s hair was scattered and her clothes were also removed from half of her body. Seeing this plight of hers, Draupadi filled with anger said in a loud voice, “You rascal! At least be ashamed of these prestigious teachers sitting in the assembly. Don’t you feel ashamed while doing this atrocity on an innocent woman? Woe to you and your Bharatvansh!”

Even after hearing all this, Duryodhana addressed Draupadi as a maidservant. Draupadi spoke again, “Aren’t the old men Bhishma, Drona, Dhritarashtra, Vidura watching this atrocity? Where is my strong husband? A jackal is humiliating me in front of them. The Pandavas were greatly distressed by Draupadi’s words, but they kept sitting silently with their heads down. Draupadi again said, “Members of the House! I want to ask you, what right did Dharamraj have to stake me?” After listening to Draupadi, Vikarna got up and said, “The statement of Goddess Draupadi is true.” Yudhishthira had no right to stake Draupadi after losing his brother and himself because she is the wife of all the five brothers and not of Yudhishthira alone. And then Yudhishthira staked Draupadi on Shakuni’s instigation, not voluntarily. Therefore the Kauravas have no right to call Draupadi a maid.

Hearing Vikarna’s ethical words, Duryodhana’s best friend Karna said, “Vikarna! You are just yesterday’s child. Even the teachers like Bhishma, Drona, Vidur, Dhritarashtra present here could not say anything, because they know that we have won Draupadi in a bet. Are you wiser than all of them? Remember that you have no right to say anything in front of the teachers. Encouraged by Karna’s words, Duryodhana said to Duhshasan, “Dushshasan! You take off Draupadi’s clothes and banish her. On hearing this, Duhshasan started pulling Draupadi’s saree. Draupadi saved herself from pulling her sari with all her might and started pleading with the people present there, “I am being banished in front of you but there is no one to save me from this trouble. Shame on your clan and your self-power. Shame on my husband who is silent even after seeing my plight.

Seeing the plight of Draupadi, Vidur could not help but said, “Dada Bhishma! An innocent person is being tortured like this and you are silent even after seeing him. What happened to your tapobal? At this time even the wicked Dhritarashtra is silent. He does not know that the atrocities on this weak person will destroy his family. Ravana’s entire clan was destroyed by the insult of one Sita.

When Vidura saw that his ethical words were not having any effect on anyone, he got up and went away cursing everyone.

When the evil Dushasan tried to disrobe Draupadi in the assembly of Kauravas. All the learned councilors kept bowing their heads, the brave and mighty councilors kept shaking hands, but no one had the courage to stop this inhuman atrocity, at that time Draupadi, seeing no other way to save her shame, cried out to Lord Krishna. ….. Govindo Dwarkavasin Krishna Gopijanpriya, Kauravai: Paribhutan Maa kin na jaanasi Keshav. O Nath O Ramanath Vrajnatharttinashan, Kaurvarnavamagnanth Mamuddharaswa Janardan. Krishna Krishna Mahayogin Vishwaetm Vishwa Bhavan. Prapannaam Pahi Govind, Kurumdhyeshavasidatim ॥

“O Govind! I am drowning, you get me out of this. Krishna! Krishna! Mahayogi! World soul! Govind, the life giver of the world! I am in great trouble surrounded by Kauravas, I am in your shelter, protect me.

Watch the story of Draupadi’s Chirharan through this poem of Ritikalin Hindi poet Bhushan…

Follow discipline and governance, Rip off Drupadasuta, the crowd is heavy, Bhisam, Karan, Drona sat there wearing circles, Kahu neku na nihari hai towards Kamini, Listen to the call of Dwarka to Yadurai, Barhat Dhakul Khiche Bhujbal Hari Hai, There is a woman in the middle, that there is a woman in the middle, Everything is woman or woman is everything.

God listens to the compassionate cry of a true heart without any delay. Bhaktavatsal Shri Krishna heard Draupadi’s call. Leaving all the work, he immediately came there in an invisible form and started raising Draupadi’s sari by being stable in the sky. Duhshasan used to pull Draupadi’s saree and the saree did not take the name of ending. While pulling the saree, Dushasan relaxed and became profuse but could not succeed in his task. In the end, feeling ashamed, he had to sit quietly. Now, seeing that mountain-like pile of saris, all the people sitting there started praising Draupadi’s husband’s fast with free voice and started cursing Dushasan.

This instance of Draupadi’s abduction is a very important chapter in the Mahabharata. In which some Kauravas of demonic nature insulted Draupadi, while one Kaurava Vikarna also opposed it. In this episode, where Pandavas and Bhishma etc. remained calm, the Danveers like Karna spoke in favor of unrighteousness and Vidura opposed unrighteousness even though he was in the army of Kauravas. In the end, Shri Krishna protected the dignity of Draupadi by performing his friendship religion and the duty of his friendship. This attempt to disrobe Draupadi later became the cause of the Mahabharata war and in the end all those who did injustice to Draupadi and those who fought in favor of the unjust army of Kauravas, all of them came to an end, this is well known to all.

Om Krishnaaya Vasudevaaya Haraaya Paramatmaaya, Obeisance to the destroyer of suffering, Govinda.

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